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अपार्टमेंट कल्चर ने खत्म कर दी पुराने मुहल्ले वाली रिश्तों की मिठास

पिछले हफ्ते मैंने नोएडा इलेक्ट्रॉनिक सिटी मेट्रो स्टेशन के बाहर किसी अपार्टमेंट का एक एड देखा और देखते ही यह लिखने का मन हुआ। उसमें बड़े-बड़े शब्दों में फ्लैट की यूएसपी लिखी थी: “अपार्टमेंट के हर फ्लोर पर बस एक पड़ोसी को रखा जाएगा।” यूएसपी का मतलब यूनिक सेलिंग प्रोपोज़िशन होता है। मुझे हिंदी में इसका अर्थ मालूम नहीं है। वैसे उसकी ज़रूरत भी नहीं है, फिर भी दिल को बहलाने के लिए आप इसे खास बिकाऊ बिंदु कह सकते हैं। आसान शब्दों में इसके फायदे को समझें, तो यह आपको बम्पर प्राइवेसी देगा। माने इससे आपकी अनम्य हो चुकी निजता में कोई “मानव” खलल नहीं होगा।

अपार्टमेंट शब्द काफी दिलचस्प है, इसको दो शब्दों में तोड़ा जा सकता है: अपार्ट और मेंट। आपने “टियर अपार्ट” सुना ही होगा? मेंट केवल इसको संज्ञा बना देता है। संज्ञा बनने से इसमें वैधता और अधिकार आ जाता है। वैसे भी जिसके पास अधिकार होता है, समाज उसे ही ठीक कहता है। इस शब्द का इतिहास देखेंगे तो पाएंगे कि यह फ्रेंच शब्द अपार्टे से आता है। अपार्टे का लिटरल मतलब अलग करना होता है। उसके उपर से एक ही पड़ोसी वाली स्कीम सोने पर सुहागा है। निजता ज़रूरी है लेकिन उसकी ज़रूरत की भी कुछ हदें होगी। वह क्या है? यह गौरतलब बात है कि अपार्टमेंट आपको करीब लाकर दूर कर रहा है, ठीक मोबाइल और वॉट्सएप की तरह। आप यह भी नहीं जानते हैं बल्कि इस “ना जानने” की बात को सोचकर खुश भी हो जाते हैं और खुद को व्यस्त और होशियार समझते हैं।

अपार्टमेंट में “पड़ोसी” शब्द को घुसपैठिए की नज़र से देखा जाने लगा है। इसको अगर एक बड़े या राष्ट्रीय नज़रिए से देखें तो बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, चीन और पाकिस्तान भी भारत और उसके लोगों के पड़ोसी हैं और इन देशों के लोग केवल घुसपैठिए। बॉलीवुड भी पड़ोसी को ऐसे ही दिखाता है। अगर आप अपने मन में फिल्मी अपार्टमेंट या सोसायटी के पड़ोसी की स्मृति जगाएंगे तो आपके मन में कटोरा लेकर शक्कर या चाय की पत्ती मांगने वाली आंटी की तस्वीर आएगी जो कि आपके प्राइवेट स्पेस में घुसने की कोशिश करती रहती है। आपको भी उनकी ज़रूरत हो सकती है लेकिन शायद ही इस बात पर ध्यान जाए। आप भी कभी कटोरा लेकर उनके घर शक्कर पत्ती मांगने जा सकते हैं, यह सोचना भी पाप है।

