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मैला ढोने वाले लोगों को दूसरे रोज़गार क्यों नहीं मिल पाते हैं?

कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूरब से पश्चिम तक मैला ढोने का काम पूरी दुनिया की वह आबादी करती है, जिसके पास पेट पालने के लिए और कोई रोज़गार ही नहीं है। एक ऐसी नहीं दिखने वाली दुनिया, जहां मैला ढोना एक बजबजाता यथार्थ है और जिससे निकलने की तमाम सरकारी-गैर सरकारी कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुई हैं।

शुष्क शौचालय के निर्माण पर प्रतिबंध लगने के बाद सिर पर मैला ढोने की प्रथा में तो गिरावट आई है लेकिन इस प्रथा में लगे लोगों का रोज़गार आज भी गंदगी साफ करने से ही जुड़ा हुआ है। अपनी जाति की वजह से दूसरे रोज़गार ना मिलने की वजह से ये नाली या दूसरी गंदगी साफ करने जैसे कार्यों में लगे हुए हैं।

अपने अभिशप्त जीवन से मुक्ति पाने के लिए अगर इस दुनिया के लोग किसी प्रभु की आस्था भी करें तो यह संभव नहीं है, क्योंकि सभ्य समाज के देवता इनकी परछाई से ही अपवित्र हो जाते हैं।

19 नवबंर यानी आज विश्व शौचालय दिवस मनाया जा रहा है। हमारे मुल्क में सच्चाई यह है कि कमज़ोर कानून और उसे लागू करने की इच्छाशक्ति में कमी के कारण भारत में हाथ से सफाई की प्रथा अभी भी जारी है, जबकि 2013 में एक कानून बनाकर इस प्रथा को प्रतिबंधित किया गया था।

जातिगत रोज़गार

प्रतिबंध के बाद भी इसके चालू रहने का मुख्य कारण यह है कि यह भारत में एक समुदाय विशेष के लिए जातिगत रोज़गार है, जिसमें उनके श्रम के लिए कहीं पैसा, तो कभी भोजन भी मिलता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं अन्य द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अध्ययन में यह बाते सामने आई है।

रिपोर्ट अपने अध्ययन में यह भी बताता है,

भारत में सफाईकर्मियों की आर्थिक स्थिति गंभीर है और यह जातिगत रोज़गार है। जातिगत रोज़गार होने के कारण रोज़गार के अन्य क्षेत्र उनके लिए उस तरह से काम नहीं करते हैं, जैसा शेष जातियों के लिए करते हैं।

सामाजिक भेदभाव और अपमान का सामना करने की स्थिति इतनी अधिक गंभीर है कि इन लोगों को सफाईकर्मियों के काम से बाहर निकलने के अवसर सहजता से प्राप्त नहीं हो पाते हैं।

यह स्थिति स्पष्ट करती है कि भारत में कोई अपने काम की वजह से नहीं, अपितु जन्म के चलते सफाईकर्मी है, जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था के व्यापक विकास के बाद भी जाति और धर्म की जकड़न कमज़ोर होने के बदले और अधिक मज़बूत हुई है।

भारत में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने को लेकर देश में व्यापक सहमति है, जिसको लेकर पहले 1993 में कानून आया, जिसको 2o13 में सुधार करते हुए इसमें सेप्टिक टैंक की सफाई और रेल पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया।

सरकार ने इस काम से पुनर्वास करने के लिए व्यापक योजनाएं भी बनाई हैं परंतु जितने लोगों का पुनर्वास नहीं हो रहा है, उस अनुपात में सफाई कर्मचारियों की मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है।

अलग-अलग राज्यों में मैला ढोने वालों की स्थिति के NAKFDC के आंकड़ें-

इस प्रथा को खत्म करने में सरकार नाकामयाब

सामाजिक व्यवस्था से पीड़ित इस आबादी के लोगों के अधिकार दिलाने का वादा करने वाली विधानसभा और लोकसभा भी खुद को लोकतांत्रिक मुखौटे में अपना चेहरा छिपा लेने को मजबूर है। वजह यह है कि विधानसभा और लोकसभा में प्रतिनिधित्व देने वाले लोगों के धार्मिक, जातिय और वर्गीय संस्कार मैला ढोने वाले लोगों की समस्याओं के मूल्यांकन करने में सफल नहीं हो पाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं अन्य द्वारा संयुक्त रूप से जारी किए गए अध्ययन में इस बात का भी ज़िक्र है कि कमोबेश विश्व के अधिकांश देशों में मैला ढोने का काम अलग-अलग तरीके से मौजूद है और सभी जगह इसका आधार जाति और कुछ जगहों पर जाति और धर्म के साथ मिलता-जुलता है।

जब हम विश्वस्तर पर शौचालय दिवस और स्वच्छता से जुड़े कई दिवस मना रहे हैं, तब हमको मैला ढोने की समस्या को अन्य देशों के साथ साझा करके इससे मुक्ति के उपाए खोजने चाहिए। वे उपाए मानवीय भी हो सकते हैं और मशीनी भी।

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