Site icon Youth Ki Awaaz

“बिहार के मंत्रियों के गृह ज़िलों में भी शिक्षा व्यवस्था बेहाल”

प्राथमिक विद्यालय

प्राथमिक विद्यालय

बिहार में शिक्षा की बदहाल व्यवस्था पर मैं कई दिनों से  लिख रहा हूं। शिक्षकों की कमी से लेकर स्कूल की बुनियादी ज़रूरतों पर काफी बातें की जा चुकी हैं। इसी फेहरिस्त में आज बात करूंगा मधुबनी, जहानाबाद और खुद नीतीश कुमार के ज़िले नालंदा के करीब पटना ज़िले के स्कूलों की।

मधुबनी ज़िले के विद्यालय

मधुबनी ज़िले में खूटौना प्रखंड स्थित प्राथमिक कन्या विद्यालय खूटौना के प्रधानाध्यापक मो. दाउद बताते हैं,

मेरे यहां करीब 182 बच्चों का नामांकन है। मेरी बहाली साल 2000 में हुई थी और मैंने ऊर्दू से ऑनर्स किया है। 182 बच्चों में से तकरीबन 160-65 बच्चे हीं आते  हैं। स्कूल में पांच शिक्षक और मात्र दो कमरे हैं, जिनमें विद्यालय चलता है।

स्कूल के हालातों के बारे में बताते हुए वह कहते हैं,

स्कूल में ना पर्याप्त कमरें हैं और ना खड़े होने की जगह। बच्चों को बरामदे और फर्श पर बैठाना पड़ता है। मात्र एक कट्ठा में स्कूल चलता है। सरकारी नौकरी करनी है तो सरकार का हुक्म मानना ही पड़ता है। दो-तीन महीने से वेतन नहीं मिलता है जिससे घर चलाने में काफी कठिनाई होती है।

शिक्षा की गुणवत्ता और शिक्षकों के वेतन के बारे में बताते हुए वह कहते हैं,

इससे बेहतर पढ़ाई तो प्राइवेट स्कूलों में होती ही है मगर हमलोग क्या कर सकते हैं? यह भी सही है कि हमलोगों के मुकाबले प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों को बहुत कम वेतन मिलता है। सरकार सरकारी शिक्षकों को ठीक-ठाक वेतन तो दे ही रही हैं, जैसे मेरा वेतन 50,000 है।

नियोजित शिक्षकों की बात करते हुए उन्होंने कहा,

नियोजित शिक्षक जिनकी बहाली पंचायत स्तर से हुई थी उनको भी 30,000 के भीतर दिया ही जा रहा है लेकिन कहां उस लायक पढ़ाई हो पा रही है। सरकार के पास प्रारंभिक शिक्षा का कोई स्ट्रक्चर ही नहीं हैं।

बिहार के शिक्षा मंत्री का ज़िला ही प्रारंभिक शिक्षा में फिसड्डी

कृष्णानंद प्रसाद वर्मा जो की 2017 से सूबे के शिक्षा मंत्री के तौर पर बने हुए हैं उनका गृह ज़िला जहानाबाद है। इसके बावजूद शिक्षा के मामलों में इनके ज़िले की हालत काफी खराब है।

जहानाबाद ज़िले की कुल आबादी में 22.50% आबादी 6 वर्ष से 13 वर्ष तक के बच्चों की है और इनकी तादाद 2011 की जनगणना के मुताबिक 2,33,525 है। ज़िले में कुल 902 सरकारी विद्यालय हैं, यानी एक विद्यालय पर 260 बच्चे, जिनमें से तकरीबन 675 (75%) विद्यालय के पास खेल का मैदान नहीं है, जबकि 40% विद्यालय में चारदीवारी नहीं है।

