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नीयत सही मगर मज़बूत प्रभाव छोड़ने में कमज़ोर फिल्म है मुल्क

देश में हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के सह-अस्तित्व पर जाने कितने गीत रचे गए, कहानियां और उपन्यास लिखे गए और फिल्में भी बनीं। ‘मुल्क’ इन्हीं प्रयासों की एक कड़ी के रूप में देख सकते हैं।

इस बार अप्रोच में थोड़ा फर्क ज़रूर है, यह ना तो वी शांताराम की फिल्म ‘पड़ोसी’ की तरह आदर्शवादी है और ना ही गोविंद निहलानी के ‘तमस’ की तरह यथार्थ को परत-दर-परत उधेड़ती है।

यह अपनी पटकथा में एक मुकदमे को आधार बनाकर तर्कसंगत तरीके से इस प्रश्न का सामना करती है। दिक्कत यह है कि हिन्दू-मुस्लिम के प्रश्न को तर्क की कसौटी कसते वक्त यह फिल्म बहुत से मुद्दों का सरलीकरण करती चलती है। इस सरलीकरण के अपने खतरे हैं।

यह हमें जटिलाओं को समझने की दृष्टि नहीं देते हैं। नतीजा यह होता है कि बहुत से सवाल अनसुने-अनदेखे रह जाते हैं। इस एक कमी के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज के सामाजिक-राजनीतिक माहौल में ऐसी फिल्मों की ज़रूरत है।

हालांकि बहस, उसकी कड़वाहट और समाधान की दिशाओं के मामले में हम अपनी वास्तविक ज़िंदगी में कहीं आगे बढ़ चुके हैं, जहां तक यह फिल्म हमें लेकर जाती है।

फिल्म की कहानी

फिल्म में मुराद अली (ऋषि कपूर) और उसके परिवार की कहानी कही गई है। मुराद अली के भाई बिलाल का बेटा (प्रतीक बब्बर) आतंकवाद के रास्ते पर निकल पड़ता है। मुराद और उसके परिवार का इससे दूर-दूर तक वास्ता नहीं है लेकिन आतंकवादी होने का आरोप मुराद अली और उसके परिवार पर लग जाता है।

लंदन से आई उस परिवार की एक हिन्दू बहू आरती (तापसी पन्नू) परिवार पर लगे इस दाग को मिटाने की ठानती है। मुराद और आरती कोर्ट पहुंचते हैं और एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त वकील आशुतोष राणा के तर्कों को धैर्य के साथ काटते हैं और खुद को ना सिर्फ बेगुनाह साबित करते हैं बल्कि उस सोच को भी कटघरे में खड़ा करते हैं, जो अनजाने में मुसलमानों को एक खास तरह से देखे जाने की आदत डालती जा रही है।

फिल्म इसके लिए पटकथा और संवादों का सहारा लेती है। यही इस फिल्म की ताकत भी है। अनुभव सिन्हा ने पटकथा को बेहतर और चुस्त तरीके से प्रस्तुत करने की ज़िम्मेदारी निभाई है।

फिल्म का लोकेशन

फिल्म के लिए सोच-समझकर बनारस की लोकेशन चुनी गई है, जहां हिन्दू और मुसलमान बड़ी सहजता से परिवेश में रचे-बसे नज़र आते हैं। फिल्म के आरंभिक दृश्य बड़ी सहजता से इन दोनों समुदायों की आपसी साझेदारी के उन छोटे-छोटे प्रसंगों को पकड़ती है, जिसने हम अक्सर अपने जीवन में रूबरू होते हैं।

फिल्म में लोकेशन का चयन बहुत बेहतर है। हालांकि कोर्ट के दृश्यों को और बेहतर बनाया जा सकता था, फिर ये दृश्य ठीक-ठाक स्लैबलिश कर लिया गया है।

यह पटकथा की खूबसूरती है कि वह हमें परिवेश से घटनाओं और घटनाओं से बहस की तरफ ले जाती है। अंत में बहस से एक विचार में तब्दील होने की कोशिश करती है।

फिल्म की कमज़ोर कड़ी

हालांकि यह आखिरी कड़ी कमज़ोर है, जो जज के उपदेश के साथ और भी कमज़ोर हो जाती है। यह इतना आसान नहीं है कि मुस्लिम परिवार अपने परिवार के बच्चों पर निगाह रखेंगे तो वे बहकेंगे नहीं और आतंकवादी नहीं बनेंगे। यह भी आसान नहीं है कि हिन्दू रातों-रात मुसलमानों को देखने और समझने का अपना नज़रिया बदल देंगे। फिल्म कई जगह चीज़ों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाती है। अंत जड़ में गए बिना एक सुधारवादी नज़रिये को थोप दिया जाता है।

तापसी पन्नू का कमज़ोर अभिनय

तापसी पन्नू फिल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी है। वह फिल्म के आरंभिक हिस्सों में अच्छी लगती हैं मगर जब वह अदालत में बहस के लिए उतरती हैं तो लगता है कि वह किसी के सिखाए हुए डायलॉग बोल रही हैं। उनकी दृढ़ता का कोई संदर्भ सामने नहीं आता है।

फिल्म के कुछ बेहतर किरदार

ऋषि कपूर शानदार हैं और आशुतोष राणा भी लेकिन सबसे बेहतर किरदार के रूप में रजत कपूर सामने आए हैं। एक सौम्य और सॉफिस्टिकेटेड छवि के विपरीत वह एक कठोर पुलिस अफसर दानिश जावेद के रोल में काफी जंचते हैं। उनके कैरेक्टर की जटिलता फिल्म को एक नया आयाम भी देती है और उसकी मोनोटोनी तोड़ने में मदद भी करती है।

हालांकि अंत तक आते-आते यह किरदार भी पटकथा में अपनी जगह को बेहतर नहीं बना पाता है। छोटे-छोटे बहुत से दिलचस्प किरदार फिल्म को उबाऊ बनाने से बचाते हैं। मुराद के भाई बिलाल के रोल में मनोज पाहवा के बिना तो इस फिल्म पर चर्चा ही नहीं की जा सकती है। पॉलिटिक्स, सत्ता और धर्मोन्माद किस तरह समाज के सबसे मासूम लोगों को अपना शिकार बनाती है, फिल्म में बिलाल का किरदार इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है।

‘मुल्क’ फिल्म को हम आज के दौर में एक ज़रूरी फिल्म कह सकते हैं मगर इसमें शक है कि यह फिल्म ‘गर्म हवा’, ‘मम्मो’ या ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’ की तरह याद रह जाएगी।

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