Site icon Youth Ki Awaaz

“इस सत्ता द्वारा स्टूडेंट्स के आंदोलनों को क्यों कुचला जा रहा है?”

अभी कुछ दिन पूर्व ही जब जेएनयू के स्टूडेंट्स पिट रहे थे, तब सभी चुप थे। दिल्ली पुलिस ने एक नेत्रहीन स्टूडेंट को लाइट बंद करके मारा था, तब भी सब खामोश थे। आज जामिया मिल्लिया इस्लामिया के स्टूडेंट्स भी पिटे हैं फिर भी सब शांत हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) दिल्ली और कानपुर के कृषि विश्वविद्यालय में भी ठीक ऐसा ही काम चल रहा है। यहां पर फर्क इतना है कि इधर के स्टूडेंट्स पिट नहीं रहे हैं बस। बाकी सब कुछ जस का तस! ना फीस कम हुई, ना कोई खास एक्शन लिया गया है और ना ही किसी को इन स्टूडेंट्स की सुध है। क्या आप जानते हैं कि वे स्टूडेंट्स क्यों पिट रहे थे? क्या आप जानते हैं इन सभी स्टूडेंट्स में समानता क्या है? ये सभी स्टूडेंट्स सस्ती शिक्षा के लिए संघर्ष और प्रदर्शन कर रहे हैं। मौजूदा वक्त में अंबेडकर की प्रासंगिकता बाबा साहेब अंबेडकर। फोटो साभार- Getty Images अभी कुछ दिनों पहले मैं देश के महान क्रांतिकारियों और महापुरुषों के बारे में पढ़ रहा था। इस दौरान बाबा साहेब अंबेडकर का एक कथन पढ़ा, जो उन्होंने 1956 में “भारत में लोकतंत्र के भविष्य” विषय पर एक चर्चा के दौरान कहा था, यदि आप भारतीय समाज के केवल उस हिस्से को शिक्षा देंगे, जिसका हित जाति व्यवस्था को बरकरार रखने में है तो इससे मिलने वाले लाभ से जाति व्यवस्था को मज़बूती मिलेगी। दूसरी ओर यदि भारतीय समाज के नीचे के हिस्से को शिक्षा देंगे जिसका हित जाति व्यवस्था को खत्म करने में है, तो जाति व्यवस्था खत्म हो जाएगी। जिस तरह अमीर को और अमीर बनाने और गरीब को और गरीब बनाने से गरीबी खत्म नहीं हो जाती, वही बात जातीय व्यवस्था को खत्म करने में शिक्षा को माध्यम की तरह इस्तेमाल करने के बारे में भी लागू होती है। जाति व्यवस्था को बरकरार रखने की चाहत रखने वाले लोगों को शिक्षा देना भारत में लोकतंत्र की संभावना में सुधार नहीं लाता बल्कि यह हमारे लोकतंत्र को बड़े खतरे में डालता है। 1927 में परिषद में हुई बॉम्बे यूनिवर्सिटी बिल बहस पर बोलते हुए अंबेडकर ने तर्क दिया था, "बैकवर्ड क्लास को यह समझ में आ गया है कि उनके लिए सबसे लाभकारी चीज़ शिक्षा है और इसके लिए वह लड़ सकते हैं। हमलोग भौतिक सुविधाओं को तो छोड़ सकते हैं लेकिन हमलोग उच्च शिक्षा से प्राप्त अधिकारों और अवसरों से मिलने वाले फायदे को नहीं छोड़ सकते हैं।" और पढ़ें: असम समझौते के उल्लंघन का नतीजा है आज का जलता हुआ असम अंबेडकर को इस बात में कोई शक नहीं था कि शिक्षा राज्य प्रायोजित होनी चाहिए ताकि वह सभी की पहुंच में हो। इसके साथ उन्होंने इसके व्यवसायीकरण का विरोध भी किया। जिस साल वह परिषद के सदस्य बने उसी साल सार्वजनिक शिक्षा के लिए अनुदान पर हुई बहस के दौरान उन्होंने कहा था, मुझे पता चला है कि कला महाविद्यालयों में होने वाले कुल व्यय का 36 प्रतिशत फीस के माध्यम से आता है, उच्च स्कूलों के खर्च का 31 प्रतिशत फीस से प्राप्त होता है, माध्यमिक स्कूलों के व्यय का 26 प्रतिशत फीस के माध्यम से प्राप्त होता है। सर, मैं यह कहना चाहता हूं कि यह शिक्षा का व्यवसायीकरण है। शिक्षा ऐसी चीज़ है जो सभी की पहुंच में होनी चाहिए। शिक्षा विभाग ऐसा विभाग नहीं है