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“कश्मीर के नागरिकों के अधिकारों को छीनने वाली यह कैसी शांति व्यवस्था है?”

अमित शाह

अमित शाह

5 अगस्त 2019 को केन्द्र की भाजपा सरकार ने जम्मू कश्मीर से विशेष राज्य के दर्जे़ को छीनकर वहां से अनुच्छेद 370 का प्रभाव खत्म कर दिया। इसके साथ ही पूरे कश्मीर में लॉकडाउन जैसी स्थिति बना दी गई, जिससे पूरे कश्मीर के आम जनमानस के रोज़मर्रा की ज़िन्दगी एक कैद बन कर रह गई।

कश्मीर के सभी विपक्षी नेताओं को नज़रबंद कर दिया गया, जिनमें पीडीपी और नैशनल कॉन्फ्रेंस के सभी बड़े नेता शामिल थे। सभी नेताओं को यह कहकर नज़रबंद किया गया कि ये लोग कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद शांति व्यवस्था कायम रखने में बाधक साबित होंगे।

अनुच्छेद 370 हटने के बाद कश्मीर

कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के तुरन्त बाद की तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

पूरे कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गए और वहां के नागरिकों में सरकार के इस कदम के खिलाफ भरपूर गुस्सा व्याप्त था। सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला पर पीएसए लगाया गया और उन्हें दो साल के लिए नज़रबंद कर दिया गया।

हालांकि फारूक अब्दुल्ला को हिरासत में लिए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और 30 सितंबर तक जवाब देने को कहा।

इसके बाद उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती, पूर्व IAS शाह फैसल, नैशनल कान्फ्रेंस के नेता अली मोहम्मद सागर और पीडीपी के नेता सरताज मदनी पर पीएसए लगाया गया है। कश्मीर सहित पूरे देश में इस कदम के खिलाफ भरपूर गुस्सा है।

लोग इसे सरकार का एक निरंकुश कदम बता रहे हैं। लगभग 10 से अधिक कश्मीरी नेताओं को सरकार एक बांड सिग्नेचर कराकर इस शर्त पर रिहा कर रही है कि वे कश्मीर में केन्द्र सरकार के फैसले के खिलाफ किसी भी गतिविधि में भाग नहीं लेंगे और ना ही किसी भी तरह की टिप्पणी इसके खिलाफ करेंगे।

उमर एवं महबूबा पर PSA लगने पर चिदंबरम ने क्या कहा?

पी चिदंबरम। फोटो साभार- सोशल मीडिया

गुरुवार 6 फरवरी को सरकार ने उमर अब्दुल्ला और पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती पर पीएसए लगाया, जिस पर ट्वीट करते हुए चिदंबरम ने कहा कि दोनों नेताओं पर लगाए गए पीएसए से मैं हैरान हूं। 

पी. चिदंबरम ने कहा,

उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और अन्य के खिलाफ पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) की इस आधारहीन कार्रवाई से मैं हैरान हूं। आरोपों के बिना किसी पर कार्रवाई लोकतंत्र का सबसे घटिया कदम होता है। जब अन्यायपूर्ण कानून पारित किए जाते हैं या अन्यायपूर्ण कानून लागू किए जाते हैं, तो लोगों के पास शांति से विरोध करने के अलावा क्या विकल्प होता है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए पी. चिदंबरम ने कहा, “प्रधानमंत्री का कहना है कि विरोध प्रदर्शन से अराजकता होगी और संसद-विधानसभाओं द्वारा पारित कानूनों का पालन करना होगा। वह इतिहास में महात्मा गाँधी, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला के प्रेरक उदाहरणों को भूल गए हैं। शांतिपूर्ण प्रतिरोध और सविनय अवज्ञा के माध्यम से अन्यायपूर्ण कानूनों का विरोध किया जाना चाहिए। यह सत्याग्रह है और कश्मीर सहित देश की तमाम अमनपसंद जनता इसमें शामिल है।”

क्या है सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम?

