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“सोशल मीडिया पर आपके कमेंट्स दिखाते हैं महिलाओं के प्रति आपकी असली सोच”

हमारा वेद शास्त्र कहता है,

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।

यह सोचकर बहुत दुख होता है कि ना जाने कितने ही बार विदेशियों ने हमारे देश पर आक्रमण किए लेकिन तब उतना पतन नहीं हुआ, जितना पतन पिछले 70 सालों में हमारी शिक्षा व संस्कारों में हुआ है।

99% घटनाओं की शिकायत पुलिस में होती ही नहीं है

पता नहीं हम सृजनात्मक प्रगतिशील हो रहे हैं या विनाशकारी प्रगतिशील। किसी राष्ट्र की प्रगति/विकास/सभ्यता का मापदंड इससे होता है कि उस राष्ट्र में नारी का कितना सम्मान होता है। जिस राष्ट्र को हमारे यशस्वी मनीषियों ने “माँ” (भारत माता) की संज्ञा दी थी, उस राष्ट्र में नारी सम्मान के प्रति इतनी उदासीनता क्यों है?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2017 में 32.5 हज़ार से अधिक मामले धारा 375-376 (दुष्कर्म) के मामले दर्ज़ हुए और वहीं राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) का कहना है कि यौन-हिंसा की 99% घटनाओं की शिकायत पुलिस में होती ही नहीं है। वर्ष 2017 में बलात्कार से लंबित मामलों के न्यायिक निपटारे की दर 32% से कुछ अधिक रही। कमोबेश यही स्थिति प्रत्येक वर्ष की है।

इसमें कोई दो मत नहीं कि यदा-कदा नारी-सशक्तिकरण के संदर्भ  में मानवता को शर्मसार कर देने वाली यौन- हिंसा के रोकने की चर्चा सामाजिक, प्रसाशनिक व विधायिक स्तर पर होती रहती है।

कभी अपराधियों को चौराहे पर फांसी देने या पीटकर मार देने की मांग की जाती है, तो कभी महिलाओं पर कमोबेश पाबंदी की सलाह देता है। कुछ लोग नशे, फोन, कपड़े आदि पर भी दोष मढ़ते हैं।

ऐसी बातें समाज के ना केवल पढ़े-लिखे/अनुभवी या अनपढ़ ही करते हैं बल्कि ये बातें राष्ट्र की एकता और अखंडता का नेतृत्व कर रहे भूतपूर्व/पूर्व/ वर्तमान सांसदों, विधायकों, नेताओं व पुलिसकर्मियों के मुंह से भी सुनाई देती है। ऐसा हर बार होता है, जब किसी नृशंस अपराध पर देश क्रोधित हो उठता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

 जांच व न्याय प्रक्रिया की खामियों को ठीक करने की ज़रूरत

आज अपवाद स्वरूप ही कोई ऐसा दिन हो, जिस दिन मीडिया (चाहे मीडिया का कोई स्वरूप क्यों ना हो जैसे, ऑडियो, विजु़अल या प्रिंट मीडिया) में दुष्कर्म/ सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं सुनने, देखने और पढ़ने को ना मिले।

अतः इसमें कोई संशय नहीं कि लगातार होती घटनाओं को देखते हुए बलात्कार के विरुद्ध व्याप्त रोष एवं क्षोभ स्वाभाविक है लेकिन इस संदर्भ में समाज के बुद्धिजीवी (पढ़ेलिखे/अनुभवी) महिला- पुरुषों, जनप्रतिनिधियों, प्रशासनिक अधिकारियों को ठहरकर इस आपराधिक समस्या पर परस्पर विचार विमर्श करने की आवश्यकता है। ताकि जनमानस की मानसिकता बदले और जांच व न्याय प्रक्रिया की खामियों को आवश्यकतानुसार तुरन्त ठीक किया जा सके।

आज समाज मे महिलाओं के प्रति नकारात्मक और आपराधिक सोच में बदलाव एक सामाजिक प्रक्रिया बनाने की ज़रूरत है क्योंकि महिलाओं की आवाजाही पर अंकुश लगाकर या उनके भीतर अपराध भावना भर देने से समाधान नहीं हो सकता है।

इन सबके बीच आश्चर्य और बड़े ही दुख की बात यह है कि इस संदर्भ में अभी तक कोई ठोस सुधार देखने को नहीं मिल रहे, जो हम पुरुष समाज के लिए एक कलंक की बात है।

आरोप सिद्ध होने पर फांसी हो

दिन-ब-दिन स्थितियों में सुधार की जगह क्रूरता बढ़ती ही जा रही है। रोज़ प्रिंट मीडिया व अन्य माध्यम से मानवता को शर्मसार करती सामूहिक दुष्कर्म की वीभत्स घटनाएं मानव समाज को कलंकित कर रही हैं। इसे रोकने के लिए अविलम्ब प्रशासनिक व न्यायिक सक्रियता को तीव्र करने होंगे, दोषियों को अविलंब कठोरतम दण्डित सुनिश्चित किए जाएं। दोष प्रमाणित होते हैं तो दोषियों को अविलम्ब फांसी दी जाए। दिनकर जी लिखते हैं,

कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का

दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;

“मतिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक शस्त्र हीं है?”