जो लेन-देन से चलना चाहिए। शिक्षा को सभी संभावित तरीकों से सस्ता किया जाना चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा सस्ता किया जाना चाहिए। अंबेडकर के लिए संविधान और राज्य ऐसे दस्तावेज़ और संस्थान थे, जो जनहित में हैं। उनका विश्वास था कि शिक्षा संवैधानिक अधिकार होनी चाहिए और यह राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह नि:शुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएं। “राज्य और अल्पसंख्यक” के अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार के लिए विशेष दायित्व वाले भाग में अंबेडकर ने लिखा है, "सरकारें, केंद्र और राज्य को अनुसूचित जातियों की उच्च शिक्षा की वित्तीय ज़िम्मेदारी लेनी होगी और बजट में इसके लिए उचित प्रावधान करने होंगे। केंद्रीय और राज्य सरकार के बजट में शिक्षा बजट सबसे ऊपर होगा।" पिटते स्टूडेंट्स की बेबसी को आखिर कौन समझे? जामिया में सिटिज़नशिप एक्ट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन। फोटो साभार: सोशल मीडिया वास्तव में सच्चाई तो यह है कि अब शायद संविधान को फिर से पढ़ने की ज़रूरत आ गई है। जिस प्रकार हॉलीवुड की पिक्चरों में जब देश में तनाव, वाद-विवाद, संघर्ष बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है तो कोई बैटमैन या सुपरमैन आकर सबसे खतरनाक खलनायकों को आकर सबक सिखाता है, तब जाकर देश में तनाव कम होता है। उसी तरह से आज के युवा भारत में भी किसी चंद्रशेखर, भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फूले जैसे वीर संघर्षकारी विचारकों की ज़रूरत है, जो आएं और समाज के सबसे क्रूर लोगों को सबक सिखाएं। और पढ़ें: “असम में लड़ाई शरणार्थियों के साथ अपने संसाधन बंट जाने की लड़ाई है” लेकिन वर्तमान में स्टूडेंट्स के लिए ना तो कोई बैटमैन आ रहा है और ना ही कोई सुपरमैन, जो आए और आकर जेएनयू में दिल्ली पुलिस की लाठी खाए और जामिया में आंसू गैस के गोले में जी भरके रोए। ऐसे में स्टूडेंट्स भी बेबस हैं। खुद ही चल पड़े हैं अपनी लड़ाई लड़ने फिर क्या! कोई रोड पर पिट रहा है, किसी को डिटेन किया जा रहा है, किसी को हड़काया जा रहा है तो किसी को धमकियां मिल रही हैं। इन सबके बीच हमारे देश के प्यारे गोलु-मोलु नेता लोग, जो बेचारे इसी जुगाड़ में लगे हैं कि कब ये छात्र आंदोलन बड़ा होकर जेपी आंदोलन की तरह राह पकड़े जिसमें वे अपनी देसी घी की रोटी को दाल और चटनी के साथ खा सके और इसी कश्मकश में ना तो किसी आईटी सेल का कोई खास ट्वीट आ रहा है और ना ही कोई नेता स्टूडेंट्स से मिलने में दिलचस्पी दिखा रहा है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो तब होता है, जब इसी भारत के कुछ तथाकथित लोग (ब्लू टिक वाले और ट्रोलर्स) JNU को बंद करने की मांग करते हैं, वह भी तब जब यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं और कुछ लोग जामिया को इसलिए बंद करने की मांग करते हैं, क्योंकि वहां के स्टूडेंट्स सिटिज़नशिप एक्ट और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। अब समझ में नहीं आता कि भारत युवाओं का देश है या पिटते हुए युवाओं का? इन सब में वही एक घिसा-पिटा पुराना सा सवाल एक प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ और गहराता जा रहा है कि आखिर कब तक?

