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“मेरी यूनिवर्सिटी में इस साल बस एक कंपनी प्लेसमेंट के लिए आई”

स्टूडेंट्स

स्टूडेंट्स

आर्थिक मंदी की सुगबुगाहट जब ज़ोरों पर है, तब इससे जुड़ा एक किस्सा मैं सुनाता हूं। बात अभी कुछ ही दिनों पहले की है।

दरअसल, किस्सा हमारे विश्वविद्यालय चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि का है जो कृषि के क्षेत्र में देश के अग्रणी संस्थानों में शुमार रहा है। यहां के “डायरेक्ट्रेट ऑफ प्लेसमेंट” ने भी तुलनात्मक रूप से वाकई अपनी सर्वश्रेष्ठता साबित की है।

लगभग हर साल दहाई के अंक में प्राइवेट और अर्द्ध सरकारी कंपनियों ने यहां आकर ग्रैजुएट, पोस्ट ग्रैजुएट और पीएचडी स्टूडेंट्स को रोज़गार प्रदान किया है। इसी तरह की उम्मीद के साथ लगभग एक हज़ार स्टूडेंट्स ने पिछले शैक्षणिक सत्र के अंत में प्लेसमेंट के लिए आवेदन कर रेजिस्ट्रेशन किया था।

चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि की वेबसाईट पर उपलब्ध 2001 से 2016 तक कैंपस प्लेसमेंट में चयनित स्टूडेंट्स के आंकड़ें।

आधे से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी प्लेसमेंट के लिए कोई प्रमुख कंपनी नहीं आई। अलबत्ता 1 या 2 छोटी कंपनियां/NGo’s आए भी तो औसतन पैकेज घटाकर गिने चुने छात्रों को ही रोजग़ार देने तक सीमित रहे।

आपको बता दूं कि अभी अंतिम वर्ष 2019 में प्लेसमेंट खत्म सा हो गया है और अभी तक सिर्फ 1 कंपनी/NGO का ऑफिसियल विज़िट हुआ जिसने केवल 2 अभ्यर्थियों को रोज़गार प्रदान किया है। इसी प्रकार एक अन्य कम्पनी ने विज़िट कर कुछ को शॉर्टलिस्ट तो किया है पर आगे विश्वविद्यालय के पास कोई जानकारी नही भेजी गई।

जबकि इससे पूर्व लगभग हर वर्ष, अच्छी खासी तादाद में स्टूडेंट्स काफी अच्छे पैकेज पर प्लेसड होते रहे हैं।

सरकारी नौकरी तो छोड़िए कॉलेज प्लेसमेंट भी अब सपना

सभी की आशाओं का क़त्ल हुआ सभी निराशा में डूबे हैं पर एक दूसरे को तसल्ली भी दे रहे हैं। बात यह है कि कृषि पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले अधिकांश स्टूडेंट्स किसान परिवारों से आते हैं।

एक कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि होने के कारण उन्हें अपनी डिग्री पूरी होते ही जल्द से जल्द रोज़गार के बारे में सोचना होता है। यही कारण है कि यह स्टूडेंट्स तुरन्त जॉब के लिए डायरेक्ट्रेट ऑफ प्लेसमेंट पर निर्भर रहते हैं।

बाकी सरकारी नौकरियों का हाल तो सबको पता ही है हमारे यूपी में तो Pre, Mains और Interview के बाद एक चरण न्यायालय का भी होता है। अभी तक अपनी कार्यकुशलता और योग्य अधिकारियों की वजह से छात्रों की उम्मीदें कॉलेज प्लेसमेंट से पूरी भी होती रही हैं, पर इस बार ऐसा नही हुआ।

क्यों नहीं मिल रही नौकरी

कम्पनियों की आवाक़ में आई इस कमी का कारण भी उस समय किसी को समझ नही आया। बाद में जब मैनें व्यक्तिगत स्तर पर इसकी वजह जानने के प्रयास किए तो जो कारण सामने आए वे बेहद निराशाजनक थे।

एक सूत्र अनुसार बिना किसी योजना के केंद्र सरकार द्वारा लिया गया नोटबन्दी का फ़ैसला और गलत आर्थिक नीतियों की जो दवा पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को झोलाछाप डॉक्टरों द्वारा दी गई हैं, यह उसी के शुरुआती रुझान हैं।

तत्पश्चात मैनें अन्य कई जगह बात की लेकिन हर तरफ से निराशा ही हाथ लगी। उस वक्त किसी को समझ नही आया  लेकिन उस समय की धुंधली तस्वीर अब धीरे-धीरे साफ होती जा रही है।

आज चारों तरफ भारत की बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा उत्पादन ठप कर देने या कुछ इकाई बन्द करने या कर्मचारियों की छंटनी प्रक्रिया शुरू करने की खबर छाई हुई हैं। विनिर्माण, मैन्युफैक्चरिंग,ऑटोमोबाइल और कृषि सहित कोई सेक्टर आर्थिक मंदी से अछूता नहीं रहा है।

फोटो क्रेडिट – Getty images

बेरोज़गार युवाओं को छल रहे हैं नेता

आर्थिक मंदी का यह दानव ना सिर्फ लोगों की नौकरियों खा रहा है बल्कि लाखों परिवारों की खुशियों पर भी ग्रहण बनकर आया है। बेरोज़गारी पहले ही कम ना थी, अब तो कोढ़ पर खाज जैसा हाल है।

युवा बेरोज़गार भटक रहा है और जिन पर युवाओं को रोज़गार देने की ज़िम्मेदारी है वे नेता अपनी सुविधा अनुसार कभी इन युवाओं को संस्कृति रक्षा की टोपी पहना रहे हैं या फिर अपनी पार्टी का सदस्य बनाकर हाथ में झंडा थमा दे रहे हैं।

वे आपके रोज़गार की चिंता क्यों करेंगें? आखिर उनको इतने सस्ते दामों या मुफ्त के कार्यकताओं की फौज तो कभी मिली ही नहीं है। हालांकि बाकी बयानबाज़ी जारी है। टीवी चैनलों में युद्ध चल रहा है। कोई मंदिर तोड़ रहा है तो किसी का मंदिर बनवाने के लिए लोग जान देने/लेने को आमादा हैं।

दूसरी ओर खबर है कि

छटनी के डर से एक नामी गिरामी कम्पनी के कर्मचारी और भाजपा नेता के पुत्र ने आत्महत्या कर ली। ना जाने कितने इसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं और होंगें क्योंकि सरकार की नीतियों से सबसे अधिक मध्यम वर्ग ही प्रभावित होता है। जिसमें पक्ष-विपक्ष सभी का मध्यम वर्ग शामिल है।

किसी को कहते सुना था व्यापारी वही बेचता है जो बाज़ार की मांग होती है। अब आप समीक्षा कीजिए कि किस तरह की उम्मीदें आप अपने नेताओं से रख रहे हैं और क्या वे आपकी उम्मीदों को पूरा कर रहे हैं। इतना तय है कि आपकी डिमांड या उसकी सप्लाई में कहीं कुछ तो गड़बड़ है अन्यथा ज़िन्दगी में उड़ने का सपना देखने वाला युवा आज औंधे मुंह गिरकर दम ना तोड़ रहा होता।

जाति ,धर्म और उससे बढ़कर पार्टी प्रेमियों के नाम डॉ राहत इंदौरी साहब का ये एक शेर और बाकी बात फिर कभी करने के वादे के साथ जय सीताराम/खुदा हाफिज़।

‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है’

 

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