जिस समय भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी को उनके स्वच्छता अभियान और शौचालय निर्माण कार्यक्रम के लिए बिल गेट्स फाउंडेशन की ओर से ग्लोबल गोलकीपर का अवॉर्ड दिया जा रहा था, उसी वक्त भारत के मध्य प्रदेश में शिवपुरी ज़िले के भावखेड़ी गॉंव में दो दलित बच्चों को इसलिए मार दिया जाता है, क्योंकि वे खुले में शौच कर रहे थे। जबकि हत्या करने वाले पिछड़े समुदाय से संबंध रखते हैं।
हत्या के मुख्य आरोपी का कहना है कि भगवान का आदेश था कि राक्षसों का सर्वनाश कर दो। यहां राक्षसों से उनका तात्पर्य दलितों से था। बिल्कुल उसी तरह जैसे वैदिक काल में दलितों और द्रविड़ों के लिए राक्षस और आर्यों के लिए सुर शब्द का प्रयोग किया गया था।
क्या यहां उसके ‘भगवान’ शब्द का अर्थ भी ब्राह्मण था? उस पिछड़े वर्ग से संबंध रखने वाले व्यक्ति का ऐसा ब्राह्मणीकरण किया गया कि उसे अपनी अधीनस्थ जाति यानी दलित जाति के लोग राक्षस लगने लगे हैं।
सवर्णों ने पिछड़ों और दलितों का हिन्दूकरण करके इनका इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए तो किया ही साथ ही धार्मिक खाई को बढ़ाने के लिए भी किया है। ये पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों का शोषण खुद तो करते ही हैं बल्कि इनको एक दूसरे के खिलाफ भी भड़काते हैं। जैसे पिछड़ों से दलितों का शोषण, दलितों और पिछड़ों द्वारा मुसलमानों का शोषण। यही इनकी हिन्दुत्ववादी राजनीति का षड्यंत्र है।
इतिहास में दलितों का शोषण द्विज जातियों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्वारा ही हुआ था, जो कि ब्राह्मणों के बनाए नियमों पर आधारित था। लेकिन धीरे-धीरे द्विज जातियों के अलावा अन्य जातियों का भी हिंदूकरण या ब्राह्मणीकरण होने लगा। इसका मुख्य श्रेय 19वीं और 20वीं शताब्दी के महान समाज सुधारकों को जाता है, जिन्होंने जब यह देखा कि दलित और पिछड़े तेज़ी से ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और सिख धर्म अपना रहे हैं, तो इन्होंने दलितों और पिछड़ों के हिन्दूकरण का रास्ता अपनाया।
उदाहरण के लिए विभाजन पूर्व के अविभाजित पंजाब में 1881 और 1941 के बीच हिन्दू जनसंख्या (दलित पिछड़े सभी शामिल) 43.8 प्रतिशत से गिरकर 29.1 प्रतिशत हो गयी थी, जिसका मुख्य कारण निचली जातियों के लोगों का इस्लाम, सिख और ईसाई धर्म में सम्मिलित हो जाना था। इसी का खौफ इन उच्च जातियों के लोगों को सताने लगा और इन निचली जातियों की सामाजिक दशा सुधारने की आड़ में समाज सुधार और अस्पृश्यता के अंत का ढोंग रचा गया।
10 जनवरी 1921 को कानपुर के समाचार पत्र प्रताप के सम्पादक ने लिखा,
इस देश में सत्ता संख्याओं के आधार पर खड़ी है।
उन्होंने आगे लिखा,
शुद्धि हिन्दुओं के लिए जीवन और मरण का प्रश्न बन गई। मुस्लिम नकारात्मक मात्रा से बढ़कर 7 करोड़ हो चुके हैं। ईसाईयों की संख्या 40 लाख है। 22 करोड़ हिन्दुओं का 7 करोड़ मुसलमानों के कारण जीना मुश्किल हो गया है। यदि उनकी संख्या और बढ़ती है, तो भगवान जाने भविष्य में क्या होगा। यह सच है कि शुद्धि केवल धार्मिक उद्देश्य से होनी चाहिए लेकिन हिन्दू कई अन्य तरीकों से भी अपने दूसरे भाइयों को गले लगाने के लिये बाध्य हुए हैं। यदि हिन्दू अब भी नहीं जागे, तो उनका वजूद खत्म हो हो जाएगा।
ये सुधारवादी ढोंग उन्हीं उच्च जाति के लोगों ने रचा जो वर्ण व्यवस्था को हिंदू धर्म का आधार मानकर उसे समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे लेकिन अस्पृश्यता के विरोध का दिखावा करते थे।
अस्पृश्यता का मूल जाति और वर्ण व्यवस्था है, जब तक वह नहीं समाप्त होती अस्पृश्यता समाप्त नहीं हो सकती है। ये सुधारवादी ढोंग उन्हीं तथाकथित उच्च जाति के समाज-सुधारक द्वारा किया गया, जिन जातियों के लोग वर्षों तक इन नीच जातियों के लोगों का शोषण करते रहे।
‘एक था डॉक्टर एक था संत’ पुस्तक में अरुंधति रॉय कहती हैं,