पूछा था कोमलमना वाम ने।

नहीं प्रिये, “सुधार  मनुष्य सकता है तप, त्याग से भी,”

उत्तर दिया था घनश्याम ने,

“तप का परन्तु, बस चलता नहीं सदैव

पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।”

इस संदर्भ में तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस कृति में श्रीराम और बाली के बीच के संवाद को लिखा है ;

किष्किंधापति बाली श्रीराम से कहते हैं ;

मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।

अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥

भावार्थ:-हे गोसाई, मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ, किस दोष से आपने मुझे मारा? श्रीराम कहते हैं,

अनुज बधू भगिनी सुत नारी।

सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।

ताहि बधें कछु पाप न होई॥

भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे मूर्ख सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता

मेरा मानना है कि इस तरह के नृशंस कृत्य अमानवीय हैं अतः इसके लिए दोषियों को भी कठोरतम दंड अविलम्ब दी जाएं, परन्तु यह महज़ अल्पकालिक समाधान ही होंगे। दीर्घकालिक समाधान के लिए प्रशासनिक व न्यायिक सक्रियता के साथ आमजन को भी समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर उसे निर्वहन करने होंगे, क्योंकि सामाजिक स्तर पर छोटे छोटे सुधार मानवता को सुनिश्चित कर सकते हैं।

नारी सम्मान के साथ-साथ अपने कर्तव्य निर्वहन करने होंगे

समाज में छुपे अदृश्य कुसंस्कारों को बीच चौराहे पर लाकर पुरुष समाज में उसे आत्ममंथन का विषय बनाना होगा। समाज के प्रत्येक नागरिकों को नारी सम्मान के प्रति जागरूता के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन करने होंगे। नारी सम्मान के संदर्भ में  समाज/परिवार मे व्यप्त छोटी से छोटी विसंगतियों पर भी त्वरित विरोध कर दोषी को दण्डित करने होंगे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे कुपात्रों की संख्या अभी बहुत कम है, अतः यदि इन सन्दर्भों पर पुरुष समाज अपने व अपने से जुड़े लोगों के साथ व्यापक विचारविमर्श व चर्चा करें कि,

तो इस समस्या का निदान बहुत हद तक सम्भव भी है। यदि कुछ मुट्ठी भर समर्थवान/सक्षम/सम्भ्रान्त समाज को लगता है कि “हम सुरक्षित हैं, जो हो रहा है होने दो, हमारा क्या, जो हुआ सो हुआ” तो हम उन लोगों से बस यही कहना चाहेंगे कि अभी वक्त है, ऐसे कुपात्रों की संख्या कम है (हो सकता है कि इन कुपात्रों में आपके अपने समकक्ष व आपके बच्चे भी हों)।

समय रहते उन्हें नारी-सम्मान की नैतिकता का पाठ समझाएं, सम्मान करना सिखाएं नहीं तो राहत इंदौरी का एक बहुत ही मशहूर शेर है,

लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पर सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।

सोशल मीडिया पर नारी गरिमा का मखौल उड़ाते लोग

वास्तविक समाज में तो अभी ऐसी प्रवृतियां कुछ कम हैं, क्योंकि समाज मे अच्छे लोगों की भी कमी नहीं, वे ऐसी घटनाएं देखते हैं, बड़ी निष्ठुरता से विरोध भी करते हैं, मगर सोशल मीडिया? सोशल मीडिया में तो अब नग्न-नृत्य सा होने लगा है।

Representational image.

किसी जान/अनजान महिला की सोशल मीडिया पोस्ट दिखी नहीं कि कुछ युवा/अधेड़ पुरुष समाज नारी गरिमा को तार-तार करने वाले असभ्य/ओछे किस्म की अशोभनीय प्रतिक्रिया करने लगते हैं।

ऐसा लगता है कि ऐसी प्रतिक्रिया करते समय वे भूल जाते हैं कि उसकी जननी भी एक महिला ही है। हम कुछ मुट्ठी भर महिलाओं के शीर्ष पर पहुंचने भर से नारी सशक्तिकरण की सकारात्मकता को नहीं मान सकते। इसमें कोई शक नहीं कि आज भी महिलाओं का अकल्पनीय वृहत समाज पुरुष समाज द्वारा उपहास, तंज, अन्याय, शोषण आदि का दंश झेलने को मजबूर हैं।

