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इन वजहों से संसद में महिलाओं को नहीं मिल पाती है उचित नुमाइंदगी

भारत माता की जय कहने वाले देश की महिलाओं को संसद में उचित नुमाइंदगी भी नहीं दे पाते हैं। तमाम वादों और जुमलेबाज़ी के बीच 16वीं लोकसभा भी आई और चली गई लेकिन अपने साथ छोड़ गई एक सवाल, “महिलाओं की भागीदारी पुरुष के बराबर क्यों नहीं है?”

बीजेपी की प्रवक्ता शायना एनसी ने चुनावों के ऐन वक्त यह मुद्दा उठाया है। उन्होंने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए इस दिशा में चिंता जताई है।

2019 के चुनावी मौसम में जहां ममता बनर्जी ने महिला उम्मीदवारों को 33 प्रतिशत सीटें व नवीन पटनायक की पार्टी ने 33 प्रतिशत सीटें दी हैं, वहीं बाकी सभी पार्टियों ने केवल जुमलेबाज़ी की है। 1952 के पहले चुनाव में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4% फीसदी था और 2014 में 11.23 फीसदी।

प्रधानमंत्री स्वयं उज्ज्वला योजनाओं का लॉलीपोप पकड़ा कर बहस का मुद्दा रोटियां बेलने पर झोंक देते हैं। हाल ही में हुए सर्वे के अनुसार जो कि राष्ट्रीय संसदों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के प्रतिशत के आधार पर था, उसमें भारत 149वें स्थान पर रहा।

राजनीति में महिलाओं की कम भागीदारी की दो प्रमुख वजहें-

फोटो सोर्स- Getty

महिलाओं को सालों से राजनीति के खेल में सुविधाजनक सहारे के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। मर्द ज़्यादातर अपना चुनावी उल्लू सीधा करने के लिए अपनी बीवियों का इस्तेमाल करते आए हैं।

किसी भी समाज को अगर जागरूक करना है, तो ज़रूरत है कि राजनीति में ज़्यादा से ज़्यादा महिला आगे आएं। स्टूडेंट लीडर के तौर पर भी महिलाओं को कई आपत्तिजनक बातों का सामना करना पड़ता है।

राजनीति में आने वाली महिलाओं को किस नज़र से देखता है समाज

पुरुष वर्ग वहां भी उन्हें केवल मांस का टुकड़ा ही समझता है। मायावती यूं तो 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन आज भी उनकी राजनीति पर चर्चा कम उनकी निजी ज़िन्दगी पर चर्चा ज़्यादा होती है। कभी सोनिया गांधी को कोई वैश्या कह देता है, तो कभी प्रियंकी गांधी के कपड़ों पर चर्चा की जाती है। मर्दाना सोच को मनोरंजन के तौर पर गर्मा गरम परोसने वाला मीडिया भी मुख्य भूमिका निभाता है। इन सबमें हमारे प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं रहते हैं और विपक्ष पर बोलने के लिए उनके लिए बस सोनिया गांधी का चरित्र बचता है।

बीजेपी के घोषणा-पत्र में वादे किए जा रहे हैं कि 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बिल पास किया जाएगा लेकिन 2014 में जब पूर्ण बहुमत की सरकार आई, तब क्यों इसे पारित नहीं किया गया। महिलाएं इन सभी नेताओं पर क्यों विश्वास करें? इन सभी नेताओं ने स्त्री द्वेष व मिसोजेनी ही तो दी है। महिलाओं को देवी समझने वाला यह समाज बस खोखले वादों तक ही सीमित है, क्योंकि कोई भी सभ्य समाज महिला विरोधी होकर उनका विकास नहीं कर सकता। हमें देवी नहीं बनना, हमें तो बस बराबरी का हक चाहिए।

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