पूर्व मुख्यमंत्री और फारूक अब्दुल्ला। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम बिना मुकदमे के किसी भी व्यक्ति को दो साल तक की गिरफ्तारी या नज़रबंदी की अनुमति देता है। यह कानून 1970 के दशक में आया और इसे जम्मू–कश्मीर में लकड़ी की तस्करी को रोकने के लिए लागू किया गया था, क्योंकि उस समय ऐसे अपराध में शामिल लोग मामूली हिरासत के बाद आसानी से छूट जाते थे।

पूर्व मुख्यमंत्री और फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला लकड़ी तस्करों के खिलाफ इस अधिनियम को एक निवारक के रूप में लाए थे, जिसके तहत बिना किसी मुकदमे के दो साल तक जेल की सज़ा देने का प्रावधान किया गया था।

1990 के दशक की शुरुआत में जब राज्य में उग्रवाद भड़का तो पब्लिक सेफ्टी एक्ट (PSA) पुलिस और सुरक्षा बलों के काम आया। 1990 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जब राज्य में विवादास्पद सशस्त्र बल अधिनियम को लागू किया, तब बड़े पैमाने पर PSA का इस्तेमाल लोगों को पकड़ने के लिए किया गया। PSA के तहत हिरासत की एक आधिकारिक समिति द्वारा समय समय पर समीक्षा की जाती है और इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

PSA क्यों संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है?

फोटो साभार- सोशल मीडिया

देश का संविधान प्रत्येक नागरिक को इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता देता है कि वह सरकार या राज्य के किसी भी फैसले के खिलाफ शान्तिपूर्ण और संवैधानिक तरीके से विरोध प्रदर्शन की आज़ादी है लेकिन सवाल यह है कि अगर सरकार कश्मीर को भारतीय संविधान की लोकतांत्रिक नीतियों के आधार पर चलाना चाहती है, तो वह संविधान के मूल अधिकारों से ही क्यों वहां के नागरिकों और राजनेताओें को वंचित कर रही है?

सवाल यह भी है कि अगर सरकार कश्मीर के अपने फैसले को लेकर इतना विश्वास में है, तो उसे आखिर कश्मीर की जनता के खुले विरोध प्रदर्शनों से क्यों डर है? संविधान का अनुच्छेद 21 नागरिकों को जीवन की स्वतंत्रता का अधिकार देता है लेकिन कश्मीर में सरकार नागरिकों के इस अधिकार का उल्लंघन कर जीवन जीने की शर्तें तय कर रही है।

7 महीने से अव्यवस्थित है कश्मीर की ज़िन्दगी

फोटो साभार- सोशल मीडिया

पूरे कश्मीर में पिछले 7 महीनों से जिस तरह की अव्यवस्था है, उससे वहां के लोगों के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और बुनियादी सुविधाओं पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। पूरे कश्मीर में पिछले कई महीनों से इंटरनेट पूरी तरह से बंद रहने के बावजूद सरकार यही राग अलापती रही कि इससे कश्मीर में शांति व्यवस्था बनी रहेगी। 

किसी राज्य के नागरिकों को बुनियादों सुविधाओं और संवैधानिक अधिकारों से वंचित करके वहां किस तरह की शांति व्यवस्था लाने की बात की जा रही है, यह समझ से परे है।

सरकार लगातार इस बात का दावा कर रही है कि कश्मीर में सब कुछ ठीक है मगर तमाम अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियां यह सच्चाई लगातार दिखा रही हैं कि कश्मीर के लोग किन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं। आज भले कश्मीर में इंटरनेट चालू कर दिया गया है मगर वह भी बहुत सीमित स्पीड में है। कश्मीर में अभी भी स्कूलों के खुलने के कोई आसार नहीं हैं और ना ही वहां पर्यटन सहित तमाम लोकल रोज़गार के सामान्य होने के कोई लक्षण फिलहाल दिखाई दे रहे हैं।

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