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हावड़ा स्टेशन पर वह लकवे के अटैक से तड़प रहा था और लोग तमाशबीन थे

रविवार की एक घटना ने यह एहसास करने पर मजबूर कर दिया कि भले ही समाज ने तरक्की कर ली हो मगर इस दौर में हमने अपने अंदर की इंसानियत को कही खो दिया है। एक दूसरे के प्रति हमारे अंदर कोई संवेदना ही नहीं बची है।

मां और मैं पटना से बैंगलोर जाने के लिए निकले। हमारी यह यात्रा कलकत्ता से होकर थी। रविवार की सुबह हम कलकत्ता पहुंचे जहां से  बैंगलोर के लिए हमारी ट्रेन 5 घंटे बाद थी। इस दौरान हमने तय किया कि वेटिंग रूम में ही बैठकर समय गुज़ारा जाए।

ट्रेन आने से एक घंटा पहले हम प्लैटफॉर्म की ओर निकल गए। प्लैटफॉर्म पर जाने के लिए हम लिफ्ट के पास पहुंचे जहां पहले से कुछ लोगों की भीड़ थी। असल में कुछ लोग लिफ्ट में गए और फिर जल्दबाजी में कुछ बड़बड़ाते हुए बाहर आ गए। इतने में लिफ्ट का दरवाज़ा बंद हो गया।

कलकत्ता रेलवे स्टेशन। फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Getty

मुझे इतना समझ में आया कि कोई आदमी लिफ्ट में है। पता चला कि लिफ्ट में एक आदमी है जिसे शायद लकवा का अटैक आया है। मैंने 2 मिनट वहां खड़े होकर इंतज़ार किया शायद कोई उसकी मदद के लिए आये पर कोई भी मदद के लिए सामने नहीं आया, बल्कि सारे लोग तमाशा देखकर आपस में बात करते चले जा रहे थे। जहां यह सारी घटना हो रही थी वहां करीब 100 लोग तो ज़रूर मौजूद थे।

फिर मुझसे रहा नहीं गया मैंने लिफ्ट का दरवाज़ा खोला और उस आदमी को बाहर निकालने की कोशिश करने लगी मगर यह मेरे अकेले के बस की बात नहीं थी। मेरी इस कोशिश के बावजूद कोई भी मेरी मदद के लिए सामने नहीं आ रहा था। यह देखते हुए मेरी मां ने सामने खड़ी भीड़ को फटकार लगाई और वहां खड़े कुछ आदमियों को बोला कि आप लोग इस तरह खड़े रहकर तमाशा क्या देख रहे हैं, उसकी मदद कीजिए।

मां की फटकार के बाद दो लोग मदद के लिए सामने आए। यहां भी इनकी होशियारी देखिए, उस आदमी को उठाकर ले जाने की बजाय यहां भी लोग अपने नुस्खे उसपर आज़माने लगे। मैंने सारा तमाशा देखते हुए फैसला किया कि मैं इस आदमी को छोड़कर रेलवे के मेडिकल हेल्प सेंटर जाती हूं शायद वहीं से कुछ मदद मिल सके। मैंने मां से कहा, “तुम यहां इनको देखो मैं मेडिकल हेल्प लेकर आ रही हूं”।

दुर्दशा देखिए कि ठीक उस लिफ्ट के नीचे ही रेलवे का मेडिकल सेंटर था पर किसी को भी नीचे जाकर उन्हें सूचना देने की चाह नहीं हुई। मैंने जैसे ही नीचे मेडिकल सेंटर में जाकर घटना की जानकारी दी उन लोगों ने तुरंत उस आदमी को एडमिट करके इलाज के लिए भेज दिया। हमारी ट्रेन का टाइम हो रहा था इसलिए मैं और मम्मी उन्हें वहां एडमिट कराने के बाद चले आये।

मन में एक खुशी भी थी कि आज किसी की जान बचाने में मेरा कुछ योगदान रहा पर उस खुशी से कहीं ज़्यादा दुख इस बात का था कि वहां खड़े तमाम लोगों में से किसी के मन में भी उस बीमार आदमी के लिए इंसानियत नहीं जागी।

उस इंसान की जगह हमारा कोई अपना होता, तब भी क्या हम ऐसा ही करते? मैं बहुत कम ही कुछ लिखती हूं पर इस घटना ने मुझे यह लिखने पर मजबूर कर दिया। मेरा यह लिखने का मकसद बस इतना है कि आगे जब भी आपके सामने ऐसी कोई घटना हो बिना सोचे उनकी मदद कीजिए। आपकी एक मदद किसी की जान बचा सकती है।

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