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“बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार खगेन्द्र ठाकुर के जीवन के वे किस्से जो मुझे हमेशा याद रहेंगे”

हमने देखा हर हाथ

यहां एक सूरज है

हर कदम यहां

अमिट इतिहास-चरण है

इन्होंने गढ़ डाला है

एक नया सूरज धरती पर

उगाये हैं यहां अनगिन/रक्त कमल परती पर

इन पंक्तियों के कवि और प्रख्यात आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर आज यहां पटना के विद्युत शवदाह गृह की चिमनी से निकलते गाढ़े धुएं में कायांतर होते हुए हमारी भौतिक परिधि से परे अनंत विस्तार में विलीन हो गए। यह उतना ही बड़ा सच है, जितना बड़ा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का विस्तृत आकाश।

हम गवाह रहे हैं, अपनों से भी अपने प्रिय खगेन्द्र जी को अपने हाथों एक नए सूरज को गढ़ते देखते हुए, हमने देखा है खगेन्द्र जी के कदमों को एक अमिट इतिहास-चरण में तब्दील होते हुए, हमने देखा है खगेन्द्र जी को धरती की परती पर अनगिन रक्त कमल उगाने की खातिर अनवरत‌ श्रम करते हुए।

खगेन्द्र ठाकुर के साथ सुमंत।

बचपन से ही पिता जी और खगेन्द्र जी को आंदोलनों में साथ देखा है

खगेन्द्र जी मेरे पिता के अभिन्न मित्र रहे हैं और आज भी उन पर उनके (खगेन्द्र जी के) लिखे तकरीबन आध दर्जन लेख तो मेरे पास सुरक्षित हैं। मैंने अपने स्कूली दिनों से ही उन दोनों को एक साथ पार्टी के मोर्चे पर, साहित्य एवं सांस्कृतिक मोर्चे पर, पत्रकारिता के मोर्चे पर एवं जन आंदोलनों में ना सिर्फ बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए, वरन पुलिसिया लाठी झेलते हुए भी देखा है।

पिता की मृत्यु के बाद खगेन्द्र जी के नेतृत्व में प्रगतिशील लेखक संघ में जब मैं भी शामिल हुआ तो एहसास हुआ कि खगेन्द्र जी एक ऐसा विस्तृत आकाश हैं, जिनमें मेरे जैसे अनगिन पखेरुओं को अपने पंख पसारने और गोते लगाने के अनंत अवसर उपलब्ध हैं। उनके संपादकत्व में दैनिक जनशक्ति में मैंने पत्रकारिता में भी अपने हाथ मांजे। और, जब पिता की तरह हाल के आंदोलन के दौरान भगवा गुंडों के लाठी-प्रहार से मेरा भी माथा फटा तो भेंट होने पर खगेन्द्र जी विंहसते हुए मेरे माथे को देखा था।

नामवर सिंह के सबसे भरोसे के आदमी समझे जाते थे खगेन्द्र जी

खगेन्द्र जी यदि कहा जाए तो नामवर सिंह के सबसे भरोसे के आदमी समझे जाते रहे हैं। मगर, इतना भी नहीं कि खगेन्द्र जी अपनी हर हरकत पर उनसे ऑंख मूंदकर उनकी मोहर लगवा ही लें।

नामवर सिंह और खगेन्द्र ठाकुर।

मुझे याद है इसी पटना में एक चालाक रचनाकार खगेन्द्र जी से ज़िद करके नामवर सिंह के लिए ही आयोजित एक सभा में उनसे अपनी किताब का विमोचन कराने में सफल हो गया था। नामवर जी ने विमोचन तो कर दिया मगर खगेन्द्र जी को एक तीखी झिड़की देते हुए कि जिसे सामान्य व्याकरण की भी समझ नहीं है, उसकी किताब का विमोचन आप मुझसे करवा रहे हैं। खगेन्द्र जी झेंप कर रह गए थे। इसके बावजूद, माना यह जाता है कि नामवर सिंह की आलोचना परंपरा को उनके बाद आगे बढ़ाने की ज़िम्मेवारी सबसे प्रामाणिक तौर पर जिन कंधों पर थी, उनमें सबसे विश्वस्त कंधा डॉ. खगेन्द्र ठाकुर का ही था।

