Site icon Youth Ki Awaaz

“पीरियड्स से जुड़े स्टीरियोटाइप्स को तोड़ने के लिए मैंने बिहार में कैसे शुरू की मुहिम”

माहवारी जागरूकता कार्यक्रम

माहवारी जागरूकता कार्यक्रम

मैं सोशल डेवलपमेंट सेक्टर में महिलाओं, बच्चों और अन्य सामाजिक मुद्दों पर बीते दो सालों से काम कर रही हूं। कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी के तहत सबसे पहले मैंने एक सैनिटरी नैपकीन बेचने वाली कंपनी के लिए प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर के रूप में काम किया।

इसके तहत पटना के 55 सरकारी स्कूलों में किशोर उम्र की लड़कियों को हमने बताया कि हाइजीन मेंटेन करने के लिए सैनिटरी पैड यूज़ करना कितना ज़रूरी है।

उस प्रोजेक्ट के ठीक दो वर्ष बाद फिर इस साल यूनिसेफ के साथ #चुप्पीतोड़ोखुलकेजियो अभियान का हिस्सा बनी। इसमें हेल्दी एंड हैप्पी पीरियड्स को लेकर सेंसटाइज़ेशन प्रोग्राम को प्रोत्साहित किया गया।

रेलवे स्टेशनों और झुग्गियों में माहवारी जागरूकता कार्यक्रम का संचालन

माहवारी जागरूकता कार्यक्रम के दौरान अनुपमा सिंह। फोटो साभार-अनुपमा सिंह

मेरे पहले प्रोजेक्ट को हमलोगों ने पटना के उन हाई स्कूलों मे कराया जहां सिर्फ लड़कियां ही पढ़ती हैं, क्योंकि तब मैं यह सोचती थी कि इस विषय पर केवल लड़कियों को ही बात करनी चाहिए।

हालांकि अब मैं इन कार्यक्रमों को केवल लड़कियों के बीच नहीं कराती हूं। अभी हाल ही में हमने माहवारी जागरूकता कार्यक्रमों को रेलवे स्टेशनों के बाहर, फैमली पार्क में, झुग्गियों और सेल्टर होम्स में करवाया।

मेरा मानना है कि पीरियड्स जैसे विषय पर केवल लड़कियों को ही नहीं बल्कि, लड़कों को भी बात करने की ज़रूरत है। हम महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति क्या है, उसकी समझ अगर हमारे आस-पास रहने वाले या साथ काम करने वाले पुरुषों को भी होगी तो उनका व्यवहार हमारे लिए संवेदनशील होगा।

इसी वजह से हमने पीरियड्स से जुड़े स्टीरियोटाइप्स को ब्रेक करने के लिए जिस मुहिम की शुरुआत की थी, उसे सिर्फ महिला मुद्दा ना मानकर समाज के सभी लोगों का आम मुद्दा मानते हुए लोकल पब्लिक प्लेटफॉर्म पर खुलकर चर्चा का एक स्पेस तैयार किया।

हमारा कार्यक्रम एक स्थान पर लगभग तीन से चार घंटे चलता था। कार्यक्रम की शुरुआत में भीड़ कम होती थी लेकिन लड़के-लड़कियों के अलवा हर उम्र के पुरुषों और महिलाओं से लेकर ट्रांसजेंडर्स भी उसमें शामिल होते थे। उत्सुकता से सवाल पूछने से लेकर कार्यक्रम के अलग-अलग एक्टिविटी का पार्ट बनते थे।

माहवारी को लेकर बदल रही है सोच

माहवारी जागरूकता कार्यक्रम। फोटो साभार- अनुपमा सिंह

उस दौरान मेरी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से भी होती रही जिन्हें मुंह से माहवारी शब्द का नाम लेना और हाथ से सैनिटरी पैड छूना भी पाप सा लगता था। वहीं, कुछ ऐसे पुरुष भी मिले जो कम पढ़े लिखे थे लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि वे अपनी बेटियों के लिए बड़ी सहजता से सैनिटरी पैड खरीदकर घर ले जाते हैं।

यहीं नहीं, उन्होंने यह भी बताया कि बच्चियों की सेहत ठीक ना होने पर वे उन्हें स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास खुद ही लेकर जाते हैं। ये सब सुखद बदलाव आज के दौर में इसलिए मुमकिन हो रहा है, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्र के लोग अपने-अपने स्तर पर पीरियड्स को लेकर संवेदनशीलता बनाने के लिए कार्यक्रम चला रहे हैं, जिससे हमारा समाज अब अपनी चुप्पी तोड़कर इस मुद्दे को समान्य रूप से लेने लगा है।

मेरा भी यही मानना है कि पीरियड्स भले ही महिलाओं या ट्रांस पुरुषों को आता हो लेकिन इसके प्रति समाज में पुरुषों को भी बराबर तरीके से जागरूक करते हुए अपने घर की महिलाओं या आस-पास काम कर रही महिलाकर्मियों या पार्टनर के प्रति संवेदनशील बना पाएंगे।

Exit mobile version