कुछ सफेदपोश पुरुष समाज ऐसे भी हैं जो “नारी तू नारायणी” कहकर अप्रत्यक्ष रूप से नारी-शोषण करने का सर्टिफिकेट ले लेते हैं तो कुछ लगभग हर रोज़ हो रहे नारी अस्मिताओं को तार-तार कर देने वाली घटनाओं पर अपनी राजनीतिक रोटी सेकते नज़र आते हैं और अपनी छवि चमकाते हैं।

#MeToo जैसे मूवमेंट ने खोली महिला सुरक्षा की पोल

आज के स्वार्थी बिकाऊ बाज़ारवाद ने न्यायिक/प्रशासनिक प्रक्रिया को भी नहीं छोड़ा है। अब समूचा प्रसाशनिक व न्यायिक प्रक्रिया जैसे दो भागों में बंट गया है, जो सामर्थवानों के लिए अलग रवैया अपनाती है और वंचितों के लिए अलग। मतलब अमीरों के मामलों में तुरंत एक्शन व गरीबों के मामले में वही ढुलमुल रवैया।

हाल हीं में  #MeToo मूवमेंट के अंतर्गत कई मामले आए उनमें से एक मामला केंद्र सरकार के एक मंत्री का आया जो भारत सरकार की तरफ से विदेश यात्रा पर नारी उत्थान के संदर्भ में बड़ी उदारता से ज्ञान बघार रहा था और यहां उसका वर्षों से शोषण झेल रही एक महिला ने उसके विरुद्ध आवाज़ उठाई।

पिछले दशकों से मध्यम वर्ग की महिलाएं भी समाज मे निहित रूढ़िवादी विचारधारा को तोड़कर बड़े शहरों में पढ़ाई करने जाने लगी हैं क्योंकि वो भी आत्मनिर्भर होकर अपनों, अपने समाज व अपने राष्ट्र के लिए कुछ करना चाहती हैं। इस संघर्षों के दौरान जब उसके साथ शोषण/अन्याय होता है तो वह सामाजिक भय या किसी अन्य कारण से किसी से साझा भी नहीं कर सकती और अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं।

बेशक, यदि पुरुष समाज महिलाओं के प्रति सहयोग, समन्वय, सम्मान, समानता, शुचिता, सकारात्मक सम्प्रेषण, समुचित मार्गदर्शन की भावनाओं का त्याग करदे तो महिलाओं का जीना दूभर हो जाएगा। सभी चौक-चौराहे पर पुलिस चौकियों खोले जाएं, क्यों ना जगह-जगह पर कोर्ट कचहरी खोल दिये जाएं। जब तक पुरुष समाज की सोच में परिवर्तन नहीं होगा, तब तक इस समस्या का समुचित समाधान असम्भव है।

 सोशल मीडिया पर मर्यादा भूलने वाला समाज

सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइट्स ने जहां हमारे जीवन को सुगम बनाया, वहीं परेशानी का सबब भी बना, यानी यह माध्यम जितना सुविधा सम्पन्न है उतना ही विनाशकारी भी। हालांकि यह हमारे उपयोग पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार उसका उपयोग करते हैं।

आजकल चाहे वे पुरुष हो या महिलाएं, जैसे ही उनके सोशल मीडिया पोस्ट में  वैचारिक विरोधाभास दिखता है, एक विशेष लम्पट प्रवृत्ति के युवा/अधेड़ भद्दी-भद्दी अशोभनीय प्रतिक्रिया देने शुरू कर देते हैं, वह भी बिना उन्हें जाने पहचाने।

कई बार पोस्ट में प्रतिक्रिया को देख/पढ़कर तो मानवता भी शर्मसार हो जाती है। ऐसा नहीं कि ऐसी प्रतिक्रियाएं केवल पुरुष ही नहीं करते हैं, इनमें महिलाएं भी ज़्यादा पीछे नहीं हैं। जबकि वैचारिक विविधता सृजनात्मक समाज की रीढ़ हैं, उसे सामंजस्य स्थापित कर अपनी बात/विचार मर्यादित शब्दों में रखने के बजाय गालियों की बौछारें करने लगते हैं।

हो सकता है कि हम उस विचार से सहमत ना हों लेकिन आलोचनाओं का लिए भी मर्यादाएं हैं। अगर हम बिना गाली के आलोचना नहीं कर सकते तो हमारा शिक्षित होना क्या बेकार नहीं है? हमें बिना अमर्यादित शब्दों गाली-गलौज के प्रतिवाद, विरोध, असहमति, आलोचना करने की कला सीखनी चाहिए।

