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“इस गणतंत्र दिवस सरकार से पीरियड्स फ्रेंडली टॉयलेट की मेरी मांग”

मोदी

मोदी

माहवारी शब्द से आपका कितनी दफा वास्ता पड़ा होगा? एक दफा? दो, तीन या पांच दफा? चलिए मान लेते हैं कि यह पितृसत्तात्मक समाज भी माहवारी स्वच्छता प्रबंधन को लेकर संवेदनशील है। लेकिन पता है आपकी संवेदनशीलता सिर्फ गप्पे लड़ाने तक ही खत्म हो जाती है।

हम महिलाओं की समस्याओं को अड्रेस करना आपकी प्राथमिकताओं में है कहां डियर पुरुष वर्ग? इस गणतंत्र दिवस मैं इस पितृसत्तात्मक समाज ये यही पूछना चाहती हूं कि हर महीने जब हम महिलाएं माहवारी के दौरान तमाम तरह की परेशानियों से दो-चार होती हैं, तो आपकी संवेदनशीलता कहां जाती है?

देश और देश की व्यवस्था पर गुस्सा आता है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

मेंस्ट्रुअल फ्रेंडली टॉयलेट्स की मांग पर आपकी खामोशी यह बताती है कि आप महिलाओं को बस उपभोग की वस्तु के तौर पर देखते हैं। गणतंत्र दिवस के मौके पर झंठा फहरा लेने से झूठ को सच नहीं बनाया जा सकता है।

मुफ्त में सैनिटरी पैड्स बांटने के नाम पर हम लड़कियों को सिर्फ ठगा जाता है। राजनेताओं द्वारा बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं मगर सैनिटरी पैड्स को जीएसटी के दायरे से हंटाने के मामले में आपकी भौंहे तन जाती हैं। है ना दोगली मानसिकता?

सच पूछिए तो मुझे गुस्सा आता है इस देश और देश की व्यवस्था पर। ऐसा देश किसी काम का नहीं, जहां माहवारी को लेकर कोई ठोस पॉलिसी ही ना हो। यहां तक कि बहुत सारे प्राइवेट दफ्तरों में तो छुट्टी देने के नाम पर बॉस की आंखें लाल हो जाती हैं।

माहवारी स्वच्छता प्रबंधन को लेकर कोई पॉलिसी ही नहीं

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- Getty Images

मुझे शर्म है कि मैं ऐसे देश में रहती हूं जहां माहवारी स्वच्छता प्रबंधन को लेकर ना तो कोई पॉलिसी है और ना ही कोई उम्मीद। बस गणतंत्र दिवस के रोज़ चीख-चीखकर यह कहना कि हमने ये उपलब्धि हासिल की है वगैरह-वगैरह।

मैं पूछना चाहती हूं सत्ता के घमंडी नेताओं से कि माहवारी स्वच्छता प्रबंधन को लेकर आपकी सोच क्यों इतनी घटिया है? क्यों आपको हमारी परेशानियां नहीं दिखती? सिर्फ वोट बैंक की राजनीति करने से क्या हम महिलाओं की समस्याओं का हल हो जाएगा?

अब तो कुछ बोलने में भी डर लगता है। सोचती हूं कि बोलूंगी तो हमें देशद्रोह ना बता दिया जाए। इस गणतंत्र मैं माननीय प्रधानमंत्री से बेहतर माहवारी स्वच्छता प्रबंधन की मांग कर रही हूं। यदि वह मेरी मांगों को नहीं पूरा कर सकते, तो उन्हें कोई हक नहीं है इस गद्दी पर बैठने का। जब हम उन्हें वोट देकर जीता सकते हैं, तो सिंहासन खाली भी करा सकते हैं।

देखना तो यह है कि इस बार आने वाले बजट में हम महिलाओं के लिए कुछ खास होता है या नहीं? मैं कतई उस गणतंत्र का हिस्सा नहीं होना चाहूंगी, जहां महिला सुरक्षा के नाम पर हमारे साथ ठगी हो, जहां मेन्सट्रुअल लीव देने के नाम पर बॉस की भौंहे तन जाएं और जहां एक लड़की को उपभोग की वस्तु समझकर शोषिण किया जाए।

सोचिए, विचार कीजिए, सरकार से सवाल पूछिए और अपनी आवाज़ ताउम्र बुलंद रखकर अपने ज़िंदा रहने का प्रमाण देते रहिए। क्या पता एनआरसी, सीएए और एनपीआर की चर्चाओं के बीच कभी यह ना पूछा जाए कि महिला होने का प्रमाण दो। इस सरकार से यह उम्मीद करना कोई गलत नहीं है।


नोट: लोकतंत्र लाइव के लिए झारखंड की राजधानी रांची से प्रिया वर्मा ने अपनी कहानी साझा की है। प्रिया बी.कॉम की छात्रा हैं, जिन्हें सामाजिक मुद्दों पर काम करना पसंद है।

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