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“मेरे सूखाग्रस्त गाँव में पीरियड्स के दौरान महिलाएं खेतों में जमा पानी का प्रयोग करती हैं”

फोटो साभार- Flickr

फोटो साभार- Flickr

केंद्र सरकार द्वारा ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को काफी ज़ोर-शोर से चलाया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्राओं में भी इसका कई बार ज़िक्र कर चुके हैं। सरकार द्वारा शौचालय बनाने के लिए 12,000 तक राशि भी प्रदान की गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां तक घोषित कर दिया कि भारत खुले में शौच से मुक्त हो गया है।

इन दावों की ज़मीनी हकीकत में कितनी सच्चाई है, यह तो हम सभी जानते हैं। कुछ दिन पहले यह खबर आई कि दो बच्चे खुले में शौच कर रहे थे और उन्हें मार दिया गया। ऐसी स्थिति में हम कैसे यह कह सकते हैं कि भारत पूरी तरह से खुले में शौच मुक्त हो गया है?

शौचालयों में पानी की कोई व्यवस्था नहीं

मैं महाराष्ट्र के मराठवाड़ा से आता हूं, जो सूखाग्रस्त इलाका है। यहां पर महाराष्ट्र के अन्य इलाकों की तुलना में काफी कम बारिश होती है। हर 5 साल में एक बार सूखे की गुंज़ाइश होती है। हमारे देश में जब भी पीरियड फ्रेंडली टॉयलेट की बात होती है, तब लोग इसे रॉकेट साइंस की तरह देखने लगते हैं, क्यों भाई?इसके कारण शौचालयों का इस्तेमाल नहीं होता है।

मैंन खुद कई दफा मेरे इलाके के आसपास देखा है कि लोग सरकार द्वारा बनवाए गए शौचालयों में कटी हुई लकड़ियां और अन्य चीज़ें रखते हैं। मराठवाड़ा के सबसे बड़े शहर औरंगाबाद की बात करें तो यहां सार्वजनिक शौचालय ना के बराबर हैं। पूरे शहर में 2-4 शौचालय अच्छी स्थिति में हैं। जबकि शहर की जनसंख्या लगभग 15 लाख है। विदेशी पर्यटक भी बड़े पैमाने पर आते हैं। बीबी का मकबरा एलोरा और अजंता की गुफाएं इसी ज़िले में स्थित हैं।

पीरियड फ्रेंडली टॉयलेट की बात कोई रॉकेट साइंस नहीं है

ग्रामीण भारत के उन क्षेत्रों की कल्पना कीजिए जहां पानी की भारी दिक्कत है फिर आपको अंदाज़ा होगा कि वहां के लोगों के लिए खुले में शौच करना कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि यहां तो पानी की उपलब्धता ही नहीं है। यदि सरकार ने बगैर पानी के ही शौचालय लोगों को दिए हैं फिर इसमें लोगों की क्या गलती है जो खेतों में शौच करने जाते हैं। हमारे देश में जब भी पीरियड फ्रेंडली टॉयलेट की बात होती है, तब लोग इसे रॉकेट साइंस की तरह देखने लगते हैं, क्यों भाई?

शोच करने खेतों में जाती महिलाएं। फोटो साभार- Flickr

खैर, आपके ज़हन में एक बात आ रही होगी और वो यह कि मैंने सरकार द्वारा बनवाए गए शौचालयों की तो बात की मगर इसके साथ मासिक धर्म के दौरान शौचालयों की उपलब्धता ना होना या गंदे शौचालयों का प्रयोग करने पर उन्हें किन-किन दिक्कतों का सामाना करना पड़ता है, इस पर बात करने में शायद देर कर दी। इसका जवाब यही हो सकता है कि जब हमारे देश में पुरुषों के लिए ही सही शौचालय नहीं हैं तो महिलाओं के लिए हम स्वच्छ शौचालयों की कल्पना भला कैसे कर सकते हैं?

क्या हमने कभी यह सोचने की ज़हमत उठाई है कि मासिक धर्म के दौरान पानी की किल्लत के कारण खासकर ग्रामीण महिलाओं को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?

शहरी इलाकों में भी सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति काफी बुरी है। मैं तो यह कल्पना भी नहीं कर पाता हूं कि गंदे शौचालयों का प्रयोग महिलाएं पीरियड्स के दौरान कैसे करती होंगी? स्वच्छता का पैमाना जब निम्न से भी कम हो तब इंफेक्शन का खतरा कई गुणा तक अधिक हो जाता है। मैंने देखा है मेरे शहर के आसपास के गाँवों में महिलाएं पीरियड्स के दौरान कई महीनों से एकत्रित खेतों के पानी का इस्तेमाल शौच के लिए करती हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- अमीना खातून

गंदे शौचालयों के प्रयोग से लैंगिक स्वास्थ्य संबंधित कई समस्याएं सामने आ सकती हैं। हमारे देश में महिलाओं की आबादी लगभग 50 फीसदी है मगर जब बात इनके लिए पीरियड फ्रेंडली शौचालय बनाने की आती है, तब हर तरफ सिर्फ खामोशी ही होती है।

क्या हम समाज के तौर पर इतने असंवेदनशील हैं कि महिलाओं के लिए जगह-जगह पर पीरियड् फ्रेंडली शौचालय की मांग भी नहीं कर सकते हैं? कितनी दफा आपने देखा है कि दिल्ली के जंतर-मंतर या रामलीला मैदान में पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए पीरियड् फ्रेंडली शौचालय बननाने की मांग की गई हो?

स्थिति बेहद डरावनी इसलिए भी है क्योंकि बीएचयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में छात्र-छात्राओं को अच्छे शौचालय और सैनिटरी पैड्स की उपलब्धता के लिए भूख हड़ताल पर बैठना पड़ता है।

नगर निगम और ग्राम पंचायत ज़िम्मेदारी तय करें

राज्य सरकार या फिर केंद्र सरकार स्वच्छता के लिए क्या कर सकती है? नगर निगम और ग्राम पंचायत को पैसे देना तो उनकी ज़िम्मेदारी है मगर ज़मीनी स्तर पर सब कुछ ठीक से हो रहा है या नहीं, यह कैसे सुनिश्चित हो?

क्या हम इस बात का संकल्प ले सकते हैं कि छोटे शहरों और गाँवों में जब महिलाएं पीरियड्स के दौरान बज़ार जा रही होंगी, तब उन्हें इसलिए जल्दी घर ना लौटना पड़े क्योंकि बाज़ारों में पीरियड फ्रेंडली शौचालय तो हैं ही नहीं! पीरियड फ्रेंडली की तो बात छोड़ दीजिए, अधिकांश जगहों पर तो महिलाओं के लिए भी अलग से शौचालय नहीं हैं।

जिस देश में पुरुषों को नाक ढककर पिशाब करने के लिए जाना होता है, उस मुल्क में पीरियड्स के दौरान महिलाओं की क्या हालत होती होगी, इसकी कल्पमा मात्र से ही एक अजीब सी घबराहट होती है। आईए हम और आप मिलकर इस अजीब सी घबराहट को कम करते हैं।

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