हमें राजनीतिक/अन्य वैचारिक आलोचना करनी हो तो शौक से करें, हम सब कुछ कह सकते हैं। मेरा निवेदन केवल भाषा और अभिव्यक्ति की मर्यादा का ध्यान रखने के लिए है, विशेष तौर पर स्त्रियों की मर्यादा। यदि महिला भी असभ्य भाषा का प्रयोग करे तो हमें और भी ज़्यादा सभ्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। एकबार करके देखिए, अपने अनुभव से बता रहा हूं इसका असर होता है।

छद्म प्रगतिशील बाज़ारवाद और न्यायिक निष्क्रियता

बड़ी विडम्बना है कि आज पूंजीवादी विकास ने हमारी सभ्यता/संस्कृति को कहीं का नहीं छोड़ा, छद्म प्रगतिशील बाज़ारवाद ने हमारी जीवनशैली को इतनी तेज़ रफ्तार से गतिशीलता दी है कि अधिकतर लोगों को अपने किये पर चिंतन करने की फुर्सत नहीं। हर जगह हर पल एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ ने हमारे जीवन को यंत्रवत कर दिया है। इस प्रगति ने हमारी सभ्यतावादी संस्कार को बहुत हीं पीछे छोड़ दिया है।

इस तरह के अपराधों का मुख्य कारण प्रसाशन का ढुलमुल रवैया और न्यायिक निष्क्रियता है, जिससे गुनहगारों में खौफ नहीं रहता है। मुझे शर्म आती है, यह बताते हुए की दिसम्बर 2012 में घटी निर्भयाकांड के गुनहगारों को आज (जून2019) तक फांसी में नहीं लटकाया गया है, न्यायिक निष्क्रियता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा ?

जबकि हाल ही में घटित हैदराबाद की घटनाओं में जब प्रशासन ने मुठभेड़ में चारों दोषियों पर त्वरित कार्रवाई की तो इसपर भी सवाल उठ रहे हैं। बेशक दण्ड के प्रावधान न्यायिक होने चाहिए थे परंतु अभी भी हज़ारों हज़ार मामले न्यायालय में धारा 375 / 376 के अंतर्गत लंबित हैं, क्या अगले एक माह के अंदर न्यायिक सक्रियता को बड़ा कर सभी दोषियों को फांसी दी जाएगी।

नहीं, ऐसा कतई सम्भव नहीं है लेकिन हमारी लोकतांत्रिक सरकारों को अपार जनमानस की भावनाओं को ध्यान में रखकर न्यायिक सक्रियता सुनिश्चित करनी ही होगी।

न्यायिक दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रूरत

यदि अन्य मामले में रातों को भी न्यायपालिका न्याय के लिए दरवाजे खोल सकती हैं। अवकाश में भी सुनवाई हो सकती है, तो न्यायपालिका में एक अलग व्यवस्था सुनिश्चित कर आने वाले दिनों में सभी दोषियों को फांसी पर लटकाया जा सकता है, ऐसा सम्भव है परंतु इसके लिए लोकतांत्रिक व न्यायिक दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रूरत होगी।

अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का साहस इंसाफ की राह में उठाया गया शुरुआती कदम होता है, इस आवाज़ को मिलने वाले समर्थन से तय होता है कि समाज आज भी कितना इंसाफ पसंद है।

कार्यस्थल/सार्वजनिक स्थल पर अपमान व घुटन का अनुभव करने वाली महिलाओं की एक बड़ी आबादी सामाजिक लांछन और अन्य आकांक्षा से चुप रहती आई है लेकिन अब मुकरता का दौर है, जिससे लैंगिक समानता की दिशा में संभावनाओं के नए द्वार खुल रहे हैं।

लैंगिक समानता और न्याय के लिए दीर्घ-कालिक प्रयास ज़रूरी है। समाज में जागरूकता के साथ संस्थानिक प्रणाली के व्यापकता को सुनिश्चित करने की चुनौती है, इसके लिए महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की गारंटी के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए।

शर्म की बात है कि आखिर कब तक हम विजयादशमी के अवसर पर रावण के झूठे पुतले को जलाकर आत्मसंतुष्टि का स्वांग रचते रहेंगे?

इतिहास गवाह है, हर युगों में जब-जब सामाजिक परिवर्तन या विषम परिस्थितियों का दौर आया है, तब-तब युवाओं ने ही बढ़-चढ़कर वंचित पीड़ितों का नेतृत्व कर समाज को एक नई दिशा दी है।

आज इस विस्मयकारी परिस्थितियों में हम युवाओं का बहुत हीं बड़ा उत्तरदायित्व है कि हम कैसे एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहां  हमारे समाज (वसुधैव कुटुम्बकम) की महिलाएं निशंक स्वच्छंद अपनी प्रतिभा का चर्मोत्कर्ष कर समाज/राष्ट्र को नई दिशा देने में कहीं भी हमसे पीछे ना रहें।

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