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“क्या राम चबूतरे को खिसकार बाबरी मस्जिद के अंदर स्थापित किया गया था?”

राम जन्मभूमि

राम जन्मभूमि

अल्लामा इकबाल ने कहा था ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ लेकिन ऐसा कोई मज़हब वजूद में नहीं है। आज तो मज़हब में बारूद और माचिस की कमी नहीं है। इस्लाम को तो लेकर एक खास धारणा का वैश्विक निर्माण ही किया गया है। ठीक वैसे ही जैसी कैफियत शताब्दी भर पहले यहूदियों को लेकर यूरोप और उनके तमाम उपनिवेश में देखी गई।

एक धर्म कुसूरवार है तो दूसरे दूध के धुले नहीं

दुनिया को शांति का उपदेश देने वाले बौद्ध धर्म के अनुयाईयों ने रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो किया था, उसे जगत जानता है। सच तो यह है कि मुसलमानों पर रहम की नज़र रखने से पहले हम पूर्वाग्रही चश्मे को चढ़ाना और प्रचलित मत के प्रभाव से मुक्त होकर स्थितियों को देखना पसंद नहीं करते। इसलिए हमारे चश्में और प्रचलित मत के प्रभाव में मुसलमान ही समस्या की वजह हैं।

रोहिंग्याओं के साथ जो हुआ यदि वह उचित भी है, तो श्रीलंका में दशकों से चले आ रहे सिंहला बौद्धों की बर्बरता को किस सन्दर्भ में लेंगे? अध्ययन करने पर पाएंगे कि वहां पीड़ित तमिल थे जिनमें बहुसंख्यक हिंदू हैं। इसका यह मतलब यह नहीं कि बर्बरता से कोई भी धर्म अछूता है मगर सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इस्लाम को अपवाद मानें तो बर्बरता में शरीक सारे गुनाहगारों ने अपने हाथों को साबुन से रगड़ना नहीं भूला।

22 दिसंबर 1949 की रात क्या हुआ?

फोटो साभार- Getty Images

अल्लामा इकबाल से असहमत होने की बहुतेरी वजह नज़र आती हैं। राम जन्म स्थान के तौर पर राम चबूतरे को पूजा जाता था लेकिन 22 दिसंबर 1949 की रात राम चबूतरे को खिसकाकर बाबरी मस्जिद के भीतर स्थापित किया गया, जिसे अंजाम देने में निर्मोही अखाड़ा के महंत और हिंदू महासभा के सदस्य अभिराम दास अन्य साथियों के साथ अग्रणी थे।

इस कुटिल साज़िश के ज़रिये अपने सांप्रदायिक एजेंडे के तहत वास्तविक जन्मस्थल पर राम लला के प्रकट होने का दावा किया गया। यानी मनुष्य अपने ही तरह अपने ईश्वर की भी संरचना करता है, क्योंकि बचपन से ही सुनता आया हूं कि सारा ब्रह्माण्ड ईश्वर की संरचना है। अब सवाल यह है कि सब ईश्वर की संरचना है, तो मनुष्यों की तरह सम्पति लोभ जैसी प्रवृत्ति ईश्वर के भीतर कैसे उत्पन्न हो सकती है?

सर्वोच्च न्यायालय जब आस्था पर सवाल उठाने की हिमाकत नहीं कर सकता, तो मैं महज़ इस देश का अदना सा नागरिक होने की कैफियत रखता हूं।

जिन वैचारिक हाथों ने गाँधी की हत्त्या में निर्णायक भूमिका निभाई थी, उसी ने गाँधी के मरणोपरांत ना सिर्फ अपनी पतनशीलता से बाहर निकलने के लिए राम के नाम का इस्तेमाल किया, बल्कि इन्होंने ही धर्मनिरपेक्ष भारत के ढांचे को ज़मींदोज किया, ताकि हिन्दू राष्ट्र की ज़मीन तैयार हो। जिस साम्प्रदयिक विचारधारा की बंदूक से गाँधी की हत्या हुई थी, कहीं ना कहीं आज उस बंदूक को वैधता मिलती दिखाई दे रही है।

22 दिसंबर के षड्यंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका कितनी दोषी?