अभी कुछ दिन पूर्व ही जब जेएनयू के स्टूडेंट्स पिट रहे थे, तब सभी चुप थे। दिल्ली पुलिस ने एक नेत्रहीन स्टूडेंट को लाइट बंद करके मारा था, तब भी सब खामोश थे। आज जामिया मिल्लिया इस्लामिया के स्टूडेंट्स भी पिटे हैं फिर भी सब शांत हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) दिल्ली और कानपुर के कृषि विश्वविद्यालय में भी ठीक ऐसा ही काम चल रहा है। यहां पर फर्क इतना है कि इधर के स्टूडेंट्स पिट नहीं रहे हैं बस। बाकी सब कुछ जस का तस! ना फीस कम हुई, ना कोई खास एक्शन लिया गया है और ना ही किसी को इन स्टूडेंट्स की सुध है। क्या आप जानते हैं कि वे स्टूडेंट्स क्यों पिट रहे थे? क्या आप जानते हैं इन सभी स्टूडेंट्स में समानता क्या है? ये सभी स्टूडेंट्स सस्ती शिक्षा के लिए संघर्ष और प्रदर्शन कर रहे हैं। मौजूदा वक्त में अंबेडकर की प्रासंगिकता बाबा साहेब अंबेडकर। फोटो साभार- Getty Images अभी कुछ दिनों पहले मैं देश के महान क्रांतिकारियों और महापुरुषों के बारे में पढ़ रहा था। इस दौरान बाबा साहेब अंबेडकर का एक कथन पढ़ा, जो उन्होंने 1956 में “भारत में लोकतंत्र के भविष्य” विषय पर एक चर्चा के दौरान कहा था, यदि आप भारतीय समाज के केवल उस हिस्से को शिक्षा देंगे, जिसका हित जाति व्यवस्था को बरकरार रखने में है तो इससे मिलने वाले लाभ से जाति व्यवस्था को मज़बूती मिलेगी। दूसरी ओर यदि भारतीय समाज के नीचे के हिस्से को शिक्षा देंगे जिसका हित जाति व्यवस्था को खत्म करने में है, तो जाति व्यवस्था खत्म हो जाएगी। जिस तरह अमीर को और अमीर बनाने और गरीब को और गरीब बनाने से गरीबी खत्म नहीं हो जाती, वही बात जातीय व्यवस्था को खत्म करने में शिक्षा को माध्यम की तरह इस्तेमाल करने के बारे में भी लागू होती है। जाति व्यवस्था को बरकरार रखने की चाहत रखने वाले लोगों को शिक्षा देना भारत में लोकतंत्र की संभावना में सुधार नहीं लाता बल्कि यह हमारे लोकतंत्र को बड़े खतरे में डालता है। 1927 में परिषद में हुई बॉम्बे यूनिवर्सिटी बिल बहस पर बोलते हुए अंबेडकर ने तर्क दिया था, "बैकवर्ड क्लास को यह समझ में आ गया है कि उनके लिए सबसे लाभकारी चीज़ शिक्षा है और इसके लिए वह लड़ सकते हैं। हमलोग भौतिक सुविधाओं को तो छोड़ सकते हैं लेकिन हमलोग उच्च शिक्षा से प्राप्त अधिकारों और अवसरों से मिलने वाले फायदे को नहीं छोड़ सकते हैं।" और पढ़ें: असम समझौते के उल्लंघन का नतीजा है आज का जलता हुआ असम अंबेडकर को इस बात में कोई शक नहीं था कि शिक्षा राज्य प्रायोजित होनी चाहिए ताकि वह सभी की पहुंच में हो। इसके साथ उन्होंने इसके व्यवसायीकरण का विरोध भी किया। जिस साल वह परिषद के सदस्य बने उसी साल सार्वजनिक शिक्षा के लिए अनुदान पर हुई बहस के दौरान उन्होंने कहा था, मुझे पता चला है कि कला महाविद्यालयों में होने वाले कुल व्यय का 36 प्रतिशत फीस के माध्यम से आता है, उच्च स्कूलों के खर्च का 31 प्रतिशत फीस से प्राप्त होता है, माध्यमिक स्कूलों के व्यय का 26 प्रतिशत फीस के माध्यम से प्राप्त होता है। सर, मैं यह कहना चाहता हूं कि यह शिक्षा का व्यवसायीकरण है। शिक्षा ऐसी चीज़ है जो सभी की पहुंच में होनी चाहिए। शिक्षा विभाग ऐसा विभाग नहीं है जो लेन-देन से चलना चाहिए। शिक्षा को सभी संभावित तरीकों से सस्ता किया जाना चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा सस्ता किया जाना चाहिए। अंबेडकर के लिए संविधान और राज्य ऐसे दस्तावेज़ और संस्थान थे, जो जनहित में हैं। उनका विश्वास था कि शिक्षा संवैधानिक अधिकार होनी चाहिए और यह राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह नि:शुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएं। “राज्य और अल्पसंख्यक” के अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार के लिए विशेष दायित्व वाले भाग में अंबेडकर ने लिखा है, "सरकारें, केंद्र और राज्य को अनुसूचित जातियों की उच्च शिक्षा की वित्तीय ज़िम्मेदारी लेनी होगी और बजट में इसके लिए उचित प्रावधान करने होंगे। केंद्रीय और राज्य सरकार के बजट में शिक्षा बजट सबसे ऊपर होगा।" पिटते स्टूडेंट्स की बेबसी को आखिर कौन समझे? जामिया में सिटिज़नशिप एक्ट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन। फोटो साभार: सोशल मीडिया वास्तव में सच्चाई तो यह है कि अब शायद संविधान को फिर से पढ़ने की ज़रूरत आ गई है। जिस प्रकार हॉलीवुड की पिक्चरों में जब देश में तनाव, वाद-विवाद, संघर्ष बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है तो कोई बैटमैन या सुपरमैन आकर सबसे खतरनाक खलनायकों को आकर सबक सिखाता है, तब जाकर देश में तनाव कम होता है। उसी तरह से आज के युवा भारत में भी किसी चंद्रशेखर, भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फूले जैसे वीर संघर्षकारी विचारकों की ज़रूरत है, जो आएं और समाज के सबसे क्रूर लोगों को सबक सिखाएं। और पढ़ें: “असम में लड़ाई शरणार्थियों के साथ अपने संसाधन बंट जाने की लड़ाई है” लेकिन वर्तमान में स्टूडेंट्स के लिए ना तो कोई बैटमैन आ रहा है और ना ही कोई सुपरमैन, जो आए और आकर जेएनयू में दिल्ली पुलिस की लाठी खाए और जामिया में आंसू गैस के गोले में जी भरके रोए। ऐसे में स्टूडेंट्स भी बेबस हैं। खुद ही चल पड़े हैं अपनी लड़ाई लड़ने फिर क्या! कोई रोड पर पिट रहा है, किसी को डिटेन किया जा रहा है, किसी को हड़काया जा रहा है तो किसी को धमकियां मिल रही हैं। इन सबके बीच हमारे देश के प्यारे गोलु-मोलु नेता लोग, जो बेचारे इसी जुगाड़ में लगे हैं कि कब ये छात्र आंदोलन बड़ा होकर जेपी आंदोलन की तरह राह पकड़े जिसमें वे अपनी देसी घी की रोटी को दाल और चटनी के साथ खा सके और इसी कश्मकश में ना तो किसी आईटी सेल का कोई खास ट्वीट आ रहा है और ना ही कोई नेता स्टूडेंट्स से मिलने में दिलचस्पी दिखा रहा है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य तो तब होता है, जब इसी भारत के कुछ तथाकथित लोग (ब्लू टिक वाले और ट्रोलर्स) JNU को बंद करने की मांग करते हैं, वह भी तब जब यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं और कुछ लोग जामिया को इसलिए बंद करने की मांग करते हैं, क्योंकि वहां के स्टूडेंट्स सिटिज़नशिप एक्ट और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। अब समझ में नहीं आता कि भारत युवाओं का देश है या पिटते हुए युवाओं का? इन सब में वही एक घिसा-पिटा पुराना सा सवाल एक प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ और गहराता जा रहा है कि आखिर कब तक?

