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“लैंगिक समानता की बात कब करेगा हमारा यह पितृसत्तात्मक समाज?”

महिलाएं

महिलाएं

भारतीय संस्कृति के मुताबिक कहा जाता है कि हमारे यहां नारी की पूजा होती है। देश को भी हम भारत माता कहकर पुकारते हैं। ऐसे में हर कोई सोचता होगा कि ऐसे देश मे महिलाओ की स्थिति काफी अच्छी होगी लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। बड़े-बड़े शहरों में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। महिलाओं के मुद्दों के बारे में कभी सोचा ही नहीं जाता है।

हैदराबाद रेप और मर्डर केस की खबर सबके ज़हन में है। इस बीच रेप की कई और घटनाएं न्यूज़ चैनलों के ज़रिये सुनने को मिलीं। यदि उत्तराखंड की बात की जाए तो वहां निर्भया फंड का आधा बजट भी खर्च नहीं किया गया है।

अब सोचिए कि इस भारत देश में जिन्हें माता कहकर पुकारा जाता है, जहां नारी की पूजा होती है, वहां आज कल एक महिला को उसके साधारण जीवन जीने के लिए कराटे सीखने पड़ते हैं। सबसे भयावह कि एक महिला को साधारण जीवन जीने के लिए भी एक मोबाइल एप्प की आवश्यकता होती है।

भारतीय महिलाओं का सही मायनों में सशक्तिकरण तब होगा जब वे आर्थिक, वैचारिक, मानसिक (निर्णय लेने की स्वतंत्रता) स्वतंत्रता पा लेंगी, क्योंकि इस पितृसत्ता ने एक महिला को इन्हीं आधारों पर शोषित किया है।

पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं के शोषण की वजह

प्रतिकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

अधिकांश महिलाओं की बचपन से परवरिश ही इस तरह की जाती है कि उन्हें घरेलू सामंजस्य या रीति रिवाज़ के नाम पर ज़िंदगी भर बस सहन करते रहना है। महिलाएं घरेलू हिंसा को भी अपनी नियति मानकर खामोशी से सहन करती चली जाती हैं। कई बार तो महिलाओं को यह एहसास भी नहीं होता कि कैसे यह पितृसत्तात्मक ताकतें उनका शोषण कर रही हैं और उस शोषण को वे अपना कर्तव्य या मजबूरी समझ लेती हैं।

बचपन से ही एक छोटी लड़की को पराई वस्तु की तरह देखा जाता है और बचपन से उन्हें घर के कामों में धकेल दिया जाता है। यह तो हम देखते ही हैं कि एक छोटे बच्चे (लड़के) को खिलौने में एक कार दिया जाता है और एक बच्ची को गुड़िया। यह भेदभाव बचपन से उनको इनके कार्य निर्धारित करवा देते हैं।

संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों द्वारा स्त्री आज भी महज़ देह ही मानी जाती है, इंसान नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो जितनी भी गालियां हैं, वे सिर्फ माँ-बहन की गालियां नहीं होती जिनमें स्त्री के गुप्तांगों की शब्दों से तौहीन की जाती है। स्त्री घर की इज्ज़त होती है तो किसी भी व्यक्ति को नीचा दिखाने के लिए उनकी इज्ज़त (स्त्री) के बारे में कुछ भी गलत कह दीजिए।

बलात्कार की घटनाओं को एकदम खत्म करना मुश्किल है लेकिन इसमें कुछ हद तक कमी धीरे-धीरे लाई जा सकती है। यदि हम महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ पुरुष मानवीयकरण के लक्ष्य को भी सामने रखें।

सोशल मीडिया और महिला

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

सोशल मीडिया की वजह से महिलाओं का और लड़कियों का बहुत बुरा हाल है। पहले तो समाज में सोच बन चुकी है कि लड़कियों को फोन नहीं देना है, बिगड़ जाती हैं। जो लडकियां या महिलाएं सोशल प्लैटफॉर्म पर होती हैं उन्हें भी काफी डर होता है और कई बार उनके साथ दूर्वव्यवहार भी होता है। कई बार कुछ लोगों द्वारा लड़कियों के फोटोज़ का गलत फायदा उठाया जाता है।

असल मे महिलाओं की स्थिति में सुधार केवल कानून बनाने या रेप की संख्या में कमी लाने से नहीं होगा, बल्कि समाज में लैंगिक समानता की बात करनी होगी। आज महिलाओ की जो स्थिति है, इसके पीछे मुख्यतः पितृसत्तात्मक सोच है जिसने महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों के साथ भी बराबरी से शोषण किया है, क्योंकि इसने समाज में ऐसी धारणाएं बना दी कि एक पुरुष ही हमेशा कमाकर लाएगा और खिलाएगा। भाई ऐसा क्यो?

अगर महिलाओ की अच्छी स्थिति आपको लानी है, तो कृपया कर उन सब सामाजिक रूढ़ियों को त्याग दीजिए जिसमें लैंगिक भेदभाव हो। ऐसे नियमों को त्यागने के बाद ही हम एक ऐसा समाज बना पाएंगे जिसमें सबको एक ही चश्मे से देखा जाएगा।

नारीवाद के आने के बाद महिलाओं ने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की है। बहुत बेहतरीन बदलाव आए हैं लेकिन अभी वह स्तिथि नहीं आई है कि सबको एक नज़रिए से देखा जाने लगे। हाल ही में सोशल मीडिया पर #MeToo आंदोलन चलाया गया, जिसमें दुनियां के हर कोने से महिलाओं ने अपनी आवाज़ बुलंद की।

आप सभी से एक ही आशा है कि उन सब सामाजिक बेड़ियों को तोड़ दीजिए जिसमें कहीं भी लैंगक आधार पर भेदभाव की बातें हों। किसी ने यह बिल्कुल सही कहा है कि अगर अपनी माँ और बहन को सुरक्षित और एक आम इंसान की तरह देखना है, तो आपको नारीवादी होना पड़ेगा।

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