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खाड़ी देशों की हालत पर क्या संयुक्त राष्ट्र मूक ही बना रहेगा?

इस्लामिक संस्कृति का गढ़ कहे जाने वाले खाड़ी देशों में आजकल गृह युद्ध छिड़ा हुआ है। इस माहौल में लाखों-करोड़ों बेघर लोग दर-दर भटकने को मजबूर हैं और कई हज़ार लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। इन हालातों में उस संगठन की भूमिका अहम हो जाती है जिसका जन्म ही मानव जाति की युद्ध से रक्षा करने के लिए हुआ था।

युद्ध की स्थिति पैदा होने के कारण।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि खाड़ी देशों ने असाधारण तरीके से विकास किया है, चाहे वह आबुधाबी हो, बुर्ज खलीफा हो या फिर तरल सोना कहे जाने वाले पेट्रोलियम के भंडार हो मगर कहीं न कहीं आज भी वे उस सदियों पुरानी मानसिकता को विकसित नहीं कर पाए जिसको विश्व के अन्य धर्मों के लोगों ने समय के साथ विकसित कर लिया। शायद मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी उसी धर्म विस्तार के ढर्रे पर चल रहा है, जिस पर चलकर उनके पूर्वज शासकों ने मुस्लिम धर्म को पूरे विश्व में फैलाया।

कहीं ना कहीं अरब देशों में, खास तौर से सऊदी अरब में, आज भी सुल्तान का राज होना इसी मानसिकता को दर्शाता है। यहां आज भी किसी को खुलकर जीने का अधिकार नहीं मिलता। खासतौर से महिलाओं की हालत तो बहुत ही नाज़ुक है। 2002 में सऊदी अरब में एक वाकया घटा जिसने सबका दिल दहला कर रख दिया। एक इमारत में आग लग जाने पर सारे मर्द भाग खड़े हुए और मासूम औरतों को उसी जलती इमारत में तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया क्योंकि उन सब ने हिजाब या बुर्का नहीं पहना हुआ था। नतीजतन वे सब औरतें वही जलकर खाक हो गई।

आखिर कब तक ईश्वर के नाम पर ढोंग रचते हुए हम समस्त नारी जाति को अंधविश्वास और अज्ञानता के अंधकार में धकेलते रहेंगे? मुझे यकीन है मेरी इस बात पर 10 मुस्लिम महिलाएं खड़ी होकर यह तर्क देंगी कि ये रीति रिवाज़ उनके पूर्वजों की देन है। वे यह नहीं सोचती कि भले ही इन रीति रिवाज़ों से वे खुश हैं मगर एक बड़ा तबका खुश नहीं है और उन पर ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है।

सदियों पहले जो दहशत का माहौल मिस्र, रोमन शासन तथा अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में था, आज लगभग वही माहौल खाड़ी देशों और दूसरे इस्लामिक देशों में है। क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि हज़ारों साल पुराने नियम आज भी मानव जाति की विकासशील सोच की गति थामे हुए हैं? क्यों आज खाड़ी देश खूंखार आतंकी संगठनों जैसे अलकायदा, इस्लामिक स्टेट आदि के पोषण का गढ़ बन चुके हैं?

ISIS फाइल तस्वीर

खाड़ी देशों की भी अजीब विडम्बना है। जब वे सख्ती दिखाकर आतंकी सरगनाओं को अपने देश से निष्काषित कर देते हैं तो अमेरिका और पाकिस्तान जैसे देश उनको शरण देकर अपने पड़ोसियों और अपने दुश्मन देशों में अशांति फैलाने के लिए तैयार करते हैं।

शुरुआत और अंत के बीच

खाड़ी देशों में युद्ध का इतिहास पुराना रहा है। चाहे वह पैगंबर मुहम्मद के सानिध्य में पहले खलीफा “अबु बकर” द्वारा लड़ा गया मुस्लिम इतिहास का सबसे पहला युद्ध हो या फिर इस्लामिक स्टेट का खाड़ी देशों में हमला हो या फिर सीरिया में लड़े जा रहे गृहयुद्ध की स्थिति हो, ये सभी एक हिंसक मानसिकता की ओर ही इशारा करते हैं।

