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बेहतर कल के लिए हिमालय की खूबसूरती को बचाए रखना है बहुत ज़रूरी

भारतीय उपमहाद्वीप की भूदृश्यावली, जैवविविधता, वनस्पति जीवन-चक्र, मौनसून आधारित कृषि पंचांग, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अवधारणाओं से लेकर उत्सवों तक का नियंत्रण एवं निर्धारण हिमालय की भौगोलिक उपस्थिति से ही होता है।

भारतीय उपमहाद्वीप के लिए हिमालय सीमा रेखा भी है, मौसम और मानसून को नियंत्रित व लयबद्ध करने वाली विशालकाय आड भी, परंतु यही हिमालय आज प्राकृतिक विपदाओं का केन्द्र बनकर जन जीवन पर कहर बरपा रहा है।

निरंतर बादलों का फटना, बढ़ता, भूस्खलन, अनियमित वर्षाचक्र, बाढ़ रूपी लगातार जारी जलप्रलय हिमालय के टूटते और बिगड़ते पर्यावरण के स्पष्ट संकेत हैं। विडंबना यह है कि यह बर्बादी प्राकृतिक नहीं स्वयं मानव निर्मित है।

अभी तक किशोरावस्था में है हिमालय

हिमालय पर्वत श्रृंखला दुनिया की सबसे नवीन पर्वत श्रृंखला है, जो अभी तक अपनी किशोर अवस्था में अर्थात निर्माण की प्रक्रिया में है, इसलिए इसका पर्यावरण विशिष्ट एवं बेहद नाज़ुक है।

दुनिया के विकास पुरुषों की चिंता के केन्द्र में इस नीले ग्रह की खूबसूरती और हिमालय के पर्यावरण से कहीं अधिक औद्योगिक विकास का जुनून है। यही कारण है कि हिमालय आज औद्योगिक विकास को गति देने के लिए बढ़ती ऊर्जा मांग की पूर्ति का एक स्रोत एवं साधन मात्र बनकर रह गया है।

विकास के लिए हिमालय का दोहन

इसी उर्जा उत्पादन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बांध निर्माण की जैसे बाढ़ सी आ गई है। अभी हिमालय क्षेत्र में छोटे-बड़े कुल मिलाकर साढ़े पांच सौ के लगभग बाधों का निमार्ण ज़ोरों पर है, जिसके लिए पानी के प्रवाह को बांधा जा रहा है, नदियों को सुरंगों में धकेला जा रहा है या छोटी-बड़ी बस्तियों और शहरों को उजाड़कर विशालकाय झीलों में बदल दिया गया है।

पूरे हिमालय क्षेत्र में पर्यटन, तीर्थाटन और विकास के नाम पर सड़कों का बड़ा नेटवर्क तैयार हो चुका है, जिससे पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों एवं वाहनों की आवाजाही बढ़ी है। आम आदमी के लिए देव भूमि कहलाने वाला हिमालय न्याय पालिका के तमाम अवरोधी निर्णयों के बावजूद भूमाफियाओं, नौकरशाहो एवं राजनेताओं के भ्रष्ट गठबंधन की मुनाफाखोरी के स्वर्ग में परिवर्तित हो चुका है।

सरकार ग्लोबल वॉर्मिंग और ग्लेशियरों के पिघलने में कमी के कितने ही दावे करें मगर यह बगैर किसी विषेशज्ञता के नंगी आंखों से दिखाई देने वाला सच है कि गंगा के उद्गम गंगोत्री, ग्लेशियर के पिघलने के कारण गोमुख से सताईस किलोमीटर ऊपर खिसक चुका है, जिसके लिए तीर्थ-यात्रियों को डेढ़ दिन का अधिक सफर करना पड़ता है।

ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभाव उत्तराखंड का एक गरीब अनपढ़ किसान भी बता सकता है, जिसे अपने पंपरागत जल स्रोतों के सूख जाने के कारण रोज़ कई किलोमीटर चलकर पेयजल का इंतज़ाम करना पड़ता है।