मंत्री जी के ज़िले में 17% ऐसे विद्यालय हैं, जिनमें भोजन के लिए रसोई कक्ष नहीं है। बुनियादी भौतिक सुविधाओं के आधार पर निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम, 2009 की धारा 19 के अंतर्गत विद्यालयों के दस निहित पैमानों के आधार पर 902 में से महज़ 16 विद्यालय (1.8%) ही खरे उतरते हैं।

ज़िले में 157 ऐसे प्राथमिक विद्यालय हैं जहां 150 से ज़्यादा बच्चों का नामांकन है और यहां सरकार के आंकड़ों के मुताबिक प्रधानाध्यापकों की आवश्यकता है लेकिन इनमें से कहीं भी प्रधानाध्यापक नहीं हैं। यानी 100% सन्नाटा।

यही हाल उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों के भी हैं। सरकार के मुताबिक 218 इस तरह के विद्यालय हैं जहां प्रधानाध्यापकों की आवश्यकता है लेकिन इनमें से 74 फीसदी विद्यालय बिना हेडमास्टर के हैं।

अब बुनियादी सुविधाविहीन शिक्षा मंत्री का प्रारंभिक विद्यालय कैसे पढ़ पा रहा है? यह जवाब मंत्री और सरकार को देना चाहिए।

सुशासन बाबू का ज़िला खुद प्रारंभिक शिक्षा में निचले पाएदान पर

सुशासन बाबू यानी कि नीतीश कुमार कमोबेश 15 साल से बिहार की कुर्सी पर बरकरार हैं। नीतीश खुद नालंदा ज़िले के कल्याण बीगा से आते हैं, जो कि पटना ज़िले के करीब है। पटना ज़िले की बात करें तो यहां भी प्रारंभिक शिक्षा और बुनियादी सुविधा में काफी पीछे हैं।

प्रधानमंत्री के ‘खेलो इंडिया’ को चूना लगाने वाले सरकारी स्कूलों पर नज़र डालें तो तकरीबन 3338 विद्यालयों में से 58 (2%) विद्यालय ही ऐसे हैं जो निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम, 2009 की धारा 19 के अंतर्गत विद्यालयों के कुल दस पैमाने  पर खरे उतरते हैं।

विस्तृत में एक नज़र डालें तो 70% विद्यालयों के पास खेल के मैदान ही नहीं है। पीएम के ‘खेलो इंडिया’ को सुशासन बाबू ही जानें। 42% ऐसे विद्यालय है जहां मध्याह्न भोजन बनाने हेतु रसोई कक्ष ही नहीं हैं। खुद ज़िला पटना की सरकारी शिक्षा प्रणाली बेपटरी है।

यू-डायस 2015-16 के आंकड़ें बताते हैं कि ज़िले में 99% ऐसे प्राथमिक विद्यालय हैं जहां प्रधानाध्यापक की आवश्यकता है लेकिन हेडमास्टर नहीं है। यानी ज़िले के सरकारी विद्यालयों की ‘बिना लगाम का घोड़ा’ जैसे हालात हैं।

उच्च माध्यमिक शिक्षण संस्थानों के भी हालात कमोबेश यही हैं। लगभग 96% ऐसे सरकारी संस्थान हैं, जहां प्रधानाध्यापकों की आवश्यकता है लेकिन वे उपलब्ध नहीं हैं। ज़िले के लगभग 62% विद्यालय ऐसे हैं जहां 40-100 स्टूडेंट्स के बीच एक ही शिक्षक है।

234 विद्यालय तो ऐसे हैं, जहां शिक्षक और स्टूडेंट्स का अनुपात 1:100  है यानी एक शिक्षक पर 100 विद्यार्थी। जबकि सामान्य तौर पर यह अनुपात 1:40 होना चाहिए। गौरतलब है कि बिहार का औसतन शिक्षक और छात्र अनुपात 1:57  है।

जब राज्य के मंत्रियों के गृह ज़िलों की यह हालत है तो समूचे बिहार की स्थिति का अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं।

Exit mobile version