हाल ही में मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर से नियमों के अनुसार सीवी क्या मांग लिया गया साम्यवादी, वामपंथियों में उथल-पुथल मच गई। एक बार फिर से जेएनयू में माहौल कुछ गरमा रहा है और इस बार मुद्दा टुकडे़-टुकडे़ गैंग ना होकर मशहूर हस्ती और इतिहासकार या कहें बच्चों-बच्चों की किताबों में प्राचीन इतिहास पहुंचाने वाली रोमिला थापर हैं।
सीवी को लिबरल मीडिया ने बनाया मुद्दा
दरअसल, जेएनयू में प्रोफेसर पद पर रहने के बाद वह प्रोफेसर emeritus के तौर पर जेएनयू से 1993 से जुड़ी हुई हैं। विश्वविद्यालय द्वारा हाल ही में किए गए रिव्यू में सामने आया है कि कई प्रोफेसर emeritus ऐसे हैं, जो ना पिछले तीन साल से विश्वविद्यालय आए हैं और ना ही उन्होंने अकादमिक फैसलों में अपना कोई योगदान दिया है।
विश्वविद्यालय के नियम 32 (G) के अनुसार प्रोफेसर emeritus की आयु 75 साल होने के बाद, उनकी नियुक्ति करने वाली एग्ज़िक्युटिव काउंसिल यह तय करेगी कि क्या वह emeritus के पद पर अपनी सेवा जारी रखेंगे या नहीं। यह निर्णय प्रोफेसर के स्वास्थ्य, इच्छा और उपलब्धता के आधार पर लिया जाएगा।
एग्ज़िक्युटिव काउंसिल की सब-कमेटी हर प्रोफेसर से बात करेगी। साथ ही नया सीवी मंगाकर समकक्षों की राय से परीक्षण करेगी। इस बात को लेकर हमारी जानी-मानी लिबरल मीडिया ने मुद्दा बना दिया है।
आखिर नियम कानूनों को ताक पर रखकर जेएनयू के बुद्धिजीवी फिर से सड़कों पर उतर आए हैं क्योंकि जिससे सीवी जैसी मामूली चीज़ मांग ली गई थी, वह रोमिला थापर हैं।
प्रधानमंत्री से मांगें डिग्री लेकिन प्रोफेसर से नहीं
वैसे बाकी प्रोफेसरों से भी सीवी मांगा गया है परंतु बात यह है कि वह सब मशहूर इतिहासकार रोमिला नहीं हैं। आप और हम भारत के सर्वोच्च राष्ट्रपति महोदय को संविधान के नियमों के अनुसार मतदान करने के लिए आम लाइन में खड़े हुए देख सकते हैं।
जनता द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री से डिग्री मांगी जा सकती है, जिसके लिए तो कोई अकादमिक योग्यता चाहिए भी नहीं परंतु हां, एक प्रोफेसर से रूल्स और रेगुलेशन के अनुसार सीवी तक नहीं मांगा जा सकता है।
यह देश के बुद्धिजीवी प्रतिभावान और इतिहास लिखने में योगदान देने वाली प्रोफेसर के लिए अपमानजनक हो जाता है क्योंकि वह महज़ सिर्फ एक प्रोफेसर ना होकर मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर हैं।
ट्वीट से गरमाया मुद्दा
मुद्दे में और गरमाहट तब आ गई जब बीजेपी पार्टी की आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय ने रोमिला से जुड़ी एक खबर को ट्वीट किया, ‘सिर्फ रोमिला थापर ही नहीं जेएनयू से जुड़े 75 वर्ष से अधिक के सभी प्रोफेसर इमेरिटस के कार्यकाल की नियमों के मुताबिक समीक्षा हो रही है। इस भ्रम से बाहर आना चाहिए कि लेफ्ट लिबरल इंटलेक्चुअल्स पर सवाल नहीं किए जा सकते।’
Not just Romila Thapar, all JNU Emeritus Professors above 75 years age are being reviewed as per University rules. Let us also disabuse ourselves of the notion that credentials of left-liberal ‘intellectuals’ can’t be questioned. https://t.co/seT9wXNq7d
— Amit Malviya (@amitmalviya) September 1, 2019
आखिर नियम सबके लिए समान हैं, इसमें उनके स्वाभिमान या सम्मान को ठेस पहुंचने जैसी कोई बात ही नहीं है लेकिन इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देने का काम शुरू हो गया। अब इसे दुर्भाग्य कहें या सोचा समझा एजे़ंडा?
सीवी बना विवाद और पत्रकारों को मिला काम
खैर, जो कह लीजिए परंतु हाल फिलहाल में तो रोमिला थापर हरगिज़ सीवी देने के लिए राज़ी नहीं है। कारण अभी भी वही है क्योंकि वह आखिर रोमिला थापर हैं। शायद विश्वविद्यालय उनके ऊंचे कद के सामने छोटा है, शायद नियम और कानून उनकी उपलब्धियों के आगे काफी फीके पड़ जाते हैं या वह खुद ही पूरा विश्वविद्यालय हैं। कुछ भी हो लेकिन यह मुद्दा तो आखिर बन चुका है और हमारे जाने-माने कुछ पत्रकारों को काम तो मिल गया है।
अच्छा ही है, रोमिला थापर का सीवी अब सिर्फ सीवी ना रहकर सीवी विवाद बन चुका है। अब ट्विटर के एक-एक ट्वीट पर बाल की खाल निकाली जाएगी और बुद्धिजीवी वर्ग भी उसी बहाव में अपनी कागज़ की नाव तैराते हुए दिखाई देंगे।
ताक पर विश्वविद्यालय कानून
शायद इतिहास के छात्रों के लिए सम्माननीया रोमिला थापर से सहानुभूति होना लाज़मी है। परंतु यह समझना अतिआवश्यक है कि यहां लक्ष्य उनकी काबिलियत पर शक करना या उनके सम्मान को ठेस पहुंचाना ना होकर एक ऐसे मुद्दे को सामने लाना है, जो कि असल में कोई मुद्दा है ही नहीं।
एक प्रोफेसर का नियम और कानून का पालन ना करना तथा पूरे विश्वविद्यालय को ताक पर रख देना उन्हें बिल्कुल शोभा नहीं देता। मगर आखिर में जीत तो हमारी मीडिया के एजे़ंडा की ही हुई है।