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रेलवे बहाली परीक्षा पास करने के बाद भी इन विकलांग युवाओं को नौकरी नहीं मिली

दिल्ली हिंदोस्तां का दिल है, गज़ब का शहर है, गज़ब की बात है। यहां इतिहास पैर पैसारे बैठा है तो राजनीति गला दबोंचे। दिल्ली संस्कृतियों का संगम है, अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं मेल्टिंग पॉट। हां वही है, सुंदर है, मैली है, तीखी है, बदतमीज़ है, बड़बोली है, कभी नाराज़ तो कभी हैरतअंगेज करने वाली है दिल्ली।

इसकी तारीफों के पुल भी बड़े हैं, तो गालियों की लाइन भी। एक अफरा-तफरी है। ना जाने कितने सपनों को पाले हैं, ना जाने कितने ख्वाब खुद संजोए हैं।

मंडी हाउस में बिछा है इन दिनों एक अद्भुत मेला

यह तो हुआ एक शहर का महिमामंडन। अब ले चलते हैं आपको एक ऐसे पहलू की ओर जहां कोई जाना नहीं चाहता है। अगर आप पर्यटक हैं, ब्लॉगर हैं, मीडिया विभाग से हैं, नेता हैं, विधायक हैं, भिखारी हैं, कुछ भी हैं, नीली या बैंगनी मेट्रो पकड़कर मंडी हाउस आ जाएं। महंगा कैमरा हो तो साथ लेते आएं, यहां एक अलग ही भारत की झांकी चल रही है। एक अद्भुत मेला बिछा है सड़कों पर।

मंडी हाउस में प्रोटेस्ट करते लोग। फोटो सोर्स- बसंत कुमार

दूर से आते वक्त आपको कुछ लोग अजीब सी हालत में सड़क पर बैठे दिखेंगे, नज़दीक जाएंगे तो पता चलेगा कुछ खड़े हो ही नहीं सकते हैं, कुछ व्हीलचेयर को छोड़कर आपकी तरह समंदर की लहरों को छूने दौड़ नहीं सकते हैं, कुछ लाल किले के लाल रंग को देख नहीं सकते हैं, कुछ तीखे हॉर्न सुन नहीं सकते हैं। कइयों के हाथ नहीं है, कइयो के पांव नहीं है किन्तु सबके पास एक तख्ती होगी, उसपर कुछ लिखा होगा, उनमें से कुछ चीख भी रहे होंगे, कुछ सड़क पर लेटे होंगे।

एक अलग कोने में कुछ महिलाएं और पुरुष भूख हड़ताल जैसा कोई आयोजन कर रहे हैं। मेरी संवेदना मुझे इजाज़त नहीं देती है कि मैं पता करूं कि भूख हड़ताल होती क्या है, एक सशक्त मज़बूत 5 ट्रिलियन बनने वाले लोकतंत्र में भूख हड़ताल जैसा कुछ हो सकता है, मैं नहीं जानता।

मैं विश्वास करने से इनकार करता हूं कि सामने बैठी वह देश की नौजवान बेटी तीन दिनों से भूखी है। यह लोग, यह जनता, यह नागरिक सड़कों पर लेटने को आज विवश हैं पर यह सब मैं कैसे मान लूं? मीडिया में मेरा भारत बहुत महान दिखता है जनाब, हकीकत में फिर क्यों नहीं? इन लोगों के क्या मुद्दे हैं? ये लोग कौन हैं?

क्या सिर्फ दिव्यांग कह देने से सारी ज़िम्मेदारियां पूरी नहीं हो जाती हैं प्रधानमंत्री जी?

माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन लोगों को दिव्यांग कहते हैं। उनके मुख से निकले कुछ शब्द इनके लिए अमृत तुल्य हैं, एक उम्मीद की डोर है, एक आशा का पुल है।

इन दिनों इनपर क्या बीत रही होगी, वह पुल, वह डोर कितनी बची है, इसका अंदाज़ा मैं नहीं लगा सकता। यह मेरे सिलेबस से बाहर है। यह मेरे 5 ट्रिलियन के भारत में थोड़ा जच नहीं रहा है।

क्या है इन लोगों का कसूर

अब इनके कसूर की बात करते हैं, तो वह यह है कि इन सब लोगों ने रेलवे ग्रूप डी की परीक्षा दी, पास हुए, नंबर आया लेकिन ज्वाइनिंग नहीं हुई। सरकारी नौकरी हिन्दुस्तान में किसी लक्ष्मण बूटी से कम नहीं है, गहरी सामाजिक मूर्छा का इलाज है सरकारी नौकरी। तो भला एक गरीब असहाय क्यों ना भागे इसके पीछे?

या तो माननीय वित्तमंत्री बता दें कि वह 5 ट्रिलियन 8-10 उद्योगपतियों के खातों की कुल राशि है, या रेलवे मंत्री ये बता दें कि जो ये लोग हड़ताल कर रहे हैं, वे कब तक निराश होकर घर लौट सकते हैं? क्या आपकी दी गई वर्ल्ड क्लास ट्रेन से लौटें या प्राइवेट जेट की व्यवस्था है? क्योंकि कई बार इनको इनकी आरक्षित सीटों पर ही सीट नहीं मिलती है।

मैं जानता हूं कि इनकी वेदना, इनका दुख, इनकी सफरिंग हमारे महानतम देश की महान छवि पर एक दाग जैसी दिखती है, इसे हटा देना ही समझदारी होगी। देखिये, मीडिया कितनी ईमानदारी से इस काम में जुट गई है। देश में प्रोटेस्ट हो रहे हैं, मीडिया नहीं है, इन चीखती पुकारों के लिए कोई कैमरा नहीं है। देशभक्त मीडिया ने खुद को अपने न्यूज़रूम में कैद कर लिया है। आपके आगे हिंदू मुस्लिम डिबेट की बिरयानी परोस दी है, जमकर खाइए, कोई कमी नहीं है, खाइए, डकार लीजिए और मुंगेरी लाल के हसीन सपनों का मज़ा लीजिए। बस गलती से भी मंडी हाउस मत चले जाइयेगा।

अब जब आपको यह लोग ही नहीं दिखेंगे, तो 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाने का तो सवाल ही नहीं उठेगा ना। है ना मास्टरस्ट्रोक?

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