“यार, छठ का नाम सुनते ही तुम बिहारी लोग इतने इमोशनल क्यों हो जाते हो? मैनेजर की रिस्पॉन्सिबल पोस्ट पर पहुंचकर भी लेबर क्लास टाइप हफ्ता भर की छुट्टी मांगने चले आते हो। पता नहीं इस छठ में ऐसा क्या है कि तुम लोग ओवर रिएक्ट करने लगते हो।”
दो वर्ष पूर्व मुंबई में होटल मैनेजर के पद पर कार्यरत किशन ने लंबे समय से छुट्टी नहीं ली थी, क्योंकि उसे छठ पर्व मनाने अपने गाँव बिहार आना था। नवंबर में जब उसने एक सप्ताह की छुट्टी के लिए अपने सीनियर को ईमेल किया तब उसके सीनियर ने दो दिनों की छुट्टी ग्रांट करते हुए उस पर अपनी खुन्नस निकाल दी।
उस वक्त किशन उन्हें समझा नहीं पाया और अगले ही दिन नौकरी छोड़कर छठ मनाने अपने गाँव आ गया। केवल किशन ही नहीं, बिहार या झारखंड से बाहर रहने वाले अन्य कई लोगों को भी अक्सर ऐसे सवाल-जवाब से दो-चार होना पड़ता है।
छठ शब्द से लोगों के चेहरे पर चमक
दूसरे राज्यों के लोगों को समझ नहीं आता कि छठ शब्द सुनते ही हम बिहारियों के चेहरे पर एक अलग सी चमक क्यों आ जाती है? सितंबर-अक्टूबर आते ही छठ की महिमा सोशल मीडिया पर वीडियो या पोस्ट के ज़रिये अभिव्यक्त होनी शुरू हो जाती है, जिसे देखकर छठ की पौराणिक कथाओं और छठ के प्रति लोगों के प्रेम, श्रद्धा और भक्ति तक की गहराई को समझा सकता जा है।
बिहार-झारखंड में दशहरा खत्म होते ही लोग सुबह जब मॉर्निंग वॉक के लिए निकलते हैं, तो किसी ना किसी घर से छठ की गीत के मीठे धुन की आवाज़ कानों तक दस्तक दे जाती है। उन गीतों के बोल सुनते ही मन में स्फूर्ति और ताज़गी का एहसास भर जाता है।
छठ पर्व अपने साथ जो यादों का पिटारा समेटे रहती है, यह उसका प्रभाव ही है कि बिहार-झारखंड के निवासी चाहे दुनिया के किसी भी कोने में रहें, छठ शब्द सुनते उनके चेहरे पर एक अलग सी चमक आ जाती है।
बिज़ी लाइफ का पॉज़ बटन
कुछ रोज़ पहले दिल्ली की एक फेसबुक यूज़र का छठ को लेकर किया गया पोस्ट वायरल हुआ, जिसमें उसने लिखा था, “मुझे समझ नहीं आता कि औरतों को दो दिन भूखे रखकर और इतना साफ-सफाई का पाखंड करके कौन से भगवान खुश हो जाते हैं? छठ तो पितृसत्ता को बढ़ावा देने वाला फेस्टिवल है, क्योंकि इसमें औरत बेटे के जन्म की कामना करती है।”
उसकी इस सोच और छठ के बारे में उसकी जानकारी पर मुझे तरस आता है। कुछ प्रचंड नारीवादियों को लगता है कि यह पर्व पुत्र कामना के लिए किया जाता है। ऐसे लोगों को यह जानना चाहिए कि छठ के गीत में ही ‘रूनकी-झुनकी बेटी दिह हे मइया और दिह पढ़ल पंडितवा दामाद’ के बोल भी शामिल होते हैं।
छठ में बेटा या बेटी नहीं, बल्कि संतान प्राप्ति और उसकी खुशहाली की कामना निहित होती है।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में गाँव की सभ्यता से कटकर हम शहर की चकाचौंध में उलझे हैं लेकिन छठ आज भी इससे अछूता है, क्योंकि इसपर शहरीकरण और पश्चिमीकरण का वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाया है।
पढ़ाई या नौकरी के लिए कई लोग अपने घर-परिवार से दूर रहकर भाग-दौड़ वाली ज़िंदगी जी रहे हैं। ऐसे में जहां परिवार के लोगों का जुड़ाव भी फोन कॉल्स, टेक्स्ट और वीडियो कॉल तक सीमित होकर रह गया है, उन्हें छठ अपनी बिज़ी़ लाइफ में पॉज़ बटन दबाने की वजह देता है।
