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“मैं हिन्दुस्तानी मुसलमान, मौजूदा हुकूमत के रवैये से उदास भी हूं और परेशान भी”

नाम मत पूछिए बस यह समझ लीजिए कि मैं आज़ाद भारत का मुल्कपरस्त मुसलमान हूं। आज से तकरीबन 70 साल पहले मोहम्मद अली जिन्ना ने मुझसे पाकिस्तान चलने के लिए कहा था, लेकिन मैंने मना कर दिया।

गाँधी जी से सहमत था इसलिए उनके साथ यहीं रुक गया। यहां रुकने के बाद मैंने पाकिस्तान की बात नहीं की क्योंकि वतनपरस्ती मेरे खून में रही है, तो हुब्बुलवतनी मेरे दिल में।

मैंने भिन्न-भिन्न रूप में देश की खातिर लोहा लिया

प्रतीकात्मक तस्वीर

मैं कभी ब्रिगेडियर उस्मान बनकर दुश्मन से लड़ते हुए शहीद हुआ, तो कभी अब्दुल कलाम बनकर देश की सेना के हाथों को मज़बूत किया। मैंने हमेशा हिंदुस्तान को ही अपना मुल्क माना। 1965 में अब्दुल हमीद की शक्ल में फौजी बना, तो कारगिल की जंग में कैप्टन हनीफ। जंग-ए-आज़ादी के दौरान मैंने क्या किया

मैंने जंग-ए-आज़ादी में अशफाकउल्ला खान की शक्ल में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ फांसी के फंदे को चूमा। भगत सिंह को फांसी से बचाने के लिए मैंने वकील आसफ अली की शक्ल ली। सच तो ये है कि मेरा कोई एक नाम नहीं है। देश की आज़ादी की लड़ाई की खातिर मुझे नवाब सिराजुद्दौला, खान अब्दुल गफ्फार खान, टीपू सुल्तान, बेगम हज़रत महल जैसे नामों से जाना गया।

मैंने मौलाना हुसैन अहमद मदनी की शक्ल में एक फतवा भी दिया था कि अंग्रेज़ों की फौज में शामिल होना हराम है। अंग्रेज़ी हुकूमत ने मेरे खिलाफ मुकदमा भी दायर किया। मुझसे पूछा गया कि फतवा मैंने दिया है? मैंने बेझिझक कहा, “हां मैंने दिया है।” मुझे फांसी की सज़ा का खौफ दिखा कर डराया गया। मैंने जज से कहा सज़ा देना आपका काम है, जो चाहें दे दें, फतवा देना मेरा काम है सो दे दिया। मैंने आगे कहा आपकी हुकूमत के खिलाफ आइंदा भी फतवे देता रहूंगा।

मुस्लिम समुदाय

1919 में आज़ादी की जंग को लड़ने के लिए मैंने एक संगठन “जमीअत उलमा-ए-हिन्द” बनाई थी न कि “जमीअत उलमा-ए-इस्लाम।”  मैंने मुस्लिम लीग द्वारा की गई अलग मुल्क की मांग को खारिज कर दिया था। सड़कों पर पाकिस्तान बनाए जाने के खिलाफ जलसे निकाले। मैं आज़ादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई में कांग्रेस के साथ था न कि मुस्लिम लीग के साथ। तब दुनिया ने मुझे एक और नाम मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से जाना। मुझे भारत में रुकने के लिए सबसे ज़्यादा मौलाना ने ही ज़ोर दिया था।

1857 की क्रांति में हम दोनो भाइयों ने मिलकर हिस्सा लिया

मैंने 1857 की क्रांति में भी हिन्दू भाइयों के साथ हिस्सा लिया था। उस जंग में मेरी एक लाख लाशें बिछा दी गईं थी। यही नहीं चांदनी चौक से खैबर तक जितने भी पेड़ थे उन पर मेरी लाशें लटका दी गईं थीं।

