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#Periodपाठ: केवल पैड्स, समस्या का समाधान नहीं है

आदरणीय,                                                                                                                                                        12/01/2021

मनीष सिसोदिया                                                                                                                                                  नई दिल्ली

उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री, दिल्ली सरकार

विषय: दिल्ली के सरकारी स्कूलों में लड़कीयों के ड्रॉप ऑउट का कारण, महावारी से जुड़ी समस्या पर।

मनीष सिसोदिया

सर,

दिल्ली पुस्तक मेले में आपकी लिखी किताब “शिक्षा: दिल्ली के स्कूलों में मेरे कुछ अभिनव प्रयोग” किताब दिखी और मैंने खरीदकर पढ़ना शुरू किया। दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाने के क्षेत्र में आपके कामों के विषय में इस किताब से काफी जानकारी मिली। बजट एक बड़ा कदम, इंफ्रास्ट्रक्चर बुनियाद से शुरुआत, चुनौति परंपराओं को तोड़ने की……पूरी किताब मैंने कमोबेश पांच घंटे में खत्म कर डाली, इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए आपको और आप सरकार को बधाई। सच जानिए मैं किताब के शुरुआत से जितना अधिक उत्साहित था अंत आते-आते मुझे निराशा मिली। आपने दिल्ली के सरकारी स्कूलों के शिक्षा के सुधार में अभूतपूर्व काम किए है इसमें कोई शक नहीं है। हर साल सरकारी स्कूलों के नतीजे इसके परिणाम हैं जो यह साबित करते है कई दिशाओं में मूलभूत बदलाव हुए हैं जिससे सफलताएं मिली हैं। इसके लिए आपको पुन: बधाई।

परंतु, जब मैं यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फांर्मेशन सिस्टम फांर एजुकेशन(यू-डाइस) के 2014-15 से लेकर 2016-17 के दिल्ली सरकार के आकड़े देखता हूँ तो निराश होने लगता हूँ। पूरे देश में माध्यमिक स्तर पर पर ड्रॉप ऑउट बच्चों की संख्या कुल छात्र-छात्राओं के तकरीबन 25 फीसदी रही हैं जिसमें दिल्ली सरकार में यह आकड़ा 2014-15 में 08.90, 2015-16 में 11.81 और 2016-17 में 10.75 रहा हैं जो चिंताजनक तो है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अन्य राज्यों से दिल्ली सरकार की स्थिति बेहतर हैं पर इस सत्य से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता है कि बच्चे ड्रॉप ऑउट हो रहे है। “असर- 2017” कि रिपोर्ट बच्चों के ड्रॉप ऑउट के कारणों की पड़ताल करते हुए बताती हैं कि वह आर्थिक कारण, बच्चों में पढ़ाई में कम रूचि हैं। लड़कियों के ड्रॉप ऑउट के कारण को बस स्कूल की दूरी और शौलाचल का अभाव को बताया गया हैं।

रिपोर्ट में इस बात कि चर्चा नहीं है कि लड़कियां “महावारी” से जुड़ी भ्रांतियों और टेबूज के कारण भी स्कूलों से ड्रॉप ऑउट होती है। न ही रिपोर्ट इस बात कि चर्चा करता है कि बच्चों में लड़को का प्रतिशत अधिक हैं या लड़कियों का। पर इस बात को समझा जा सकता है कि लड़कियों के ड्रॉप ऑउट होने का कारण आर्थिक, सामाजिक, सांस्कॄतिक और इन सबों से बढकर शारीरिक अधिक हैं स्पष्ट शब्दों में कहूँतो “महावारी की समस्या”। कितना अज़ीब है लड़कियों के स्वास्थ्य से जुड़ा विषय को हम समस्या के रूप में पहचान पा रहे हैं। यह समस्या जितनी अधिक लड़कियों के साथ शारीरिक हैं उतनी ही अधिक मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भी हैं जो अपने साथ-साथ वर्गीय, जातीय और धार्मिक टैबूज का बोझ भी ढोती हुई चलती हैं।