आलोक धन्वा और अरुण कमल के बारे में खगेन्द्र जी की राय

खगेन्द्र जी की भलमनसाहत का अनुचित लाभ लेने के कई किस्से हैं और अपनी उदारता के चक्कर में उन्हें ऊपर लिखित चूक का शिकार होते हुए भी देखा गया है। मगर, दूसरी ओर यह देखकर भारी अचरज होता है कि यही खगेन्द्र जी इसी पटना में अपनी अंतरंगता में रहने वाले हिंदी के दो उस्ताद कवियों की कविताओं के मूल्यांकन में थोड़ी भी उदारता बरतने में साफ पलटी मार लेते हैं। ये दो कवि हैं आलोक धन्वा और अरुण कमल।

पत्रकार पुष्पराज को दिए एक चर्चित और कुछ हद तक विवादित इंटरव्यू में अपने इन दोनों अत्यंत नज़दीकी कवियों के बारे में खगेन्द्र जी के दो-टूक ऑब्ज़र्वेशन को पढ़ना कम रोमांच पैदा नहीं करता।

आलोक धन्वा।

पूछने पर कि आप आलोक धन्वा की रचनाधर्मिता पर क्या राय रखते हैं, खगेन्द्र जी ने कहा,

आलोक धन्वा पूरी तरह विकसित कवि नहीं हैं। दो चार कविताओं के आधार पर उन्हें इतनी ख्याति मिल गई कि उनकी रचनात्मकता उसी ख्याति में दबकर रह गई। ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ इनकी सबसे चर्चित रचना है। इन कविताओं में भी घोषणाएं ज़्यादा हैं। वे एक वर्जित प्रदेश में जाना चाहते हैं पर गए नहीं। रचना की चेतना और जीवनशैली में ज़्यादा फर्क होने से रचना पीछे छूट जाती है। मेहनत के बिना सुख सुविधा प्राप्त करते रहने से रचना की मनोदशा बदलती बिगड़ती है।

अब अरुण कमल की बाबत। पुष्पराज ने पूछा ‘अरुण कमल की कोई एक कविता जिसे आप नागार्जुन की कसौटी पर संघर्षरत जनता के पक्ष में खड़ा देखते हैं’, इसका उत्तर देते हुए खगेन्द्र जी ने कहा,

नागार्जुन को कसौटी मानकर अरुण कमल को परखने का तरीका उचित नहीं है। फिर भी तुम पूछ रहे हो तो मैं कहता हूं कि अरुण कमल की कोई कविता इस समय मुझे स्मरण में नहीं है, जो नागार्जुन की तरह जनता के पक्ष में सीधे संघर्षरत हो। बावजूद, अरुण कमल शोषितों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और कई जगह अन्याय के विरुद्ध अपने विचार प्रकट करते हैं।

साफ है, जहां वे आलोक धन्वा में रचना-चेतना और उनकी जीवनशैली में भारी फर्क के चलते रचना के पीछे छूट जाने की कमी को स्पष्टतः रेखांकित करते हैं, तो वहीं अरुण कमल को शोषितों के प्रति महज सहानुभूति रखने वाले कवि मानते हैं ना कि नागार्जुन की तरह उनके संघर्ष के प्रति प्रतिबद्ध। यह है खगेन्द्र जी की वह बेधक आलोचना-प्रविधि जिसके आधार पर उनके संपूर्ण रचना-संसार की निर्मित हुई दिखती है।

अरुण कमल।

राजनीतिक परिस्थितियों से खगेन्द्र ठाकुर का संबंध

खगेन्द्र जी के व्यक्तित्व की विशालता तथा उनके कृतित्व की बहुलता पर गौर फरमाते हुए यदि हम उनके गहरे राजनीतिक कर्म पर बात ना करें तो उनके पूरेपन को देखना संभव नहीं है।

