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ईको साउंड सिस्टम और इत्रदान महल से लैस MP के रायसेन किले की हो रही है उपेक्षा

मध्यप्रदेश का रायसेन किला

मध्यप्रदेश का रायसेन किला

लंबे समय से अपने लिए वक्त नहीं निकाल पा रही थी। सोचा था कहीं बैठकर खुद से मिलने की कोशिश की जाए लेकिन महामारी की मार ने सारे ख्यालों को परे हटा दिया।

लेकिन जैसे-जैसे लॉकडाउन के दिन गुज़र रहे हैं, मन पाखी बन उड़ लेना चाहता है और मैं जानती हूं कि यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि हर किसी की है! हर कोई भाग जाना चाहता है अपने घरों की तरफ, बच्चे खेल के मैदानों में और हर दिहाड़ी कमाता अपनी दुकानों में!

लेकिन मैं? मैं तो इनमें से कुछ भी नहीं फिर क्यों भाग जाना चाहती हूं..? पता नहीं!

मध्यप्रदेश का रायसेन किला। फोटो साभार- सृष्टि तिवारी

लेकिन जाऊंगी कहां? कस्बानुमा शहरों में अपना कहने को कुछ नहीं होता सिवाय रास्ते के! इन रास्तों के अलावा भी कुछ है जो मुझे खींचता है। मेरे ज़िले की चोटी पर बना महल जिसका इतिहास बहुत विस्तृत है लेकिन उसे लेकर लोगों का नज़रिया उतना ही संकुचित।

मध्यप्रदेश का दिल कहा जाने वाला मेरा छोटा सा ज़िला रायसेन, जो राजधानी से एकदम नज़दीक ही पड़ता है। मालवा की पूर्वी पहाड़ी पर लगभग 1600 किमी की ऊंचाई पर बना एक खूबसूरत किला जिसे 11वीं शताब्दी में बनाया गया था।

जो मेरे कॉलेज के रास्ते में पड़ता और हर बार मेरा जी चाहता कि मैं पहाड़ी पर दौड़कर पहुंच जाऊं और उसे छू लूं। मैंने कईयों बार कितने ही मित्रों, परिचितों को मुझे वहां ले जाने को कहा लेकिन हर बार एक ही जवाब सुनना पड़ा, “कुछ नहीं है उधर क्या करोगी जाकर।”

शहर के अधिकांश लोग इस ऐतिहासिक किले से हैं अनभिज्ञ

मध्यप्रदेश का रायसेन किला। फोटो साभार- सृष्टि तिवारी

ऐसा नहीं था कि महल मैंने कभी देखे ना हों लेकिन अपने हिस्से का महल नहीं देख पाने की टीस अलग होती है। बशर्ते आप उसे महसूस कर पाएं तो सबके ना-नुकुर के बावजूद भी पहुंच गई थी मैं एक दिन वहां और उम्मीद है कि लॉकडाउन खत्म होने पर एक बार फिर पहुंच जाऊंगी वहां।

दूर से देखने तक बस इतना ही जाना था कि एक किला है जो मेरी नज़रों के रास्ते पर रोज़ पड़ता है लेकिन वहां जाने पर मैंने जाना बहुत कुछ था जो इतनी दूर से महसूस नहीं किया जा सकता था।

चलिए फिर आपको अपने शहर के इतिहास से मिलाती हूं और दावा है मेरा कि वहां बने मन्दिर-मज़ार के अलावा शहर को उसकी कोई खबर नहीं और शायद इसलिए महल अपने ढहने के दिन गिनने पर मजबूर है।