मैं आपका ध्यान इस समस्या के समाधान के उपायों के तरफ लाना चाहता हूँ। दिल्ली वैसे तो देश की राजधानी है पर यहां देश के हर भाग के लोग रहते है। लड़कियों के साथ महावारी का विषय कई तरह के क्षेत्रिय विविधता को भी लिए हुए है। समाजशास्त्री लीला दुबे का अध्ययन इस दिशा में जाति, नातेदारी, सामाजिक संरचना, संस्कॄति तथा स्त्री-पुरुष संबंध के तमाम तहों को उधेड़ कर सतह पर लाने का काम किया है। माध्यमिक स्तर के दिल्ली के सरकारी स्कूलों में देश के किस भाग के लड़के-लड़कियों की संख्या अधिक हैं इस विषय में कोई आकड़ा मेरे पास नहीं है। पर “महावारी की समस्या” देश के हर भाग के लड़कियों के साथ एक तरह से दिखती हुए भी कई वर्गीय भिन्नताओं को लिए हुए हैं इन वर्गीय भिन्नताओं के सामाजिक-सास्कॄतिक टैबूज इतने गहरे तक धंसे हुए हैं कि इसका समाधान किसी एक तयशुदा फार्मूले से संभव नहीं हैं।

माध्यमिक स्तर के दिल्ली के सरकारी स्कूलों में लड़कियों के ड्रॉप ऑउट के समस्या के समाधान के लिए स्कूलों मैं “सैनटरी पैड” उपलब्ध कराना एक समाधान हो सकता हैं, पर इसके प्रभाव दूरगामी नहीं हो सकते है। माध्मिक स्तर के दिल्ली के सरकारी स्कूलों में “महावारी के समस्स्या” से जूझ रही लड़कियो के लिए “हैल्थ काउंन्सलर” की नियुक्ति या “पीरियड काउन्सलर” के वर्कशांप करवा कर इन लड़कियों को उचित काऊनसिक कर उसके आत्मविश्वास और मनोबल बनाने का काम करे। इस दिशा में दूरगामी कदम साबित हो सकता है क्योंकि जिस उम्र में लड़कियां महावारी के समस्या के साथ संघर्ष कर रही होती है अगर घर में उचित महौल नहीं मिल पाता है तो वह अवसाद और डिप्रेशन में जाने लगती है। परिवार लड़कियो के सामाजिक सुरक्षा को लेकर चिंतित होने लगता हैं और घर बैठाना उचित मानने लगता है। इसलिए लड़कियों के साथ-साथ अभिभावकों को भी इस संबंध में काउनसलिग की जरूरत हैं जिससे लड़कियों के ड्रॉप ऑउट के समस्या को रोका जा सके।

आर्थिक रूप से गरीब परिवार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से(जिसकी स्थिति भी देश के अन्य राज्यों के अपेक्षा दिल्ली में अच्छी हैं) सैनटरी पैड के वितरण से लड़कियों और महिलाओं के मृत्यु-दर को भी रोका जा सकता हैं। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से इस तथ्य को बयां कर रहा हूँ कि देश में निम्न आय वर्ग की महिलाओं को सैनटरी पैड के विषय में जानकारी तक नहीं है इसका उपयोग और महावारी के समय सफाई के बारे में बात करना तो दूर की कौड़ी लाने के बराबर है। पूरे भारत में आधी आबादी के सैनटरी पैड के इस्तेमाल का आकड़ा बहुत ही निराशाजनक है।  नैश्नल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में केवल 48 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में केवल 78 प्रतिशत महिलाएं ही सैनेटरी पैड्स का उपयोग करती हैं। पीरियड्स के दौरान 62 फीसदी महिलाएं कपड़े का प्रयोग करती हैं और तकरीबन 16 फीसदी महिलाएं लोकल स्तर पर बनाए गए पैड्स का इस्तेमाल करती हैं। इन आकड़ों से यह समझा जा सकता है कि आर्थिक स्थिति से कमजोर परिवार सैनटरी पैड्स का इस्तेमाल नहीं कर पाती है।

“शिक्षा: दिल्ली के स्कूलों में मेरे कुछ अभिनव प्रयोग” किताब में दिल्ली के सरकारी स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर के संबंध में कामों की चर्चा की हैं। इसलिए इस बात से निश्चित हुआ जा सकता है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में शौचालय की उचित व्यवस्था होगी ही। महावारी के दिनों में साफ शौचालय के समस्या के कारण लड़कियों को स्कूल ड्रॉप ऑउट नहीं करना पड़ेगा। स्कूल की दूरी के समस्या के समाधान के लिए कई विकल्पों की तलाश की जा सकती है जो स्कूल प्रशासन के अधिकार क्षेत्र का मामला है।

मुझे विश्वास है कि आप दिल्ली में अपनी अगली सरकार बनने के बाद इस समस्या के प्रति संवेदनशील होकर इस समस्या के समाधान के दिशा में जरूरी कदम अवश्य उठाएगें। दिल्ली और देश के विकास में लड़कियों को अपनी भागीदारी या साझेदारी का मौका अवश्य प्रदान करेगे।

 

आपका विश्वासपात्र

प्रत्युष प्रशांत

12/01/2020

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