चमोली के फूलों की घाटी तबाही का दे रही है संदेश

पहाड़ के मौसम बदलने की साक्षी विश्व प्रसिद्ध चमोली में फूलों की घाटी भी है, जिसमें अगस्त तक फूल खिलने से बहार आती थी मगर अब फूल मई महीने में खिल जाते हैं। संभवतया यह अब तब के मानव इतिहास की एकमात्र घटना होगी, जो फूलों के खिलने से तबाही का पता देती है।

औद्योगिक विकास जनित ग्लोबल वॉर्मिंग का प्रभाव उच्चारण केवल ग्लेशियरों के पिघलने में ही परिलक्षित नहीं हो रहा है। यह हिमालय के तापमान में हुई बढ़ोतरी और उसके दुष्प्रभावों में भी दिखाई देता है। फलों के बदलते स्वाद से लेकर जैव विविधता के लिए पैदा होती चुनौतियों और लुप्त होती कई वनस्पतियों से भी यह अनुवादित हो रहा है।

लेह-लद्दाख में बदलता मौसम

बढ़ते तापमान को हम लेह में घूमते पर्यटकों एवं वहां के युवक-युवतियों के शरीर पर दिखाई देने वाली आधी बांह की टी-शर्ट्स में देख सकते हैं। यह केवल नई जीवन शैली का मसला नहीं है, पूरे हिमालय क्षेत्र में लोगों के बदन से घटते कपड़े, इंसानी बदन पर पढ़ी जा सकने वाली बढ़ते तापमान की सीधी-सरल कथा है। यह तापमान की बढ़ोतरी ही कुछ सालों पहले घटी लेह की त्रासद कथा की रचियता है, सिक्किम और उत्तराखण्ड के फटले बादलों की भयावह दास्तान है।

बढ़ती गर्मी ने स्थानीय जल स्रोतों एवं वनस्पतियों से वाष्पीकरण में तेज़ी आई है और आद्रतायुक्त गर्म हवाओं ने ऊपर ठंडे वातावरण में पहुंचकर संघनन क्रिया के तहत घने बादलों का निर्माण किया और तेज़ ठंडी हवाओं के संपर्क में आने से बादल फटने की भयावह घटनाएं बन रही हैं।

ये घटनाएं अक्सर अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ही घटती हैं। तापमान के निरंतर बढ़ते जाने से वाष्पीकरण की प्रक्रिया में आई तेज़ी इस बदलती जीवन शैली और बदलती आजीविका की ज़मीन तैयार कर रही है। इस बढ़ते तापमान ने हिमालयी समाजों की आजीविका और जीवन पर गंभीर असर डाला है।

बढ़ती गर्मी का पेयजल के परंपरागत स्रोतों पहाड़ी झालों के सूख जाने के अलावा पशुपालक घुमंतू समाजों के कृषि पर निर्भर समाज में परिवर्तित होने में भी परिलक्षित होता है, जिस कारण लेह क्षेत्र में कृषि वनस्पतियों के उत्पादन में बढ़ोतरी आई और ठंडे रेगिस्तान की शुष्क हवाओं में नमी का कारण बनी।

लेह-लद्दाख के केन्द्र शासित प्रदेश बढ़ने से खतरा और बढ़ रहा है

अब लेह-लद्दाख के अलग केन्द्र शासित प्रदेश बन जाने से इस क्षेत्र में खतरे और बढ़े हैं। यह क्षेत्र हिमाचल और उत्तराखण्ड की तरह तथाकथित नए विकास की अंधी दौड में फंसकर नई पर्यावरणीय चुनौतियों के सामने खड़ा होगा और कथित रूप से नई तरह की मानव निर्मित आपदाओं की बाढ़ में फंस जाएगा, जिसे इन आपदाओं के रचियता विकास पुरूष प्राकृतिक विपदाओं का नाम देकर इसका दोष भी निर्दोष और निरपराध कुदरत पर मढ़ देंगे।

दरअसल, अब समय विकास की वर्तमान चाल पर पुर्नविचार करने एवं एक वैकल्पिक विकास की नई राह चुनने का है, जिससे विकास को पर्यावरण के अनुकूल बनाया जा सके और हिमालय का अस्तित्व बच सके, क्योंकि हिमालय बचेगा तो देश बचेगा और हिमालय रूठेगा तो देश टूटेगा।

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