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“आरक्षण को मूल अधिकार से अलग कहना ब्राह्मणवादी मानसिकता की पहचान है”

सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा है कि है कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के लिए आरक्षण की मांग करना मौलिक अधिकार नहीं है। मुझे उनके संवैधानिक और कानूनी ज्ञान पर तरस आ रहा है। कुलीन वर्ण वर्चस्ववादी मानसिकता के आगे हमारे जज साहिबान संविधान और कानून के मूल तत्व को भी भूल जाएंगे, ऐसा हमने कभी सोचा नहीं था।

भारत में आरक्षण क्यों और कैसे

भारत में हिंदू धर्म की प्रधानता है और इस धर्म में वर्ण व्यवस्था महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसके अंतर्गत समाज को चार भागों में बांटा गया है। वह है ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शुद्र वर्ण। इसके इतर जो इन चार वर्णों में नहीं आ पाए, उनको अंतयज कहा गया है। आज के समय में अंतयज दलित हैं।

दलित महासभा के दौरान अलग-अलग इलाकों से आए दलित समुदाए के लोग

वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज के शूद्र और अंतयज कहे जाने वाले वर्ग के लोगों को हज़ारों वर्षों तक शिक्षा और मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया। शास्त्रों में यहां तक प्रावधान कर दिया गया कि

समाज के बड़े वर्ग को मूलभूत अधिकारों से वंचित किया गया और साथ में उस वक्त यदि कोई व्यक्ति उसको प्राप्त करने की चेष्टा करे तो उसके लिए इतनी कठोर सज़ा के प्रावधान ने समाज के बड़े वर्ग को हज़ारों वर्ष पीछे धकेलने का काम किया है। यही कारण है कि आज की डेट में भारत के SC, ST, OBC समाज के लोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़े हैं।

इन्हीं पिछड़ेपन को सुधारने के लिए ऐतिहासिक अन्याय से पीड़ितों को न्याय देने के लिए और इन वर्ग के लोगों को समानता के अधिकार को देने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया और इसको केवल सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग तक सीमित रखा जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 15 और 16 में परिलक्षित है।

आरक्षण समानता का अधिकार तो फिर वह मौलिक अधिकार कैसे नहीं?

भारत का संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार देता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को कानून से पहले समानता का अधिकार देता है। इसका मतलब है कि राज्य ऐसा कोई भी कानून नहीं बनाएगा, जो लोगों के साथ धर्म, जाति, लिंग, रंग के आधार पर भेदभाव करने वाला हो। लेकिन अनुच्छेद 14 राज्य को रीज़नेबल क्लासिफिकेशन अर्थात मजबूत कारण वाले वर्गीकरण के आधार पर समाज के विशेष वर्ग के लिए विशेष प्रावधान करने की इजाज़त देता है। उदाहरण मंडल कमीशन को ले लीजिए तो वह समाज के ओबीसी वर्ग को रीज़नेबल क्लासिफिकेशन करके आरक्षण देने के लिए बनाया गया था।

जातिगत भेदभाव, प्रतीकात्मक तस्वीर

इंदिरा साहनी के जजमेंट में और उसके बाद और उससे पहले के बहुत सारे आरक्षण से संबंधित जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को मूल अधिकार कहा है क्योंकि आरक्षण समाज के सामाजिक शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग अर्थात अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग  के लोगों को विशेष अवसर प्रदान करता है और यह संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत अवसर की समानता में दिया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट संविधान की मूल भावना के खिलाफ

हमारे जज साहिबान ने समानता के अधिकार को प्राप्त करने के मौलिक टूल, आरक्षण को मौलिक अधिकार क्यों नहीं कहा, यह समझ से परे की बात है।

एक छोटा सा बालक भी समझ सकता है कि बाप का बेटा, बेटा होता है। उसी तरह से अनुच्छेद 14 अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 के द्वारा प्रदत अधिकार भी मूल अधिकार हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी के जजमेंट में अनुच्छेद 14 को संविधान का मूल स्ट्रक्चर बताया है। जिसमें किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ या बदलाव नहीं किया जा सकता। वहीं अनुच्छेद 16 को मूल अधिकार बताया है जिसके तहत  नागरिकों को अवसर की समानता प्राप्त है। यदि समानता का अधिकार मूल अधिकार है, तो फिर उसके तहत प्राप्त आरक्षण भी तो मूल अधिकार ही होगा ना।

सुप्रीम कोर्ट का यह जजमेंट उनके अपने संवैधानिक पीठ इंदिरा सैनी जजमेंट के खिलाफ है। आप क्रोनोलॉजी में यदि आरक्षण के कॉन्सेप्ट को समझेंगे, तो अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 16 अवसर की समानता प्रदान करता है और इसी अनुच्छेद के तहत आरक्षण दिया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट

SC, ST और OBC को आरक्षण से वंचित करने का षड्यंत्र

अवसर की समानता को प्राप्त करने के लिए आरक्षण सबसे बड़ा टूल है और इसी के माध्यम से अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों ने अपना कुछ हद तक प्रतिनिधित्व सरकारी संस्थानों में बनाया है। यह जजमेंट उनके मूल अधिकार को छीनने का काम कर रही है। इसलिए यह जजमेंट SC – ST विरोधी है।

मैं सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट से पूर्ण तरह असहमत हूं और यह अधिकार मुझे भारतीय संविधान के द्वारा मिला है। सुप्रीम कोर्ट का यह जजमेंट हमारे समाज में व्याप्त ब्राह्मणवादी कुलीन मानसिकता का परिणाम है, जो समाज के कमज़ोर वर्ग को हमेशा गुलाम बनाकर रखना चाहती है।

ब्राह्मणवादी तत्वों को यह पच नहीं रहा है कि समाज के दलित आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग अब उनके बराबर खड़े होने लगे हैं। उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा कि आज वंचित समाज अपने अधिकारों को जान चुके हा, अपने अधिकार को मांगने के लिए आगे आ रहा है। उनको यह बात पच नहीं रही है कि गाँव का गुलामी करने वाला दलित, आज उसके सामने खड़ा होकर बराबर के अधिकार मांगता है।

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