इत्रदान महल है आकर्षण का केन्द्र

मध्यप्रदेश का रायसेन किला। फोटो साभार- सृष्टि तिवारी

इस किले में जो भी महल हैं उन्हें बलुआ पत्थर से बनाया गया है। इस किले पर 14 अलग-अलग शासकों ने हमला किया था लेकिन इसकी बड़ी-बड़ी दीवारें अब भी सर उठाए खड़ी हैं जिनमें नौ दरवाज़े और 14 बुर्ज हैं। इतनी ऊंचाई पर बने इस इत्रदान महल को देखकर लगता है कि सच यह हवाओं में इत्र घोल रहा हो।

इत्रदान महल में बने छोटे-छोटे झरोखे इको सिस्टम का नायाब उदहारण भी हैं। छोटे-छोटे आलों में हौले से बोलने पर आप पाएंगे आवाज़ लगभग 20 फिट की दूरी पर बनी विपरीत दिशा की दीवार से लौटकर आ रही है। वहीं, दीवारों पर उभरे हैं शिलालेख जिन्हें देखकर लगता है कि अपनी ही कहानी दोबारा कह देना चाहते हों।

दुनिया का पहला और नायाब वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम

मैंने घूमतेघूमते सोचा अरे वाह महल के बीचोंबीच तो बावड़ी है मगर जब मन में थोड़ा कौतूहल जागा और यहां-वहां तलाशा तब जाना कि महल के बीच कोई बावड़ी नहीं बल्कि यह दुनिया का पहला और नायाब वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम माना गया है।

कितनी ही नालियां हैं जिन्हें कैसे बनाई गईं और पानी किस तरह इक्ट्ठा हो रहा है, इस बारे में अब तक कोई ठीक-ठाक नहीं बता पाया।

शेरशाह सूरी ने तांबे के सिक्के पिघलाकर तोपें बनवाई थीं

शेरशाह सूरी द्वारा बनवाई गई तांबे की तोप। फोटो साभार- सृष्टि तिवारी

रानी पद्मावती के जौहर को कौन नहीं जानता। उनके ही वंश की एक छत्राणि रहीं दुर्गावती जो कि राणा सांगा की पुत्री थीं। जिनका विवाह रायसेन के तोमर राजा सिल्हादी से हुआ।

रानी दुर्गावती ने बहादुर शाह के आक्रमण करने पर 700 राजपुतनियों के साथ मिलकर इस किले में जौहर किया था। 6 मई 1532 को हुए इस जौहर के प्रमाण रायसेन के गज़ेटियर में भी मिलते हैं।

15वीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने इस किले को जीतने के लिए तांबे के सिक्के पिघलाकर तोपें बनवाई थीं। जो आज भी इस किले में मौजूद हैं जिसका उल्लेख ‘आईने शेरशाही’ में भी मिलता है।

रखरखाव की सुध लेने वाला कोई नहीं!

मध्यप्रदेश का रायसेन किला। फोटो साभार- सृष्टि तिवारी

लेकिन दुखद है कि अब इनके रखरखाव की सुध लेने वाला कोई नहीं है। इस किले को लेकर प्रशासन, आम नागरिकों और रहवासियों की उदासीनता इसकी प्रासंगिकता को खत्म कर रही है। किले तक कौन जाता है, कैसे पहुंचता है इसका किसी को कोई ध्यान नहीं है, क्योंकि वहां कोई होता ही नहीं है।

यह सब देख-सुनकर दुख होता है कि धरोहरों को एक तरफ जहां हमें संभालकर रखने की ज़रूरत है, वहीं हम इनके साथ क्या कर रहे हैं? जहां एक ओर रायसेन ज़िले में ही आने वाले सांची, भीम वेटिका जैसे स्थल हैं जिन्हें यूनेस्को की सूची में शामिल किया गया है, वहीं ज़िले में ही खड़े खूबसूरत किले का उल्लेख पर्यटन की सूची से ही गायब है।

वह भी तब जब पुरातत्व विभाग ने इसे अपने संरक्षण में ले रखा है। उम्मीद है कोविड-19 से उभरने के बाद किसी दिन इत्रदान महल में बैठकर यादों को महकाता कोई गीत लिखूंगी।

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