बाबरी मस्जिद। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही कि काँग्रेस ने ही ऐसी साम्प्रदयिक ज़मीन तैयार कर हिन्दू महासभा के हाथों में सौंप दी। ज्ञात हो कि 1949 में अयोध्या के बाई-पोल चुनाव में संयुक्त प्रांत के मुखिया गोविंद वल्लभ पंत ने समाजवादी आचार्य नरेन्द्र देव को हराने के लिए हिन्दू कार्ड खेला था।

बाबा राघव दास जैसे उम्मीदवार ने तमाम धर्मिक अपील के ज़रिए काँग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि का बंटाधार कर दिया था। उस चुनाव में राघव दास ने प्रत्यक्ष रूप से हिन्दू महासभा और तमाम सांप्रदायिक शक्तियों को सुदृढ़ करने में अपनी उपयोगिता साबित की थी।

राघव दास ने मस्जिद में गैरकानूनी रूप से स्थापित प्रतिमाओं को हटाने के प्रस्ताव के खिलाफ जाकर विधायक पद से इस्तिफा देने की पेशकश की थी। राघव दास के ऊपर गोविंद वल्लभ पंत की सरपरस्ती थी तो पंत के उपर पटेल की।

1949 में साज़िशन मस्जिद के भीतर बुतों को स्थापित करने का उद्देश्य ही दो राष्ट्र के सिद्धांत पर निर्मित धार्मिक राष्ट्र पाकिस्तान के बरअक्स हिंदुस्तान में भी धर्मनिरपेक्ष राज्य की जगह हिन्दू राष्ट्र का निर्माण कर इस साम्प्रदायिक विचारधारा की पुष्टि करना ही रहा होगा।

22 दिसंबर के षड्यंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका ने साम्प्रदयिक तत्वों के साथ हाथ मिलाकर इस साज़िश को मंज़िल तक पहुंचाया था। फैज़ाबाद ज़िले के डीएम के.के. नैय्यर ने हिन्दू महासभा के सदस्य और वैरागियों की ना सिर्फ इस साजिश में सहायता की, बल्कि अपने योगदान के ऐवज़ में फैज़ाबाद ज़िले में अपार ज़मीन भी प्राप्त की।

22 दिसंबर 1949 के बाद केंद्र सरकार ने राज्य सरकार पर मूर्तियों को हटाने का दबाब बनाया। तब नैय्यर साहब ही थे जिन्होंने सुनिश्चित किया कि किसी भी कीमत पर अवैध रूप से कब्ज़े में ली गई मस्जिद से मूर्तियां ना हटाई जाए।

असल में नैय्यर साहब की पत्नी शकुन्तला नैय्यर उस दौरान हिन्दू महासभा की सदस्य थीं। 1952 में भारत के पहले आम चुनाव में शकुन्तला नैय्यर हिन्दू महासभा के टिकट से जीतकर लोकसभा की सदस्य चुनी गईं। बाद में नैय्यर साहब भी हिन्दू महासभा की राजनीतिक उत्तराधिकारी भारतीय जनसंघ के टिकट से जीतकर लोकसभा के सदस्य चुने गए।

षड्यंत्र के अहम सुबूत

फोटो साभार- सोशल मीडिया

23 दिसंबर 1949 की सुबह अभिराम दस और उनके सहयोगियों के नाम एफआईआर रिपोर्ट में दर्ज़ थे। उन लोगों के बयान भी शामिल थे, जो स्वयं इस षड्यंत्र के सूत्रधार थे। भीड़ को बाबरी मस्जिद की तरफ खींचने के उद्देश्य से 23 दिसम्बर की सुबह अखिल हिन्दू रामायण महासभा द्वारा राम लला के प्रकट होने के दावा किया गया।

इसे सच साबित करने के लिए आम जनमानस में पर्चों का वितरण हुआ। अयोध्या में मूर्ति स्थापित करने से पहले बनाई गई तनावपूर्ण स्थितियां आदि सुबूत से कम हैं क्या?

यह बात भी विचारणीय है कि उस वक्त काँग्रेस के दो धड़े प्रगतिशील थे। एक का नेतृत्व नेहरू कर रहे थे तो रूढ़िवादी धड़े की कमान पटेल के हाथों में थी। उनके बीच सत्ता में अत्यधिक नियंत्रण हेतु शीत युद्ध जारी था, जिसने अयोध्या मसले को उलझाने में अपनी अहम भूमिका निभाई। पटेल के करीबी गोविंद वल्लभ पंत ने ही उस सांप्रदायिक ज़मीन का निर्माण किया था, जिसका फायदा हिंदू महासभा ने उठाया था।