सन 2016 में “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह” जैसे नारे लगने की खबरें मीडिया चैनलों द्वारा प्रचारित-प्रसारित की गईं। आखिर बात भी छोटी नहीं थी। हर सच्चे देशभक्त और हिदुस्तानी का खून खौल उठना जायज़ था।

यदि कोई इस मामले में दूसरे कोण की तलाश हेतु कोशिश कर भी रहा था तो पत्रकार उसे छुपा रहे थे। मानो देशभक्ति को बचाने का सारा जिम्मा पत्रकार और सत्ता में बैठे कुछ नताओं के पास ही हो।

पत्रकार ही पारदर्शिता को संवैधानिक तरीके से दर्शा सकते हैं

जेएनयू प्रोटेस्ट। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इस देश में CBI, IB और RAW जैसी संस्थाएं मौजूद हैं, जो देश-विदेश में बैठे आतंकवादियों को पकड़ सकती हैं। तो क्या अपने देश में बैठे आतंकी को नहीं पकड़ सकती? किसी को बिना किसी प्रमाण के देशद्रोही कह देना अच्छी बात नहीं है। यदि कोई आपकी वीडियो रिकॉर्ड करके उसके कुछ अंश एडिट करके देशद्रोही गतिविधियों से लैस कर दे, तो क्या आप देशद्रोही हो जाएंगे? नहीं ना?