अंग्रेज़ी हुकूमत की मुखालफत के लिए मुझे भी दूसरों की तरह कोड़े लगाए जाते थे। मुझे कभी फांसी की सज़ा हुई तो कभी काला पानी भेजा गया। आज़ादी की लड़ाई को और धार देने के लिए मैंने रेशमी रुमाल तहरीक शुरू की थी।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के शब्द

मैं कशमकश में था कि अमृतसर और लाहौर के बीच जो लाइन सिरिन रेडक्लि ने खींची, जाऊं किधर? तब मौलाना ने जामा मस्जिद की दीवार से खड़े होकर आवाज़ दी और कहा,

आज मुझे जो कहना है उसे बिना रुके हुए कहना चाहता हूं। हिंदुस्तान का बंटवारा बुनियादी तौर पर गलत था। मज़हबी इख्तिलाफात को जिस तरह से हवा दी गई, उसके नतीजे यही थे, जिसे आज हमने अपनी आंखों से देखा।

वह यही नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा,

समझ लो तुम भागने के लिए तैयार नहीं तो फिर कोई ताक़त तुम्हें यहां से नहीं भगा सकती। आओ अहद (क़सम) करो कि यह मुल्क हमारा है। हम इसी के लिए हैं और इसकी तकदीर के बुनियादी फैसले हमारी आवाज़ के बगैर अधूरे ही रहेंगे। आखिर कहां जा रहे हो? और क्यों जा रहे हो? यह देखो मस्जिद की मीनारें तुमसे सवाल कर रही हैं कि तुमने अपनी तारीख के सफहात को कहां गुम कर दिया है? अभी कल की बात है कि यहीं जमुना के किनारे तुम्हारे काफिलों ने नमाज़ हेतु वज़ू (नमाज़ किया था। आज तुम हो कि तुम्हें यहां रहते हुए खौफ महसूस होता है। हालांकि देल्ही तुम्हारे खून की सींची हुई है।

यह आवाज़ सुनकर मैं यानी करोड़ों मुसलमान, हिंदुस्तान में ही ठहर गए। सभी ने यह अहद किया कि यह मेरा मुल्क है। यह माना कि इस की तकदीर के बुनियादी फैसले मेरी आवाज़ के बगैर अधूरे ही रहेंगे।

मैंने उफ्फ तक ना की

मैंने आज़ाद हिंदुस्तान को पहले अपने दादा की आंखों से देखा फिर अपने वालिद और अब अपनी अपनी आंखों से देख रहा हूं। मैंने आज़ादी से लेकर अब तक कई सारे मंज़र देखे और उदास हुआ। मामला अदालत में होने के बावजूद भी 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी गई। देश की सबसे बड़ी अदालत ने 9 नवंबर 2019 को फैसला सुनाया लेकिन मैंने उफ़ तक नहीं की। जो फैसला हुआ खुशी खुशी कुबूल कर लिया न जलसा, न जुलूस, न मुखालफत।

2002 को याद कीजिए, गुजरात में मेरा कत्ल-ए-आम किया गया, मैं सड़कों पर रोता रहा, चीखता रहा, ज़ख्मी होकर दर्द से तड़पता रहा, छटपटाता रहा।  मेरी लाशें जगह जगह सड़ती रहीं। मेरी बेटियों के दुपट्टे उतार फेकें गए, उनकी अस्मत लूटी गई। आखिर अल्पसंख्यक होने की कैसी कीमत चुकानी पड़ रही है। अगर मैं अक्सरियत होता तो क्या यह मुमकिन था? जो लोग इसे गोधरा का बदला कहते हैं तो मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि बदला उनसे लेना चाहिए था जिन्होंने गोधरा को अंजाम दिया था।

मैं अगर अब्दुल कलाम के नाम से था तो कुछ लोग सतीश धवन, विक्रम साराभाई नाम से थे। कोई मेरा दोस्त था, तो कोई रहनुमा। मेरा इस बात पर ज़रा भी यकीन नहीं कि तमाम कौम गलत हो सकती हैं।  कौम कोई भी हो, गलत कुछ लोग ही होते हैं। मेरे लिए बुरी यादों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाना ही ज़िन्दगी है।

