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“मेरी कामयाबी में एक चैलेंज मेरा सांवला रंग भी था”

कोंकणा सेन किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं मगर तमाम खूबियों के होते हुए भी, एक कमी है इनमें। अरे वही, इनके पास बेदाग गोरा रंग नहीं है और इस समाज में यह बहुत बड़ी समस्या है भाई।

कोंकणा सेन।

तुम अगर लड़की हो, तुम्हारा रंग काला है, सांवला है, चेहरों पर कुछ दाग है, तो काम तमाम है तुम्हारा। तुमसे घंटा कुछ हो पाएगा, क्योंकि नाम रौशन तो खाली “गोरा रंग” ही करता है।

गोरी नहीं हो, फलाने के यहां ऐसे जाओगी, तैयार हो तब जाना कहीं। गोरी नहीं हो, कौनो बियाह नहीं करेगा। गोरी नहीं हो, चुप्प करके घर बैठो, नौकरी बस की ना है तुमसे।

यह भेदभाव बाहर ही नहीं अपने घरों तक में पाया जाता है। जब फलाने फूफा की बेटी से तुम्हारा रंग तौला जाता है। जब काले कपड़े पहनने पर “खुद काली हो काला क्यों पहन लिया” बोला जाता है। जब “काली मायी”, “कोयले की खान” जैसे तमाम शब्द आपके ऊपर फेंके जाते हैं। यह किस तरह की विडंबना है कि अपने लोग ही आप पर तंज कसे?

एक रोज़ मेरे साथ भी कुछ ऐसा हुआ, जब मुझे मेरे काले कपड़ों के प्रति प्रेम को लेकर हंसी का पात्र बनाया गया। मतलब सांवली हूं तो काला रंग नहीं पहन सकती, क्योंकि फिर मेरे रंग और कपड़े में अंतर नहीं पता चलेगा ना।

इस बेतूकी सोच पर मैं बस हंस सकती हूं और उन पर तरस खा सकती हूं। इस तरह के कई किस्से सुने हैं और उदाहरण अनेक हैं। यकीन मानिए अनेक। लिखने पर आए तो आज हाथ नहीं रुकने वाले लेकिन मजबूरन थोड़ा ठहरते हैं।

गोरी चमड़ी का ढिंढोरा पीटने वालों से एक सवाल है। “आप वाकई सच्चाई से परे हैं या सिर्फ ढोंग करते हैं।”

यह बात जगज़ाहिर है, काबिलियत रंग नहीं बताता। चंद घंटों के लिए हो सकता है, प्रिवेलेज मिल जाए परंतु ताउम्र कतई नहीं। मैं आज एक सफल महिला हूं, हां अपने लिए मैं सफल शब्द जोड़ रही हूं क्योंकि हर एक की बस की बात नहीं होती, कुछ अलग करना, वो भी परिस्थितियों से लड़कर।

ऋचा

होश संभालना चालू ही हुआ था कि समझ आ गया था कि बॉस कुछ लोचा है। एक घटना बताती हूं, मैं भी क्लास में हमेशा अच्छे सवाल करती थी मगर मेरे मास्टर उसको (एक गोरे रंग की क्लासमेट थी) शाबाशी देने में लगे रहते थे। क्लास के लड़के भी उससे ही दोस्ती करने में दिलचस्पी दिखाते थे। यह सब नोट हो रहा था दिमाग में और यकीन मानिए इस तरह का रवैया हर जगह कहीं ना कहीं देखने को मिल जाता है। मैंने पढ़ाई की, इंजीनियरिंग की पढ़ाई, फिर सेंट्रल यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएट हुई और आज मैं एक अच्छे संस्थान में डिपार्टमेंटल हेड हूं।

सच कह रही हूं, सफर आसान नहीं था। कई बार मुंह की खानी पड़ी, भेदभाव की शिकार बनी। लोगों ने खूब तंज कसे कि ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई ना करो, वैसे ही सांवला रंग है, लड़का खोजने में दिक्कत होगी।

हम सबके अंदर इन सबसे लड़ने की क्षमता होती है, ज़रूरत होती है बस उसको बाहर निकालने की और लोगों को मुंहतोड़ जवाब देने की।

कामयाबी को रंग, शरीर का ढांचा, बनावट जैसे तमाम मापदंडों पर तौलने वालों से एक ही अनुरोध है, “बस बंद भी करो ढकोसला, अपनी सोच को किसी गटर में क्यों नहीं फेंकते हो। कब तक तुम जैसों की वजह से, दूसरा घुटे, जीने दो सबको। हम सांवली लड़कियां किसी से कम नहीं हैं और अब किसी से ताने नहीं सुनेंगे। मत भूलना, उन ढेरों कामयाब युवतियों को जो आज भी अपने काम का डंका बजवा रही हैं। हां सांवली और काली होते हुए भी।”

कोंकणा मुझे निजी तौर पर बेहद प्रभावशाली लगती हैं और हां वो गोरी कतई नहीं हैं। फिर भी “पुरुष प्रधान” इंडस्ट्री में अकेले फिल्म चलाने का हुनर है उनमें।

फिल्में ही क्यों हर जगह, हर क्षेत्र में महिलाओं ने परचम लहराया हुआ है। प्रमाण भी भतेरे हैं देने को। फिर क्यों रंगभेद जैसी “ज़हरीले अनावश्यक” विचारों को भी अपने अंदर घर दिया जाए।

जो लोग रंगभेद, नस्लवाद के ठेकेदार हैं, निकाल फेंकिए, ऐसी सोच को। आज के इस दौर में युवतियों का बोल-बाला है भाई साहब। हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं वो। आप कहां उसी फालतू की बकैती में लगे पड़े हैं? इस उधेड़बुन में मत रहिए कि कैसे इनका आत्मविश्वास कम किया जाए, क्योंकि उन्हें कोई भी नहीं डगमगा सकता।

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