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ग़ालिब के ये तीन किस्से हिन्दू-मुसलमान में उलझे देश के लिए सीख हैं

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयां और

यह बात ग़ालिब ने खुद ही खुद के बारे में कही थी और इससे मालूम होता है कि अंग्रेज़ी की कहावत “love yourself” को जनाब ने काफी संजीदगी से लिया था।

आज हम ग़ालिब को याद करते हुए उनकी रूह को हिचकियां इसलिए दिला रहे हैं, क्योंकि आज चचा ग़ालिब की यौमे पैदाइश यानी कि उनका जन्मदिन है।

एक तो भई इस देश में सारे चचाओं के नाम पर आफत है। एक चाचा नेहरू हैं, जिनके बारे में ना जाने कितने उल्टे-सीधे किस्से व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के ग्रैजुएट्स ने फैला रखी है। दूसरे चचा ग़ालिब जिनके नाम पर कितने ही अनाप-शनाप शेर ठेले जाते हैं, जिसका उनसे कोई वास्ता ही नहीं है।

बहरहाल, आज हम आपके लिए चचा ग़ालिब के कुछ सच्चे किस्से लेकर आए हैं, जो आज मज़हबों के नाम पर देश में बने तनातनी के माहौल के बीच बड़े प्रासंगिक से लगते हैं।

वैसे तो मैं ग़ालिब का परिचय देने की नादानी नहीं करूंगा लेकिन एक इंट्रेस्टिंग बात है, वह ज़रूर बताना चाहूंगा। ग़ालिब के अब्बा जो थे, उनके भी वालिद वह समरकंद, जो कि अब उज़केबिस्तान में है, से आए थे। अब आपको ग़ालिब के कपड़ों से तो उनकी पहचान का पता चल ही गया होगा, तो देश के ऐसे NRC-नुमा माहौल में अगर ग़ालिब होते, तो वे हिंदुस्तानी होते या अदृश्य डिटेंशन सेंटर के दरो-दीवार से सब्ज़ा उगते देख रहे होते, ये सब तो सोचने की बाते हैं।

खैर, माफ करना मैं कभी-कभी इधर-उधर निकल जाता हूं। तो वापस आते हैं ग़ालिब के किस्सों पर।

जलेबी का मज़हब क्या है?

पहला किस्सा कुछ यूं है कि एक बार दिवाली की शाम मिर्ज़ा दिल्ली की सड़कों पर चहलकदमी करते अपनी हवेली को जा रहे थे। रास्ते में उनकी मुलाकात अपने एक जानने वाले से हुई, जो कि एक हिन्दू था। दिवाली की बधाइयां एक दूसरे को देने के बाद उस आदमी ने ग़ालिब को इत्तिला दी कि दिवाली की मिठाई उनकी हवेली पर पहुंचा दी गई है। उसके बाद वह अपने रास्ते चले गएं।

इतने में चौक पर बैठे एक मौलाना, जो यह सब देख-सुन रहे थे, उन्होंने ग़ालिब से पूछा,

भई मिर्ज़ा, तुम दिवाली की मिठाई खाओगे?

ग़ालिब ने कहा,

हां। बर्फी है, ज़रूर खाएंगे।

तिसपर मौलाना ने त्यौरियां चढ़ाकर कहा,

लेकिन वो तो हिन्दू है!

जवाब में ग़ालिब तपाक से बोल उठे,

अच्छा, बर्फी हिन्दू है? तो फिर जलेबी का मज़हब क्या है?

यह जवाब सुनकर मौलाना को कुछ बोलते ना बना और चचाजान मुस्कुराते हुए हवेली की ओर चल पड़ें, जहां उनका इंतज़ार बर्फी कर रही थी।

पूजा के बाद तिलक लगाने की मांग

दूसरा किस्सा भी दिवाली का ही है, जब मिर्ज़ा अपने किसी दोस्त के यहां थे और वहां लक्ष्मी पूजा हो रही थी। पूजा के बाद जब तिलक लगाने की बारी आई तो पुजारी ने ग़ालिब को छोड़कर सबको तिलक लगाया। ऐसे में मिर्ज़ा ने खुद पुजारी से कहा कि जब सबको पूजा के बाद तिलक लगा रहे हैं, तो मुझे भी लगाइए।

“आप कौन होते हैं, भाषा को मज़हब से जोड़ने वाले?”

एक और वाकिया है, जब मिर्ज़ा ग़ालिब को कलकत्ते किसी समारोह के लिए बुलाया गया, तब वहां मौजूद लोगों ने मिर्ज़ा को बताया कि फोर्ट विलियम कॉलेज में अब हिंदुओं के लिए हिंदी और संस्कृत पढ़ाई जाएगी। सुनकर ग़ालिब ने गुस्से में पूछा, “आप कौन होते हैं, भाषा को मज़हब से जोड़ने वाले?”

रसखान और खुसरो का हवाला देते हुए उन्होंने भाषा को मज़हबी जामा पहनाने वालों को खरी-खरी सुनाई और ऐसे लोगों द्वारा आयोजित किए गए मुशायरे में हिस्सा नहीं लेने का फैसला किया।

ऐसे वक्त में जब धर्म के नाम पर ग़ालिब के देश में कानून बनाए जा रहे हैं, उन्हीं का एक शेर है, जो धर्म की दीवारों को तोड़कर इस मिट्टी की तासीर पेश करता है,

ईमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र

काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

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