आजकल टीवी पर प्रसारित होने वाले सैनिटरी पैड के विज्ञापन में कई तरह के विकल्प होते हैं। कुछ बताते हैं कि हमारा नैपकिन ज़्यादा सॉफ्ट है, कुछ का कहना है कि हमारे नैपकिन में खुशबू ज़्यादा अच्छी है। वहीं, कुछ दावा करते हैं कि उनका नैपकिन पूरा दिन इस्तेमाल किया जा सकता है।
विज्ञापनों के इस दौर में सैनिटरी नैपकिन भी चमक-धमक का हिस्सा हो गए हैं। इन विज्ञापन से आकर्षित होकर महिलाएं अपनी पसंद के पैड खरीद रही हैं लेकिन यह जानने के बाद आप सिहर जाएंगे कि आज भी महिलाएं माहवारी में लकड़ी, राख और बालू का बना पैड इस्तेमाल करती हैं।
हैरान करने वाला सच
कानपुर में एक महिला मज़दूर शीला से जब यह पूछा गया कि क्या वह माहवारी में सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं, तो उसका जवाब था कि उसने आज तक ऐसा कोई पैड देखा तक भी नहीं है। जब उसे सैनिटरी पैड के बारे में बताया गया, तो वह बोली, “हां टीवी पर देखा है मगर हमको तो मुश्किल से कपड़ा ही मिल पाता है।”
वह एक ही कपड़े को बार-बार धोकर इस्तेमाल करती है। (यह जानकर आपको दु:ख होगा कि भारत में करीब 70 प्रतिशत महिलाएं रिप्रोडक्टिव ट्रेक्ट इंफेक्शन से पीड़ित हैं क्योंकि वे बार-बार एक ही कपड़े को धोकर इस्तेमाल करती हैं।)
हमारे लिए तो रोटी भी महंगी
वहां मौजूद दूसरी महिलाओं ने बताया कि वे उन दिनों कागज़ और अखबार का भी इस्तेमाल करती हैं। आशा ने तो यह तक कह दिया कि भगवान ने हमें गरीब बनाया था तो माहवारी नहीं देनी चाहिए थी। जब उन्हें बताया गया कि अब तो सैनिटरी पैड्स सस्ते हो गए हैं तो उन्होंने रूंधे गले से कहा कि कितना भी सस्ता हो जाए मगर सड़क पर रात बिताने वालों के लिए पेट की आग बुझाने के लिए रोटी भी महंगी है।
वहीं पास में बैठी एक बच्ची ने बताया कि वह तो कपड़ा ही इस्तेमाल करती है। स्कूल में एक बार फ्री सैनिटरी पैड मिला था लेकिन उसके बाद कभी नहीं मिला। यह बातें उन महिलाओं ने बताई हैं, जो हर दिन सोने के लिए नया आसरा ढूंढती हैं।
ऐसा देश जहां आज भी लोग रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, उन्हें माहवारी के समय स्वच्छता और पैड के इस्तेमाल की बातें कैसे समझाई जा सकती हैं। यह हृदय विदारक आंकड़े हैं जो बताते हैं कि देश में केवल 18 फीसदी महिलाएं और लड़कियां ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, जबकि 82 फीसदी महिलाएं आज भी पुराना कपड़ा, घास, राख और यहां तक कि जानवरों की खाल का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 29 फीसदी बच्चियां माहवारी आने के बाद स्कूल जाना बंद कर देती हैं। वहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार गर्भाशय के मुंह के कैंसर के कुल मामलों में से 27 फीसदी भारत में होते हैं और इसकी वजह माहवारी के दौरान साफ-सफाई की कमी है।
माहवारी और अंधविश्वास
भारत में महिलाओं के माहवारी से जुड़ी समस्याओं के बारे में कम बल्कि अंधविश्वास पर चर्चा ज़्यादा होती है। जैसे महिलाओं का माहवारी के समय मंदिर में प्रवेश पर रोक। तेलंगाना में नेमालिगुंदला रंगनायका नाम का एक मंदिर है। यहां पर मान्यता है कि इस मंदिर की तरफ आने वाली महिला अगर माहवारी के समय में होती हैं, तो उन्हें मधु मक्खी काट लेती है।
अगर ऐसी महिला जिसे मधुमक्खी ने काट लिया हो और वह मंदिर में जाना चाहती है, तो वहां मौजूद पुरुष उन्हें डांटकर वहां से भगा देते हैं। जहां अंधविश्वास की जड़ें इतनी मज़बूती से फैली हैं, वहां पढ़े-लिखे लोग भी माहवारी को अभिशाप और माहवारी के समय महिलाओं को अपवित्र मानते हैं।
कैसे बदल सकती है तस्वीर
कुछ साल पहले एक महिला ने सोशल मीडिया के ज़रिये बताया कि एक बार उसने अपने घर की मेड को साफ-सफाई के लिए एक पुराना टी शर्ट दिया। उसे देखकर वह बोली, “मेम साहब क्या यह टीशर्ट मैं रख लूं?” इसपर महिला ने कहा कि तू क्या करेगी इसका, तू तो साड़ी पहनती है।
इसपर उसने जवाब देते हुए कहा कि मैं इस कपड़े का इस्तेमाल उन दिनों के लिए करूंगी क्योंकि मेरा कपड़ा अब बार-बार धुलने से पूरी तरह से फट चुका है। उसकी बात सुनकर महिला सन्न रह गई। महिला ने उसे सैनिटरी पैड के इस्तेमाल की सलाह दी और हर महीने पैड देने का वादा भी किया।
इसी तरह से होगा बदलाव
अगर हम अपने आस-पास रहने वाली गरीब महिलाओं जैसे- घर में बर्तन मांजने वाली, मज़दूरी करने वाली और सब्ज़ी आदि बेचने वाली इन महिलाओं को माहवारी के समय स्वच्छता के प्रति गंभीर रहने की सलाह देने के साथ-साथ उन्हें मासिक सैलरी के साथ सेनेटरी पैड भी दे सकें तो हालात बदल सकते हैं।
वहीं, स्कूलों में ऐसे कार्यक्रम चलाए जाएं जो बच्चियों की माहवारी की समस्याओं को सुलझा सकें। उन्हें इस दौरान साफ-सफाई के मायने समझाए जाएं ताकि कम-से-कम वह माहवारी के डर से स्कूल जाना बंद ना करें।