कुछ फुरसत के पल अपने और अपनों के बीच बिताने का, पोते-पोती वाली जेनरेशन को दादा-दादी वाले जेनरेशन के साथ मिलकर एक ही छत के नीचे छठ की तैयारी करने का, परिवार और पारिवारिक संस्कृति तथा मूल्यों के महत्व को समझने और समझाने और पुराने शिकवे शिकायतों को भूलकर रिश्तों को नए उत्साह से जीने का।
स्वच्छता कार्यक्रम का परिचायक है छठ
हमारे समाज में ज़्यादातर पर्व-त्यौहार किसी ना किसी व्यक्ति विशेष वर्ग के दायरे में बंधे नज़र आते हैं लेकिन छठ एक ऐसा पर्व है, जिसे किसी भी जाति, धर्म या समुदाय महिला एवं पुरूष, विधवा, सधवा, कुंवारे और किन्नर सभी कर सकते हैं, वह भी एक ही विधि से एक ही तट पर खड़े होकर।
यह अनुष्ठान अपनी इच्छाशक्ति से किया जाता है। सफाई के महत्व को समझते हुए भारत सरकार द्वारा प्रायोजित स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है लेकिन हज़ारों सालों से मनाए जा रहे छठ पर्व में हमेशा से ही स्वच्छता का विशेष महत्व रहा है, चाहे वह अर्घ्य देने वाले घाट हों या खुद का घर, महीनों दिन पहले से सबकी साफ-सफाई शुरू हो जाती है।
मेट्रो सिटी की ऊंची-ऊंची इमारतों में रहने वाले लोग क्या जानेंगे कि छत या आंगन में गेहूं धोकर सुखाने का मज़ा क्या होता है? उस गेहूं को कौआ, गिलहरी या चिड़ियां जूठा ना कर दे, इसके लिए धूप में बैठकर हाथों में डंडा थामे रखवाली करने में भी कितना सुख और आनंद मिलता है।
आनंद से सराबोर छठ के चार दिन
छठ मात्र एक पर्व नहीं है, बल्कि भावनाओं का समावेश है जिसमें रूठे फुआ, चाचा-चाची सब एक ही घाट पर एक साथ खड़े होकर अर्घ्य देते हैं। रात भर जागकर प्रसाद बनाते हैं और परिवार में आपसी मतभेद से जिन लोगों के बीच बात तक बंद हो चुकी हो, उनके भी पैर छूकर समृद्धि का आशीर्वाद लेते हैं।
उमंग में डूबकर परिवार का कोई सदस्य नहाय-खाय के लिए गंगा जल लेने जाता है, कोई कद्दू समेत हरी सब्ज़ियां खरीदने जाता है, तो उस वक्त घर में मौजूद लोग चूल्हा जोड़कर प्रसाद बनाने की तैयारी करते हैं।
छठ व्रती का झुंड गंगा स्नान करके जब लौटता है, तो उनके धुले कपड़ों को बच्चे भी बिना किसी बहाने के टीवी-मोबाइल सब भूलकर खुशी-खुशी झटपट सूखने के लिए छत पर डालने दौड़ पड़ते हैं।
कद्दू और भात का भोजन तैयार होने पर छठ व्रती के खाने के बाद ही सभी लोग खाते हैं। नहाय-खाय के उस कद्दू भात में जो स्वाद होता है, वह पांच सितारा होटल के खाने में भी नहीं मिल सकता है।
सब लोग एकजुट होते हैं
अगले दिन सांझ ढलते खरना का प्रसाद खाने के लिए टोले-मुहल्ले से लेकर परिवार तक के लोग एकजुट होते हैं। बड़े अगर प्रसाद निकालकर देते हैं, तो घर के बच्चे दौड़-दौड़कर उसे सबके हाथों में थमाते हैं।
प्रसाद खाने से लेकर बांधकर ले जाने तक का यह सिलसिला देर रात तक चलता ही रहता है फिर तीसरे दिन अहले सुबह से ही सारी साफ-सफाई निपटा कर चूल्हा जलता है फिर शुरू होती है ठेकुआ तथा लडुआ बनाने की तैयारी, जिसकी शुरुआत छठ व्रती करती है और बाद में अन्य लोग जुड़ जाते हैं।