मैंने एक नई ज़िन्दगी शुरू की

कभी ज़हीर खान, इरफान पठान बन कर क्रिकेट खेला तो कभी सानिया मिर्ज़ा बन कर टेनिस। मुझे दुनिया दिलीप कुमार के नाम से आज भी जानती है, जबकि मेरा असली नाम यूसुफ खान है।

मुझे लोग मीना कुमारी के नाम से पहचानते हैं लेकिन मेरा असली नाम महजबीं बानो है। पर्दे के पीछे मेरा नाम मोहम्मद रफी, मोहम्मद अज़ीज़ है तो पर्दे के आगे शाहरुख, सलमान, आमिर है।

मेरे मुल्क ने भी मुझे बहुत दिया

ऐसा नहीं कि मुझे इस मुल्क में इज़्ज़त नहीं मिली। मुझे ज़ाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद की शक्ल में हिंदुस्तानी सदर का ओहदा मिला। यहां तक कि मुझे शहनाई बजाने के लिए भी हिंदुस्तान के सबसे बड़े एज़ाज़ भारतरत्न से नवाज़ा गया।

अब्दुल हमीद को वीर अब्दुल हमीद कहकर ‘परमवीर चक्र’ दिया गया।  महमूद हुसैन मदनी की शक्ल में ‘पद्म भूषण’ दिया गया।

आज मैं उदास हूं

आज मैं बहुत तकलीफ में हूं। मौजूदा हुकूमत के रवैये से उदास भी हूं और परेशान भी। मुझे अक्सरियत और बाकी अक्लियतों की तुलना में अलग नज़र से देखा जा रहा है। मेरे खिलाफ तरह तरह के कानून बनाए जा रहे हैं।  ऐसे कानून जिसमें मुझे छोड़ कर सबको जगह दी जा रही है।

मुझे इस मुल्क में दूसरे दर्जे का शहरी बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है। मुझसे मेरे बुनियादी हुकूक छीनने की बात की जा रही है। मुझे अपने ही मुल्क में मुहाजिर बनने को मजबूर किया जा रहा है। कैद की ज़िन्दगी देने के मंसूबे बनाए जा रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि मेरे अजदाद अपना हिस्सा ले चुके हैं, अब इस मुल्क में मेरा कोई हिस्सा नहीं है। मुझसे वतन परस्ती के कागज़ मांगे जा रहे हैं। हुब्बुलवतनी के सुबूत पेश करने को कहा जा रहा है।

मैं इस मुल्क से ना तो उस वक्त जाना चाहता था और ना ही आज

मुझे यहां की जम्हूरियत से दूर करने की कवायद शुरू हो चुकी है। जिस जमुना के किनारों पर मैंने वज़ू किया था, आज उसी जमुना का पानी मुझ से छीना जा रहा है। जिस दिल्ली को मैंने खून से सींचा था, आज उसी दिल्ली में मुझे ख़ौफ़ज़दा किया जा रहा है। मुझे यह एहसास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि अब यह मुल्क मेरा नहीं रहा और मैं इसका नहीं रहा।

अब इस मुल्क की तकदीर के फैसले मेरी आवाज़ के बगैर ही पूरे हो रहे हैं। आलम तो यह है कि मेरी ही तकदीर का फैसला मेरी आवाज़ के बगैर हो रहा है। जिस दो कौमी नज़रिए यानी Two Nation Theory की कभी मैंने अबुल कलाम आज़ाद बन कर तो कभी “जमीअत उलेमा-ए-हिंद” तंज़ीम बना कर पुरज़ोर मुखालिफत की थी, मुल्क की मौजूदा हुकूमत दोबारा उस नज़रिए को ज़िंदा कर रही है।

आज हुकूमत बंटवारे के वक़्त शक करने वालों के वहम को सही साबित कर रही है। उन तमाम लोगों को सही साबित करने की कोशिश में है जिन्होंने सिरिल रेडक्लिफ द्वारा खींची रेखा के उस पार जाना बेहतर समझा।

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