फिर भी वीडियो देखने वाले तो यही समझेंगे कि ऐसी गतिविधि आपने ही की है। अतः सत्य बताने हेतु पारदर्शिता का होना अत्यंत आवश्यक है। बस इसी पारदर्शिता को बनाए रखना ज़रूरी है, जिसे केवल पत्रकार ही अहम भूमिका निभाते हुए लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक तरीके से लोगों तक पहुंचा सकते हैं। किन्तु जब ऐसा करने की बारी थी, तब वे पत्रकारिता भूलकर सिर्फ नाटकीय देशभक्ति और अपने अंदर छिपे नाटकबाज़ को दर्शा रहे थे।

वह सब ऐसे परोसा गया कि आम नागरिकों की नज़रों में JNU एक उग्रवादियों के गढ़ के अलावा जैसे कुछ और है ही नहीं! आज तो किसी को यदि कोई कुछ समझाने की कोशिश करे भी तो समझने की जगह वह समझाने वाले को ही देशद्रोही समझ बैठते हैं।

भगत सिंह खुद लेनिन के विचारों से प्रेरित थे

अक्सर सवाल उठता है कि JNU के विद्यार्थी लेनिन, स्टालिन और मार्क्स जैसे व्यक्तियों को क्यों पढ़ते हैं? क्या उन्होंने हमें आज़ादी दिलवाई? अगर मैं बोलूं कि मैं आपसे सहमत हूं कि इन्होंने ही आज़ादी नहीं दिलवाई, तो शायद आप अपने कथन से खुश हो जाएंगे मगर आपको भी मेरी इस बात से सहमत होना होगा कि आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह की अहम भूमिका रही थी।

अब यदि आप ‘भगत सिंह’ को पढ़ेंगे तो खुद समझ जाएंगे कि लेनिन, स्टालिन और मार्क्स जैसे व्यक्तियों को पढ़ना क्यों ज़रूरी है। संक्षेप में कहूंगा कि ये सभी वही क्रांतिकारी थे, जो अपने-अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। भगत सिंह खुद लेनिन के विचारों से प्रेरित थे।

वैसे तो भगत सिंह का जब नाम लिया जाता है, तब अक्सर नज़रों के सामने एक चित्र खुद-बखुद उभर आता है। गर्व से सीना ताने, पगड़ी पहने एक नौजवान जिसकी आंखों की अद्भुत चमक कह उठती है कि यही तो सच्चा देश भक्त है।

लेकिन क्या भगत सिंह ही केवल एक सच्चे देश भक्त थे? यदि आपका जवाब हां है, तो आपने उनको सिर्फ सुना है। असल में उनको जानने के लिए उन्हें पढ़ना होगा और पढ़ने के साथ-साथ उन्हें समझना भी पड़ेगा।

भगत सिंह एक विचारधारा हैं

भगत सिंह। फोटो साभार- Getty Images

भगत सिंह सच्चे देश भक्त, क्रांतिकारी होने के साथ-साथ अपने आप में एक विचार थे। यह सत्य है, क्योंकि भगत सिंह वह विचार थे जो असल मायनों में एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न और धर्मनिरपेक्ष भारत देश बनाने की ताकत रखते थे परन्तु अगर यह सोच वाकई इतनी ही प्रभावशाली है, तो क्यों कोई राजनीतिक दल या कोई बड़ी संस्था इनके विचारों पर बात नहीं करती? आखिर क्यों भगत सिंह को केवल एक आदर्शवादी देश भक्त के रूप में दर्शाया जाता है? जवाब स्पष्ट है, खुद की सत्ता के पतन और धर्म के नाम पर चल रही संस्थाओं पर ताले लगने का डर जो है।

भगत सिंह सिख परिवार में पले-बढे़ जिन्होंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को भी मगर अधिक लेनिन, त्रोत्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा। ये सभी नास्तिक थे। भगत सिंह भी बाद में नास्तिकता की ओर बढ़ते चले गए। आखिर बढ़े भी क्यों ना?