घर के पुरूष बाहर से फल-फूल और सूप-दऊरा के इंतज़ाम में व्यस्त रहते हैं और सांझ ढलने पर डूबते सूर्य को पहला अर्घ्य दिया जाता है।वापस लौटकर चाय-पानी पीने के बाद लोग फिर अगले दिन मतलब दूसरे दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देने की तैयारी में लग जाते हैं। रात भर जागकर तैयारी करने के बावजूद भी सुबह-सुबह नहा धोकर फिर से अर्घ्य्र देने की तैयारी करने का जो उत्साह होता है, उसका वर्णन शब्दों में करना मुश्किल है।
हर तरह के भेदभाव से परे है छठ
अर्घ्य देकर लौट रही छठव्रती को हर गली और चौक-चौराहों पर शरबत, कॉफी या चाय पिलाने का सेवाभाव सिर्फ पुण्य कमाने के इरादे से ही नहीं होता है, बल्कि इसमें छठ पर्व के प्रति अथाह प्रेम और श्रद्धा निहित होती है, जिसे छठ पर्व में शामिल हुए बिना नहीं समझा जा सकता है।
किसी के घर जाकर दिन-रात छठ की तैयारी में शामिल होना और मांगकर प्रसाद खाने में भी ऑक्वर्ड जैसा कुछ भी फील नहीं होता और ‘लोग क्या कहेंगे’ के बारे में सोचने के जगह ‘आपके यहां छठ हो रहा है’ यह सुनते खुद ऑफर करना कि ‘हम भी आएंगे और कोई भी ज़रूरत हो तो कहिएगा।’ इस तरह का अपनापन और ठेठ सादगी केवल एक ही पर्व में नज़र आती है, और वह है छठ।
पूजा के चार दिन
छठ में घर के अंदर तो तैयारी चलती ही रहती है मगर इसके साथ सड़क से लेकर घाट तक भी एकदम युद्ध स्तर पर सफाई और सजावट का काम होता दिखाई देता है।
कई लोग सोचते हैं कि बिहारियों को हर काम के लिए किस्मत और सरकार का मुंह देखने की आदत होती है लेकिन जनाब, कभी छठ के दौरान बिहार दर्शन करके देखिए। हर एक गली, सड़क और घाट सब चकाचक सज-धजकर तैयार रहते हैं तथा लोगों के उत्साह और साफ-सफाई के आगे सरकारी तंत्र भी सुस्त साबित हो जाता है।
सूप, दऊरा, साड़ी, कद्दू, फल औप सब्ज़ी से लेकर साड़ी, धोती तक और अर्घ्य देने जाते वक्त हर तरह के भेदभाव से ऊपर उठकर छठ व्रतियों को दूध, हुमाद, कपूर, अगरबत्ती बांटना, यह सब सिर्फ आस्था और भक्ति की वजह से ही होता है।
अरे, छठ तो बहाना है चचेरे, फूफेरे भाई-बहनों से मिलने और पूरे गाँव के एक होने और समाज में अपनेपन की बीज बोने का।
छठ पर्व की इन खूबसूरत यादों की गहराई में गोता लगाकर सिर्फ वही नम आंखों से मुस्कुरा सकता है, जिसे एक बार बिहार की पावन धरती पर आकर किसी छठ पर्व में शामिल होने का अवसर मिला हो। उसके बाद उस इंसान को भी छठ ‘पर्व’ नहीं, बल्कि भावनाओं में गोता लगाता ‘महापर्व’ ही नज़र आने लगता है।
दरअसल छठ क्या है, इसे जानने और समझने के लिए इसमें शामिल होना ज़रूरी है क्योंकि छठ कोई त्यौहार नहीं है। यह एक पारंपरिक अनुष्ठान है, जो सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक विरासत के तौर पर हस्तांतरित होता रहा है तथा इसके बावजूद भी इसका स्वरूप पूर्ववत बना हुआ है।
अब तो अपना छठ इंटरनैशनल हो गया है। कहने का मतलब कि अब छठ बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश की सीमाओं को पार कर देश-विदेश तक पहुंच चुका है और वहां भी लोग पूरे जोश और उत्साह के साथ इसे मना रहे हैं।