ज्ञात हो कि मुस्लिम समाज का फैलाव युद्धक रणनीतियों के कारण ही हुआ है। चाहे वह हज़रत मुहम्मद का कुरैश कबीले का दमन कर पहली बार इस्लामी ताकतों से विश्व को रूबरू कराना हो या फिर सीरिया पर हमला कर जीतने के बाद उसे एक इस्लामिक मुल्क में बदल देना हो। यह इतिहास पूरब की ओर भारत, मंगोलिया, और अन्य एशियाई देशों के लिए भी प्रस्थान करता है।

तुर्क शासकों ने बाबर को भारत पर राज कायम करने में मदद करने के लिए यह शर्त रखी थी कि वह भारत को एक मुस्लिम राज्य बनाएगा। बाबर के वंशज अकबर ने बुद्धिमता का परिचय देते हुए यह शर्त ठुकरा दी मगर औरंगज़ेब ने बिना किसी की परवाह किए इस्लाम धर्म का उसी क्रूरता के साथ भारत में भी विस्तार आरंभ कर दिया।

वैश्विक ताकतों की बचकाना हरकतें

सऊदी अरब ने साहसी कदम उठाते हुए अपने ही देश में आत्मघाती हमले करवाने के आरोपों से घिरे ओसामा बिन लादेन को देश से निस्काषित कर दिया मगर अमेरिका ने उसे पनाह दी। शीत युद्ध का दौर था इसलिए अमेरिका ने सोवियत संघ में अस्थिरता पैदा करने के लिए उसका इस्तेमाल किया। कहानी में दिलचस्प मोड़ तो तब आया जब अमेरिका द्वारा ही तैयार किए गए आतंकियों ने उसी के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर दिया।

इसके बाद अमेरिका ने इराक पर हमला बोल दिया। जॉन चैपमैन ने अपने एक लेख में इस बारे में विस्तार से चर्चा की है, “अमेरिका का उद्देश्य सिर्फ विश्व में अपनी शक्ति को बढ़ाना और इराक के तेल भंडारों पर कब्ज़ा कर अपने फायदे के लिहाज से इस्तेमाल करना था। सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाना तो एक बहाना मात्र था।”

सद्दाम हुसैन, फोटो- YouTube स्क्रीनशॉट, Mini Bio

संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका

जब संयुक्त राष्ट्र संघ की नींव रखी गई, उस वक्त के हालातों में और आज के हालातों में कोई ज़्यादा अंतर नहीं आया है। युद्ध तब भी एक विश्व समस्या थी और आज भी वैसी ही बनी हुई है। संघ की कार्यप्रणाली ही ऐसी है कि चंद ताकतें मिलकर यह तय करते हैं कि दुनिया का भविष्य कैसा होगा। सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका का विश्व शक्ति के रूप में एकछत्र राज है और यही प्रभाव संयुक्त राष्ट्र संघ में भी दिखाई देता है।

अमेरिका ने संघ के आदेश के खिलाफ जाकर मित्र देशों के साथ मिलकर मनमाने तरीके से इराक पर धावा बोल दिया। 16 सितंबर 2004 को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान ने इस मुद्दे पर कहा कि यह कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार नहीं थी। उन्होंने कहा कि यह कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार गैरकानूनी थी।

इस कार्रवाई का विरोध करने का साहस किसी में नहीं था क्योंकि यह विश्व की सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था द्वारा की गई थी। आज भी अमेरिकी सेनाएं वैसे ही खाड़ी देशों में बनी हुई है और अलग-अलग देशों में अपने मिशन चला रही हैं।

जब भी किसी मुद्दे पर सहमति बनती नज़र आती है तभी अचानक कहीं से वीटो की गूंज सुनाई पड़ जाती है। हाल ही में सीरिया मुद्दे पर उन दोनों बड़ी वैश्विक ताकतों के बीच जंग छिड़ी हुई है जिनसे सीरिया के लोग आस लगाए बैठे हैं।

खाड़ी देशों को बदलाव लाना होगा

सभी विकट परिस्थितियों की जननी मनुष्य की सोच होती है। खाड़ी देशों को यह स्वीकार करना चाहिए कि जीने के पुराने तरीके अब कारगर नहीं रहे और उन्हें बदलाव का स्वागत करना चाहिए। उन्हें इतिहास से सबक लेना चाहिए कि जब रोमन, फारसी और मिस्र जैसे महान साम्राज्यों की सभ्यताओं को युद्ध ने निगल लिया तो शायद वह दिन भी दूर नहीं जब विश्व की एक और महान सभ्यता विलुप्त हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र संघ और वैश्विक ताकतों को स्वार्थ भाव को परे रखकर वैश्विक कल्याण पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

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