उनका मानना था कि यदि सच में इश्वर है तो अंग्रेज़ों के दिमाग में जनता के प्रति क्यों दया भाव उत्पन नहीं कर पाए? क्यों भारत को आज़ादी पहले ही नहीं मिल गई? कोई इश्वर भला क्यों अपने भक्तों को कष्ट पहुंचाएगा?

कृपया यह ना कहें कि सृष्टि का यही नियम है। यदि ईश्वर किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। सच तो यह है कि अंग्रेज़ों ने हुकूमत यहां इसलिए की क्योंकि उनके पास ताकत थी और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं थी।

सत्ता से लेकर पत्रकारिता अपना मूल कर्तव्य भूल गई है

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

धर्म के कारण हम तब भी एकजुट ना हो सके और ना ही आज इकाई बन सके। गरीबों, किसानों और निचले वर्गों का शोषण तब अंग्रेज़ों ने किया और आज सत्तासीन होती सरकारें करती आई हैं। सत्य तो यह है कि सत्ता के नशे में चूर सरकारें अपना मूल कर्तव्य भूलकर विद्यार्थियों से ही प्रश्न करती आई हैं।

शिक्षा, रोज़गार और विकास की बात के अलावा ये लोग धर्म की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सभी लोगों में जागरूकता फैलाने की जगह लोगों में अपनी कौम की संख्या के प्रति चिंता जता रहे हैं।

पत्रकार का फर्ज़ है कि वह सरकार की जुमलेबाज़ी को जानता के सामने लाए। अधिकांश पत्रकार पत्रकारिता को छोड़कर सब कुछ कर रहे हैं लेकिन कुछ पत्रकार अभी ज़िंदा हैं जिनकी वजह से संविधान की गरिमा बची हुई है।

असल में इस बीमारी के शिकार सभी धर्म हैं। जैसा कि भगत सिंह ने बताया था, “अल्पसंख्यक होने के कारण मुस्लिमों ने ज़्यादा ज़ोर दिया। उन्होंने अछूतों को मुसलमान बनाकर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिए। इससे हिन्दुओं के अहम को चोट पहुंची। स्पर्धा बढ़ी तो फसाद भी हुए।

भगत सिंह के विचार ‘हम सब इंसान समान हैं’ पर अमल की ज़रूरत

भगत सिंह। फोटो साभार- Getty Images

अगर एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, तो क्या बस इसलिए जीवन भर वह मैला ही साफ करेगा? तो क्या दुनिया में उसे किसी तरह के विकासित हो सकने का कोई हक नहीं? हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ कैसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया? किस प्रकार उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया? यही नहीं, उनसे निम्न कोटि के कार्य करवाए जाने लगे। साथ ही आर्यों में यह भी चिन्ता बनी रही कि कहीं ये विद्रोह ना कर दें और तो और तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि उनका आज पूर्व जन्म के पापों का फल है।

ऐसे जुमलों से बचना होगा। बातें एकता की होनी चाहिए, क्योंकि धर्म सभी के श्रेष्ठ हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि हम सब एक इंसान हैं, इससे ज़्यादा और कुछ नहीं। भगत सिंह के विचार लाजवाब हैं, “यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।” इन बातों को लेकर हर नागरिक को समर्थन करना चाहिए।

नागरिक में विद्यार्थी भी हैं

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन। फोटो साभार- सोशल मीडिया

विद्यार्थियों की राजनीति को लेकर भगत सिंह का बहुत सकारात्मक विचार है। उनके अनुसार जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें अक्ल से अंधा बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है। उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए।

लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना इस शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं है? यदि नहीं, तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं। जो सिर्फ क्लर्क बनने के लिए ही हासिल की जाए। ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?

हमें समझना होगा कि सत्ता कभी नहीं चाहेगी कि उससे किसी भी किसी तरह के कोई सवाल पूछे। शायद इसी तार्किक शक्ति को कम करने के लिए किसी विद्यार्थी को राजनीति से दूर करने की कोशिश की जा रही है। शिक्षा का स्तर निरंतर गिराया जा रहा है, क्योंकि जितने शिक्षित हम होंगे उतने सवाल करने वाले होंगे।

सवाल उठाया जाएगा तभी बदलाव आएगा

भगत सिंह सिखाते हैं कि विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। इससे पुराने विचार व विश्वास में बढ़ोतरी होगी और रोमांस की जगह गंभीर विचार घर करेंगे। तब सवाल यह उठता है कि क्या इसलिए विद्यार्थियों को राजनीति से दूर किया जा रहा है?

Exit mobile version