खगेन्द्र जी मानते थे कि एक सच्चा रचनाकार देश की राजनीतिक परिस्थितियों से निरपेक्ष रहकर अपनी रचना के प्रति कतई ईमानदारी बरत नहीं सकता है। खगेन्द्र जी इस मायने में खरे उतरते हैं। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, रामविलास शर्मा आदि की तरह भारत के वामपंथी आंदोलन से अपनी सक्रिय संबंधता आखिरी समय तक बनाए रखी।

वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में 1965 में शामिल हुए और पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहें। प्रगतिशील लेखक संघ की वे रीढ़ थे। एक लंबे समय तक बिहार इकाई के महासचिव रहने के बाद राष्ट्रीय महासचिव के दायित्व का भी सफल निर्वहन किया। बिहार के कॉलेज शिक्षक आंदोलन में उन्होंने जेल यात्रा भी की।

राजधानी पटना के भव्य प्रेमचंद रंगशाला के सीआरपीएफ से मुक्ति आंदोलन में उन पर भी लाठी की मार पड़ी थी। पार्टी के दैनिक अखबार जनशक्ति में उन्होंने अपनी शुरुआत व्यंग्य कॉलम लिखने से की और बाद में अपनी प्रोफेसरी की सुरक्षित नौकरी छोड़कर उसके पूर्णकालिक संपादक का काम भी संभाला। विदेशों की यात्राएं भी उन्होंने खूब की। सोवियत संघ की दो बार की यात्रा सहित तकरीबन आधे दर्जन देशों का दौरा किया था।

खगेन्द्र जी का शोधकार्य छायावाद पर था। नामवर सिंह के भाषणों एवं वक्तव्यों पर काम करते हुए उन्होंने ‘आलोचक के मुख से’ नामक एक चर्चित पुस्तक तैयार की थी। ‘नेतृत्व की पहचान’ पुस्तक में भारत के चार प्रमुख नेताओं महात्मा गॉंधी, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक व्यक्तित्व पर उनके लेखन का एक अलग ही रंग देखने को मिलता है।

खगेन्द्र ठाकुर।

नागार्जुन के अलावा उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर, भगवत शरण उपाध्याय पर भी किताबें लिखीं। इसके अतिरिक्त विकल्प की प्रक्रिया, आज का वैचारिक संघर्ष, मार्क्सवाद, आलोचना के बहाने समय, समाज व मनुष्य, छायावादी काव्य की विवेचना, कविता का वर्तमान, दिव्या का सौंदर्य आदि उनकी प्रमुख आलोचना पुस्तक रही हैं।

कविताएं भी उन्होंने खूब लिखीं। धार एक व्याकुल और रक्तकमल परती पर उनका कविता संग्रह है। देह धरे को दंड तथा ईश्वर से भेंटवार्ता उनके दो व्यंग्य संग्रह भी हैं।

जीवन के आखिरी समय तक लेखन के मोर्चे पर डटे रहें डॉ. खगेन्द्र ठाकुर

अपनी मृत्यु के समय खगेन्द्र जी 83 वर्ष के हुए थे। इस नाते उन्होंने एक लंबे और भरपूर जीवन जिया। आखिरी समय में भी जैसा कि उन्होंने बताया, दो किताबों पर लगभग काम पूरा करने में लगे हुए थे। उन्होंने अपने मृत्युपूर्व के संभवतः अंतिम लेखन के तौर पर बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना संबंधी इतिहास पर एक लंबा लेख लिखकर हमें दिया था। इसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली एक स्मारिका में छपना था जो दुर्भाग्यवश पार्टी नेतृत्व की लापरवाही के चलते उनकी जीवितावस्था में नहीं छप सकी।

यानी डॉ. खगेन्द्र ठाकुर उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में कलम के सिपाही के तौर जीवन के आखिरी क्षण तक लेखन के मोर्चे पर डटे रहे थे।

उनकी जिजीविषा और उनके जीवन मूल्य को मुख्तसर में समेटने के लिए हम यदि किसी उपमा का सहारा लेना चाहें तो वह सबसे सटीक खगेन्द्र जी की ही कविता की ये पंक्तियां हो सकती हैं-

हां हम काले हैं

काली होती है जैसे मिट्टी

जब खुलता है उसका दिल

तो दुनिया हरी-भरी हो उठती है

जब जलता है तो

हो जाता है बिल्कुल लाल। 

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