रिश्तों को खोने का डर 

नोएडा में एक व्यक्ति का इंटरव्यू लेना था। उनके पड़ोसी उन्हें नहीं जानते थे इसलिए घर खोजने में बहुत दिक्कत हुई। इसके बाद हमें जमिया नगर जाना था। वहां पड़ोसी से मेल-जोल का कल्चर थोड़ा बहुत ज़िंदा है। मेरे साथ एक दोस्त थीं मगर उन्हें यह इलाका खास पसंद नहीं आया।‌ कारण भी स्पष्ट थे: गंदगी, भीड़ और बहुत सारे मुसलमान। मैं मुसलमान दिखने वाला मुसलमान नहीं हूं, वह अलग बात है। मैं भी जामिया नगर जैसे ही इलाके में पला बड़ा हूं। कई रिश्तेदार अब बेहतर इलाकों और अपार्टमेंट्स में माइग्रेट कर चुके हैं लेकिन मुझे अब भी उस जगह के पुरानेपन से प्यार है। वहां अब भी हर पड़ोसी फिर चाहे वह हिन्दू और मुस्लिम ही हो एक दूसरे को अच्छे से जानता है। लोग यह भी जानते हैं, किसकी बेटी की कहां शादी लगी? कौन कहां नौकरी कर रहा है? वगैरह-वगैरह।

जो लोग तंग गलियों और शहर के पुराने इलाकों से आते हैं वह भी नहीं जानते हैं कि आज समाज कैसे बांटा जा रहा है और उनके इलाके इसको किस हद तक रोक सकते हैं। पुराने इलाके के लोगों में भी पूर्वाग्रहों की कमी नहीं होती है। बस साथ रहने की वजह से इनकी अभिव्यक्ति संकुचित हो जाती है। शायद यह लोग रिश्ते खोने से डरते हैं।

फेसबुक और व्हाट्सएप आपको खामोश ड्रॉइंग रूम में चौपाल की नकली चहल पहल देकर अरबों डॉलर कमा रहे हैं। यह कितना आयरॉनिक है कि आप निजता मांगते-मांगते जिस समाज से अलग हो जाते हैं, उससे ही जुड़ने या यूं कहें कि आप अपना अकेलापन मिटाने के लिए सोशल मीडिया पर आते हैं। यह भी दिलचस्प है कि अपार्टमेंट्स में बसने वाला व्यक्तिवादी समाज सोशल मीडिया पर समाजवादी हो जाता है। पहले आप जिन लोगों को प्राइवेसी के नाम पर दूर करते हैं, उनको ही ढूंढकर सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं। वह क्या खाते हैं, करते हैं, सोचते हैं, देखते हैं, सुनते हैं और पसंद करते हैं इस पर लाइक, शेयर और रिएक्ट करते हैं। आप वर्चुअली उस पुराने समाज में ही जीना चाहते हैं।

रियल वर्ल्ड में पुराने इलाके के लोगों की इस अति समाजिक घुसपैठ से अपार्टमेंट के निजतावादी लोग खीज खाते हैं और ऑनलाइन उन्हें ही कॉपी करते हैं। पुराने इलाके की एक और खासियत है, उसकी याद्दाश्त। पुराने इलाके में हुए अपराध, दुर्घटना और पीड़ित याद रखे जाते हैं। वह अखबारों से अपने बीच रह रहे लोगों को नहीं जानते हैं। खैर, अपार्टमेंट पर वापस आता हूं। यहां भी ऐसा कोई तो होता होगा जो सबको जानता होगा? शायद वह बिल्डिंग का वॉचमैन होता है लेकिन उसे अपार्टमेंट के बाहर रखा जाता है। यहां रहने वाले लोग बाहर से लगभग एक जैसे ही दिखते हैं। इसमें रंगों की बहुत कमी है।

अपार्टमेंट ने आपके अंदर का वॉचमैन मार दिया है। इससे समाज को क्या नुकसान हुआ है, मैं यह नहीं जानता हूं। हां, इतना ज़रूर जानता हूं कि बेसुध और अकेला समाज खतरनाक और कमज़ोर होता है। इसमें व्यक्ति एलियन बन जाता है और समाज अदृश्य हो जाता है। उसके अंदर की भावनाएं लगभग मर जाती हैं। यह कल्चर आपको अकेला और असहिष्णु बना रहा है, डिप्रेस कर रहा है। सरकारें और बड़ी-बड़ी कंपनियां भी यही चाहती हैं। सवाल बस छोटा-सा है कि हम क्या चाहते हैं? हम कैसे समाज में रहना चाहते हैं?

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