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“माहवारी के दौरान लड़कियों के कपड़े पर खून का लाल रंग देखकर हमारी भौहें क्यों तन जाती हैं?”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मैंने बीते कुछ महीनों में माहवारी से जुड़ी दो फिल्में देखी हैं। इन फिल्मों को देखने के बाद मुझे काफी अच्छा लगा कि कम-से-कम अब तक सोशल टैबू समझे जाने वाले विषय पर बात तो हो रही है।

सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि माहवारी शिक्षा और ज़रूरी सुविधाओं की कमी से खासकर ग्रामीण इलाकों की लड़कियां अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाती हैं। यहां तक कि महिलाओं को नौकरी तक छोड़नी पड़ जाती है।

मेन्स्ट्रुअल टैबुज़ पर करारा प्रहार है ‘Period: End of Sentence’

डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘Period: End of Sentence’ का एक दृष्य

सबसे दुखद यह है कि समाज का एक बड़ा तबका माहवारी को अपवित्र और गंदी चीज़ समझता है। यहां तक कि इसे एक बीमारी के तौर पर भी देखा जाता है। माहवारी को लेकर तमाम तरह के मिथक जो पहले ही गढ़े जा चुके थे, यह उन्हीं सबका परिणाम है।

खैर, माहवारी पर बनी 26 मिनट की ऑस्कर जीतने वाली डॉक्यूमेंट्री ‘Period: End of Sentence’ देखकर मैं काफी खुश हुई। इस फिल्म में बड़े ही शानदार तरीके से माहवारी के दौरान महिलाओं की परेशानियों का चित्रण किया गया है। इस फिल्म में उत्तर प्रदेश के हापुड़ में सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीन लगाने वाली लड़कियों की कहानी को बड़े ही शानदार तरीके से दिखाया गया है।

एक महिला होने के नाते मुझे भी लगता है कि माहवारी से जुड़े टैबूज़ का खत्म किया जाना बेहद ज़रूरी है। हमें शर्म की दीवारों को तोड़कर खुले तौर पर इस पर बात करने की ज़रूरत है।

ऐसे में फिल्म के निर्देशक रायका ज़हताबी की यह लाइन “अ पीरियड शुड एंड अ सेंटेंस, नॉट गर्ल्स एजुकेशन” काफी प्रासंगिक हो जाती है। माहवारी को हमने शुरू से ही एक टैबु के तौर पर देखा है मगर हमें यह समझना होगा कि बाइलॉजिकल प्रॉसेस के लिए यह एक ज़रूरी प्रकिया है।

62 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं

भारत जैसे विकाससील देश के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि माहवारी के दौरान 62 प्रतिशत महिलाएं आज भी कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। ऐसे में टैम्पून्स और मेन्स्ट्रुअल कप की तो बात ही छोड़ दीजिए। वहीं, कई महिलाएं सैनिटरी पैड का प्रयोग करना चाहती भी हैं मगर अधिक कीमत होने की वजह से प्रयोग नहीं कर पाती हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

माहवारी के संदर्भ में फिल्म “पैडमैन” का नाम लोग ज़रूर लेते हैं मगर इस दिशा में शायद ही लोगों की संवेदनशीलता नज़र आती है। हमारे समाज ने माहवारी के दौरान महिलाओं के लिए बहुत सारे नियम बना दिए हैं। जैसे-  छुआछूत, रसोई घर में नहीं जाने देना आदि। ये चीज़ें महिलाओं के ज़हन में इस कदर हावी हो चुकी हैं कि वे इन विषयों पर बात भी नहीं करना चाहती हैं।

कुछ साल पहले सैनिटरी पैड खरीदने के लिए मैं उसी दुकान में जाती थी, जहां कम लोग होते थे। इसे लेकर ज़हन में काफी दुविधा थी।

मुझे याद आता है कि दुकानदार को धीरे से मैं सैनिटरी पैड देने के लिए बोलती थी और वह चुपचाप एक पेपर में उसे  पैक कर देता था। एक और चीज़ अजीब होती थी, वो यह कि सैनिटरी पैड को पेपर में पैक करने के बाद भी ब्लैक पॉलीथीन में पैक किया जाता था ताकि किसी को पता ना चले।

हमें यह समझना होगा कि माहवारी कोई टैबू नहीं है। हर महीने आने वाली माहवारी की वजह से लड़कियों को बहुत सारे मौके गंवाने पड़ते हैं, जिसे लेकर विचार करने की ज़रूरत है। माहवारी के दौरान लड़कियों के कपड़े पर खून का लाल रंग देखकर हमें भौंहे ना चढ़ाकर इस दिशा में बेहतरी की बात करनी चाहिए। आइए हम और आप मिलकर इस दिशा में सकारात्मक परिवर्तन करते हैं।

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