काँग्रेस के उम्मीदवार राघव दास जैसे लोगों ने हिन्दू महासभा से नज़दीकियां बढ़ाई। इन नज़दीकियों ने संप्रदायिकता का उपयोग चुनाव में जीत हासिल करने के उद्देश्य से किया, जो पटेल की मौन सहमति के बगैर सम्भव नहीं था। पटेल की सत्ता पर अधिक से अधिक पकड़ बने, इसलिए समाजवादी मुल्यों पर रूढ़िवाद का विजई होना आवश्यक था।

पीयूष बाबेल की किताब “नेहरू मिथक और अयोध्या डार्क नाइट” के मुताबिक बाबरी मस्जिद के भीतर मूर्तियां रखे जाने के तुरंत बाद नेहरू ने संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को तार भेजकर हालात की जानकारी ली। उन्होंने मुख्यमंत्री से फोन पर भी बात की।

नेहरू को तभी भविष्य की तस्वीर दिखाई दे रही थी। उन्होंने कहा था कि हम गलत नज़ीर पेश कर रहे हैं। इसका सीधा असर पूरे भारत और खासकर कश्मीर पर पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा था कि हम हमेशा के लिए एक फसाद खड़ा कर रहे हैं। नेहरू जो कह रहे थे, उसे हमने बाद में सही होते देखा।”

मुस्लिम दलों का रवैया

शेख अब्दुल्ला। फोटो साभार- सोशल मीडिया

गौरतलब है कि शेख अब्दुल्ला उस दौरान जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री थे और कश्मीर की अवाम नेहरू के दिए गए आश्वासनों के तहत जनमत संग्रह का इंतज़ार कर रही थी। शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के स्वयंसेवकों ने ही कश्मीर में विभिन्न धार्मिक समुदायों के दरमियान बटवारे के पशमंजर में अमन और सौहार्द कायम किया था। उस वक्त पूरे देश में आग की लपटें उठ रही थीं। 

बंगाल और पंजाब जल रहे थे। 1947 में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित कबीलाई हमले में भी शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस के स्वयंसेवकों ने प्रशासन की बागडोर हाथ में लेकर भारतीय सेना की मदद की थी। उस वक्त महाराजा हरि सिंह के रियासत का प्रशासन भय से अपने हाथ खड़े कर चुका था। शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर का भविष्य एक मुसलमान राष्ट्र पाकिस्तान के बनिस्बत समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के ढांचे पर खड़े भारत मे अधिक सुरक्षित देखा। 

लेकिन इस बात का अंदेशा भी था कि भारत में जब संप्रदायिक तत्व सर उठाएंगे तब वह भी पाकिस्तान की तरह बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्र बन जाएगा और एक हिन्दू राष्ट्र में कश्मीर का क्या भविष्य होगा? 

यही से शुरुआत हुई उस ख्याल की जिसने शेख अब्दुल्ला को एक आज़ाद कश्मीर के बारे में सोचने को विवश किया। कश्मीर पर जिस प्रभाव का ज़िक्र नेहरू अपने पत्र में पंत से कर रहे थे, उसके केंद्र में अयोध्या ही था।

अयोध्या के संदर्भ में पुस्तक “अयोध्या डार्क नाईट” के उन तमाम साक्ष्यों की कड़ियों को आपस में जोड़ने पर एक बड़ी तसवीर उभर कर आती है। अयोध्या में जिस तरह से 22 दिसंबर की रात को खामोशी का सहारा लेकर मूर्तियों को रखकर राम लला के प्रकट होने के दावे किए गए, वह आस्था के निर्माण पर सवाल खड़ी करती है।

सवाल तो ये भी खड़े होते हैं कि मानव जाति में व्याप्त अगल-अलग धर्मों की बुनियाद क्या इसी तरह रखी गई होगी? क्या तर्क और ज्ञान की हत्या कर मज़हब का सृजन विश्वास पर आधारित एक अंधी भीड़ तैयार करना है? मज़हब में प्रचलित मत इसी बात का प्रतिपादन करते हैं कि हमारा मज़हब दूसरों से सर्वश्रेष्ठ है। बस यहीं से दूसरे मत के अनुयाईयों से नफरत एवं अलगाव की प्रक्रिया को सहज बना दिया जाता जाता है। 

इसलिए अल्लामा इकबाल की बात ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ धर्मों के बदरंग चेहरे को ढककर धर्म का मानवीकरण करने का प्रयास है, जिसका विफल प्रयास गाँधी ने किया भी था। जिसकी परिणिती उन्हीं गोलियों से हुई जिसके गांधी सबसे पड़े पैरोकार थे।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य कृष्णा झा और धीरेन्ध्र कुमार झा की किताब “अयोध्या: द डार्क नाइट” से लिए गए हैं।

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