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“महिलाओं की अस्मिता को लेकर कितनी गंभीर है सरकार?”

फोटो साभार- Flickr

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महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तत्वाधान में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के लिए सभी स्कूलों और कॉलेजों के लिए दिशा निर्देश जरी किये थे।

इस वर्ष महिला दिवस की थीम “I Am Generation Equality: Realizing Women’s Rights” को साकार करने के लिए मंत्रालय ने सुझाव दिया है कि यह दिन महिला लक्ष्य-प्राप्तकर्ताओं पर केन्द्रित होना चाहिए।

छात्रों को सामाजिक अध्ययन की क्लास में महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में, विज्ञान की क्लास में महिला वैज्ञानिकों के बारे में, भाषा और साहित्य की क्लास में महिला कविओं और लेखकों के बारे में पढ़ाया जा सकता है।

सबसे पहले तो इस पहल के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय का बहुत-बहुत धन्यवाद। महिला दिवस इसलिए मनाया भी जाता है कि महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में बराबरी का हक दिलाया जा सके।

अब सवाल यह उठता है कि क्या इस एक दिन को महिला दिवस के रूप में मनाने से क्या महिलाओं को उनका हक और पहचान मिल पाएगा?

बड़े-बड़े आयोजनों में तथाकथित प्रगतिशील पुरुष महिलाओं के बारे में बड़ी- बड़ी बाते तो करते हैं लेकिन इन आयोजनों के इतर उनमें महिलाओं की मेरिट एवं अस्मिता के प्रति रत्ती भर भी संवेदना नही होती है।

यह दिवस इस बात की पड़ताल करने का सबसे मुफीद दिन है कि जहां एक तरफ हम महिलाओं के अधिकारों की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत जैसे देश में अधिकांश महिलाएं अपनी पहचान बनाने में अभी भी असफल नज़र क्यों आ रही हैं?

महिला हितों को लेकर देश की वर्तमान अवस्था

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

वर्तमान समय में अगर सिर्फ शिक्षा की बात की जाए तो जनगणना के आकड़ों से यह स्पष्ट है कि शिक्षित महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों से काफी कम है।

इसके कई कारण मुख्य रूप से देखने को मिलते हैं जिनमें “लड़कियां पराया धन हैं” जैसी सामाजिक मान्यताएं, असुरक्षित माहौल, स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था का ना हो होना आदि वे कारण हैं, जिनसे माता-पिता लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के प्रति हतोत्साहित होते हैं।

अगर इन सबके बावजूद लड़कियों को शिक्षा मिलती भी है तो समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक ढांचे के भीतर शिक्षा को जीवनोपयोगी औजार के रूप में बरकरार रखना मुश्किल हो जाता है।

आज लड़कियों की शिक्षा पर ज़ोर देने का सबसे बड़ा कारण उनकी वैल्यू बढ़ाकर उनकी शादी के लिए बेहतर अवसर सृजित करना है।

इससे उस पितृसत्तात्मक ढांचे का ही पोषण होता है जिसमें कि लड़की बेटी के रूप में परिवार की इज्ज़त, पत्नी के रूप में पति को काम पर जाने के लिए सहायता देने वाली, माँ के रूप में बच्चे का लालन-पालन करने वाली होती है। महिलाओं को कभी प्राथमिक कार्यकर्ता नहीं बल्कि हमेशा सहायिका की तरह ही देखा जाता है।

अस्मिता के संकट से जूझती महिलाएं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

अब यह बात करने की ज़रूरत है कि ये महिलाओं की अस्मिता का यह संकट किस रूप में है? भारत में महिलाओं को कभी देवी और कभी जननी के रूप में देखा जाता है लेकिन जब उनकी अपनी पहचान की बात की जाए तो कुछ खासा उत्तर नहीं निकल पाता है। शादी के पहले उसे पिता के नाम से और शादी के बाद पति के नाम से ही पहचान मिलती है।

मगर बात यही खत्म नहीं होती है। अगर महिलाएं जो 30 की उम्र या उससे अधिक हो तो हमारा समाज उसे अपने आप शादी-शुदा मान लेता है चाहे वे अविवाहित ही क्यों ना हों।

जैसे कि अगर आप अकेली हैं तो लोगों का आपको सार्वजनिक जगहों में भाभी कहकर पुकारना, अगर अस्पताल में हैं तो बस उम्र जानकर आपके नाम के आगे Mrs. लगाना और परचा तैयार। यह जानते हुए भी कि इसके बाद बेशक आपको कई तरह की समस्याएं ही क्यों ना हों।

अगर कुछ महिलाएं इस पितृसत्तात्मक ढांचे से बाहर आकर अपनी अलग पहचान बनाने में आगे बढ़ती भी हैं, तो उन्हें कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

आज के समय में बिना किसी दस्तावेज़ और पहचान-पत्र के आप आगे की पढ़ाई या बिज़नेस नहीं कर सकते या योजनाओं का लाभ नहीं उठा सकते, यह सब कुछ अब संस्थागत हो चुका है।

ऐसे दौर में जहां शादी के पहले महिलाओं की प्रारंभिक शिक्षा पिता के नाम से शुरू होती है, वहीं शादी के बाद उनके साथ पति का नाम जुड़ जाता है जिसके बाद उनके निवास स्थान से लेकर उनके आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र इत्यादि सभी में पति का नाम जुड़ जाता है।

उनकी पहचान पिता और पति की पहचान के साथ झूलती रहती है। पहचान का यह संकट उनको समाज में बराबरी का अधिकार देने में कितनी बड़ी बाधा है इसकी पड़ताल करने की ज़रूरत है।

क्या महिलाएं अपने अधिकारों को सुरक्षित करने में सफल हो पाएंगी?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

जहां एक ओर अर्थशास्त्री महिलाओं के घरेलू श्रम को देश की जी. डी. पी. का हिस्सा बनाने की सिफारिश करते हैं, वही इस वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा यह संकट उनके समूचे विकास में बड़ी बाधा है। यह महिला दिवस, एक दिवस के रूप में ही ना सिमटकर रह जए।

ज़रूरी यह है कि महिलाओं को आगे बढ़ाने के बजाय उन्हें खुद अपना रास्ता चुनने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो वे उस मुकाम पर पहुंचने लायक बन सकती हैं जहां उन्हें जाना है। कहानी बहुत लम्बी है। यह कहानी केवल उन महिलाओं के लिए है जो थोड़ी शिक्षित हैं और अपनी पहचान को लेकर सजग हैं।

वे महिलाए जिन्हें शिक्षा नसीब ही नहीं हुई है और जो अपनी पहचान को लेकर सजग नहीं हैं, उनकी कहानी कही जानी अभी बाकी है। सरकार से उम्मीद है कि बस महिलाओं के इस दिवस से आगे बढ़कर उनकी अपनी अस्मिता के लिए कुछ कदम उठाए जिससे कि वे पेंडुलम की तरह झूलती ना रहें बल्कि देश निर्माण में अपनी बेहतर भूमिका अदा कर सकें।

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