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मैं लिखता हूं, ताकि उनकी आवाज़ बन सकूं जो नहीं लिख पातें

ये तो वही बात हो गयी, जैसे कोई पूछे कि भाई तुम सांस क्यों लेते हो या इस नीली मेज़ से तुम्हे इतना प्यार क्यों है ! लिखना, जैसे मेरे सर पर एक छत का होना है। यह खिड़की के पास वाली नीली मेज़, जिस पर डायरियां धूल की तरह अटी पड़ी हैं, पता नहीं, कितने पन्ने इस मेज़ पर लिखता रहा। लोग कहते हैं, मैं बोलता बहुत हूं पर यह मेरे लिखे पन्ने मेरे बाद मुझसे ज़्यादा बोलेंगे।

हां जब से यह सवाल आया है कि “मैं क्यों लिखता हूं” तब से ज़रूर चुप बैठा हूं। किसी से कुछ कह नहीं पा रहा। पन्नों को भी नहीं ! ये भी क्या सवाल हुआ कि लिखना क्यों है! मुझे लगता है, लिखना इसलिए हैं क्योंकि कुछ लोग बोलते बहुत हैं, उन्हें आईना दिखाना है। लिखना है उन लोगों के लिए भी, जो बोल नहीं पाते। ये शब्द उनके बोल बन जाए, इसलिए भी लिखना है।

लिखना है उस “राजल” के लिए, जो अपनो की बेकद्री झेल, घर के बाहर एक बिस्तर पर पड़ी है। लिखना है उस “रौशनी” के लिए, जिसका इलाज करने के लिए डॉक्टर मना कर देता है। लिखना है खुद के लिए, जिसे अपने ही होने के अस्तित्व के लिए लम्बी जंग लड़नी पड़ रही है। लिखना है माँ के लिए, जो पापा की मौत के बाद 4 साल सिर्फ इसलिए नौकरी नहीं ज्वाइन कर पाईं क्योंकि समाज के ठेकेदारों ने कहा कि दहलीज लांघी तो इज्ज़त खो दोगी ! मैं लिखता हूं क्योंकि वो लोग बोल नहीं पाते, उनकी आंखों से निकले लफ्ज़ एक इबारत बने, इसलिए लिखता हूं।

मैं लिखता हूं क्योंकि कई बार जब अकेले में खुद के होने के वजूद की लड़ाई चल रही होती है तो ज़ुबान बोल नहीं पाती। तब उंगलियां बोल पड़ती हैं। काश कल ऐसा सूरज उगे जब दुनिया हमारे होने के अहसास को स्वीकार पाए। दुनिया बाइनरी नहीं होती, वह समझ पाएगी। दिल में पैदा होने वाले एहसास किसके लिए हैं, ये हमें खुद तय करने देगी, मैं इन सब वजहों के लिए लिखता हूं। ये लिखे शब्द तब उस दुनिया के लिए नज़ीर होंगे।

मैं लिखता हूं क्योंकि मुझे मेरे कमरे की दीवार पर रेंगती छिपकली से प्यार है। लिखना बंद कर दूंगा तो ट्यूबलाईट बंद करनी पड़ जाएगी। जो लाइट बंद हुई तो परवाने नहीं आयेंगे और फिर बेचारी छिपकली क्या खाएगी, तब वह कहां जायेगी? जब कलम की नींव की घिसती सी आवाज़ कमरे में गूंजती है तो ये छिपकली ही है तो किसी मौनी बाबा सी घूरती जाती है। हां, मैं लिखता हूं क्योंकि मुझे मेरे कमरे की हर एक चीज़ से प्यार है।

मुझे जीने का सलीका इसी लिखने ने सिखाया। आंखों के किसी पोर से निकलती पानी की बूंद जैसे प्यार के अहसास को ज़िंदा रखती है, वैसे ही लिखना हमारे वजूद को बनाये रखता है। जब भी लिखने बैठता हूं, शब्द पास की कुर्सी पर आकर बैठ जाते हैं, बड़ी देर तक गुफ्तगू करते हैं। मेरी तरह कुछ दिनों से नहीं बल्कि सालों से “क्वारेंटाइन” किए गए और यादों के किसी बक्से में बंद ये शब्द जब बाहर आकर बतियाते हैं तो उन तमाम दुश्वारियों, सुखों-दुखों, बेईमानियों, मुस्कुराहटों, चोरियों, इश्क की बातें करते हैं, जो ज़हन में कहीं दफन से हैं।

अब जो लिखना छोड़ दूंगा तो जीने का सलीका कहां से लाऊंगा!

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