सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा प्रदेश के पूर्व काँग्रेस अध्यक्ष डॉक्टर अशोक तंवर की याचिका पर आदेश देते हुए केंद्र सरकार के उस प्रस्ताव को स्वीकार किया, जिसमें कोर्ट के आदेश पर तोड़े गए रविदास मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए 400 वर्ग मीटर ज़मीन देने की बात थी।
जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में आदेश देते हुए कहा कि केंद्र सरकार स्थाई रूप से वहां पर मंदिर का निर्माण कराएगी और इसके लिए 6 हफ्ते के भीतर समिति का गठन किया जाएगा।
कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि मंदिर के इर्द-गिर्द पार्किंग या कई भी व्यवसायिक गतिविधि नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर आंदोलन में गिरफ्तार हुए सभी आंदोलनकारियों को निजी मुचलके पर रिहा करने का भी आदेश दिया।
गौरतलब है कि डीडीए और रविदास मंदिर समिति के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि मंदिर सरकारी ज़मीन में अतिक्रमण करके बनाया गया है, लिहाज़ा उसको हटाया जाए। इसके बाद मंदिर को तोड़ दिया गया था।
मंदिर तोड़े जाने के बाद देश में कई जगहों पर धरना प्रदर्शन हुए। वहीं, दिल्ली में 1 अगस्त को पूरे देश के लाखों दलित इकट्ठा होकर गुरु रविदास मंदिर के पुनर्निर्माण की मांग रखी।
आंदोलन के दरमियान हरियाणा प्रदेश काँग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डॉक्टर अशोक तंवर ने अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटिशन दायर किया और कहा,
रविदास मंदिर 600 वर्ष पुराना है, जिससे रविदास जी के अनुयायियों का आस्था जुड़ा हुआ है। पूजा करने का अधिकार भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार है, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती है। अतः कोर्ट उसी जगह पर मूर्ति तथा मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश दे ताकि गुरु रविदास के अनुयाई अपने संवैधानिक पूजा के अधिकार को प्राप्त कर सके।
इसी पर कोर्ट ने अशोक तंवर की दलीलों को स्वीकर करते हुए सोमवार को फैसला सुनाया। इस मामले में केंद्र सरकार के प्रस्ताव को भी स्वीकार किया गया। इस मामले में देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी धरना प्रदर्शन हुए और लगभग सैकड़ों लोग देश भर में गिरफ्तार हुए।
इससे एक निष्कर्ष निकलता है कि न्यायालय और सरकार कमज़ोर वर्ग से जुड़े हुए मामलों में पक्षपात पूर्ण न्याय करती है। ऐसा भी देखा गया कि आंदोलन के बाद न्यायालय और सरकार अपने फैसले में बदलाव करती है, जो कि सरकार और न्यायालय के कमज़ोर वर्गों के खिलाफ मानसिकता को दर्शाता है।
इस मंदिर के पुनर्निर्माण पर आए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से सरकारों और न्यायालय के ऊपर सवाल उठते हैं कि इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर न्यायालय पहले गलती क्यों करता है? कोर्ट ने जो फैसला कल दिया, वही फैसला वह मंदिर तोड़े जाने से पहले दे सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसी वजह से लाखों दलित आंदोलन करने पर मजबूर हुए, जो वाकई में इस सिस्टम पर बड़ा सवाल है।
सोचकर देखिए यदि डॉ. अशोक तंवर रिट पिटीशन नहीं दायर किए होते, तो क्या मंदिर का पुनर्निर्माण हो पाता? जब डीडीए प्रशासन को यह मालूम था कि मंदिर प्राचीन और 600 वर्ष पुराना है फिर वह उसके खिलाफ क्यों लड़ रही थी?