सुधारवादियों का हिन्दू और हिन्दू धर्म शब्द का उपयोग एक नई घटना थी। अब तक यह शब्द ब्रिटिश और मुगल इस्तेमाल किया करते थे लेकिन वे लोग जिन्हें हिन्दू कहकर पुकारा जाता था, खुद को इसे नाम से कभी नहीं पुकारते थे। जनसांख्यिकी की खलबली मचने से पहले वे सभी अपनी जाति की पहचान को आगे रखकर चलते थे। पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हिन्दू समाज एक मिथक है। हिन्दू नाम स्वयं ही एक विदेशी नाम है।
डॉक्टर अम्बेडकर ने भी कहा है,
यह नाम मुहम्मदियों द्वारा उन मूल निवासियों को दिया गया जो सिंधु नदी के पूरब में रहते थे, ताकि वे खुद को अलग दिखा सके। मुहम्मदियों के आक्रमण से पहले के किसी संस्कृत शास्त्र में हिंदू नाम का कहीं उल्लेख नहीं है। उनको एक सर्वनाम रखने की कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई, क्योंकि उनकी कोई ऐसी धारणा थी ही नहीं कि उन्होंने एक समुदाय की रचना की है। हिन्दू समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह अलग-अलग जातियों का झुंड है।
दलितों और पिछड़ों का जो हिन्दूकरण या ब्राह्मणीकरण हुआ और हो रहा है, इसे एम.एन.श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण कहा है। उन्होंने बताया कि सिर्फ दलितों और पिछड़ों पर ही उच्च जातियों की धार्मिक परंपराओं, रूढ़ियों, रीति रिवाज़ों का असर नहीं पड़ रहा बल्कि जनजातियों पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।
उन्होंने इसके उदाहरण भी दिए हैं। जैसे- मध्य भारत की गोंड और ओरॉव जनजाति, पश्चिम भारत की भील जनजाति और पहाड़ी क्षेत्र की अनेक जनजातियों ने उच्च जातियों की जीवनशैली की तरह उनके धार्मिक विश्वासों और कर्मकांडों को अपनाकर स्वयं को हिंदू जाति के रूप में घोषित करना आरंभ कर दिया।
थारू जनजाति तथा दूसरी अनेक जनजातियां अपने आपको क्षत्रिय होने का दावा करने लगी है। इसका तात्पर्य है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया निम्न जातियों के अतिरिक्त जनजातियों में भी प्रभावपूर्ण होती जा रही है।
निम्न जातियों में भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के बहुत से स्पष्ट उदाहरण हैं। गुजरात के बारिया लोगों ने पाटीदारों की तरह लाल पगड़ी और तलवार धारण करके स्वयं को क्षत्रिय जाति का घोषित कर दिया है। उत्तर प्रदेश में नोनिया और बढई जाति के बहुत से लोगों ने जनेऊ धारण करके खुद को ब्राह्मण और क्षत्रिय बताना शुरू कर दिया है। रेड्डी जाति भी अपनी जीवनशैली में उच्च जातियों के समान परिवर्तन करके स्वयं को उच्च जाति मानती है।
निचली जाति अपना हिन्दूकरण स्वंय नहीं कर रहें बल्कि ज़बरदस्ती उनका हिन्दूकरण करवाया जा रहा
उनका मानना था कि निचली जातियां स्वयं अपने से ऊंची जातियों का अनुकरण करने लगती हैं। हालांकि उनके इस मत से मैं असहमत हूं। उनका कहना था कि निचली जाति के लोग अपना हिन्दूकरण स्वयं कर रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं है।
वे अपना हिन्दूकरण स्वयं नहीं कर रहे हैं, उनका हिन्दूकरण करवाया गया है। इसके पीछे हिन्दुत्ववादी संगठनों जैसे आर्य समाज, श्रद्धानंद दलितोद्धार सभा, अखिल भारतीय अछूतोद्धार समिति जैसी संस्थाओ का हाथ था। बाद में जिनका स्थान हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ले लिया।
आज की उच्च जातियां या संघ जो आरोप मिशनरियों पर लगाते हैं कि उन्होंने तथाकथित रूप से हिंदुओं (निचली जाति के) का धर्म परिवर्तन कराया, जबकि सच यह है कि निचली जातियों के लोगों ने शोषण से तंग आकर इस्लाम, सिख, ईसाई और बौद्ध धर्म अपनाया। जबकि संघ और हिन्दुत्ववादी संघठन जो आरोप मिशनरियों पर लगाते हैं, वे काम ये खुद कर रहे हैं दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का हिन्दूकरण और ब्राह्मणीकरण करके।
इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इस्कॉन नाम का ब्राह्मणवादी त्रिपुरा के आदिवासियों के सरकारी स्कूलों में भोजन वितरण करेगा। इसके पीछे सिर्फ एक षड्यंत्र है, आदिवासियों का ब्राह्मणीकरण।
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सोर्स- अरुंधति की किताब ‘एक था डॉक्टर एक था संत’
एम.एन श्रीनिवास की किताब सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया (आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन)