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इथोपिया और म्यांमार से भी ज़्यादा गुलाम है भारतीय मीडिया

world press freedom report 2022

पत्रकारिता में नोबेल पाने वाले मार्खेज का मानना था कि पत्रकारों को मच्छर की तरह होना चाहिए, जो सत्ता में बैठे लोगों को हमेशा भनभना कर तंग करते रहें लेकिन भारतीय प्रेस के संदर्भ में यह कितना प्रासंगिक है?

क्या भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता के वर्तमान हालातों में ऐसा हो पाना मुमकिन है? यदि है भी तो जो पत्रकार सरकार के कानों पर भनभना रहे हैं, उनकी आलोचना कर रहे हैं, उनकी क्या हालत है?

विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 142वें स्थान पर

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

हाल में जारी की गई रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर की रिपोर्ट, वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2020 के मुताबिक, विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में दो पायदान नीचे गिरकर 142वें स्थान पर आ गया है।

पेरिस स्थित रिपोर्टर्स सैन्स फ्रन्टियर्स (आरएसएफ) यानी रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक गैर-सरकारी संस्था है, जो दुनियाभर के पत्रकारों और पत्रकारिता पर होने वाले हमलों को डॉक्यूमेंट करने और उनके खिलाफ आवाज़ उठाने का काम करता है।

प्रेस की आज़ादी का हो रहा है लगातार उल्लंघन

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

रिपोर्ट बताती है कि देश में प्रेस की आज़ादी का लगातार उल्लंघन हुआ है। यहां पुलिस ने भी पत्रकारों के खिलाफ हिंसात्मक कार्रवाई की है।

रिपोर्ट में भारत के इस सूचकांक में दो पायदान नीचे गिरने का कारण मीडिया पर हिंदू राष्ट्रवादी सरकार का बनाया गया दबाव बताया गया है।

वहीं, रिपोर्ट बताती है कि सोशल मीडिया पर उन पत्रकारों के खिलाफ सुनियोजित तरीके से घृणा फैलाई गई, जिन्होंने कुछ भी ऐसा लिखा या बोला था जो हिंदुत्व समर्थकों को अच्छा ना लगता हो।

हालांकि रिपोर्ट के अनुसार, साल 2019 में भारत में किसी भी पत्रकार की हत्या नहीं हुई। जबकि साल 2018 में पत्रकारों की हत्या के छह मामले सामने आए थे। भारत में मीडियाकर्मियों की सुरक्षा को लेकर स्थिति में थोड़ा सुधार आया है।

कश्मीरी फ्रीलांस फोटो पत्रकार मसरत ज़हरा का मामला

मसरत जहां। फोटो साभार- फेसबुक

यह रिपोर्ट इस बात का भी ज़िक्र करती है कि 2019 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कश्मीर के इतिहास का सबसे लंबा कर्फ्यू भी लगाया गया था। इस बीच हाल ही में कश्मीर में पत्रकारों को अलग-अलग तरह से परेशान किए जाने के कई मामले सामने आए हैं।

इनमें से पहला मामला 26 वर्षीय कश्मीरी फ्रीलांस फोटो पत्रकार मसरत ज़हरा का है। मसरत पर सरकार ने राष्ट्रविरोधी फेसबुक पोस्ट लिखकर लोगों को भड़काने का आरोप लगाया है। इस संबंध में उन पर यूएपीए के तहत मामला भी दर्ज़ कर दिया गया है।

मसरत बीते चार सालों से कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे वॉशिंगटन पोस्ट, गेटी इमेजेज़, अल-जज़ीरा आदि के लिए काम कर चुकी हैं। कश्मीर में घटने वाली घटनाओं और वहां की दिक्कतों को लेकर मोसर्रत ने लगातार रिपोर्टिंग की है।

मुख्य रूप से मसरत फोटो पत्रकार का काम करती हैं। बीते चार सालों से वह आम कश्मीरी लोगों पर हो रही हिंसा दिखाने की लगातार कोशिश करती रहीं हैं।

मसरत ज़हरा ने सुप्रीम कोर्ट में मामले के खिलाफ याचिका दायर की थी लेकिन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के इस भरोसे के बाद कि उनके खिलाफ लगे आरोप वापस ले लिए जाएंगे, उन्होंने इसे वापस ले लिया है।

फेक न्यूज़ लिखने के आरोप में आशिक पीरज़ादा को किया गया परेशान

आशिक पीरज़ादा। फोटो साभार- Twitter

दूसरा मामला राष्ट्रीय समाचार पत्र द हिंदू के संवाददाता आशिक पीरज़ादा का है, जिनको एक पुलिस हैंडआउट के अनुसार फेक न्यूज़ लिखने के आरोप में पुलिस ने समन जारी करते हुए थाने पर बुला लिया।

उन्हें इसके लिए लॉकडाउन के बीच श्रीनगर से लगभग 100 किलोमीटर दूर अपने घर से लंबा सफर तय करके थाने पहुंचना पड़ा।

आशिक ने एक मारे गए चरमपंथी के परिवार वालों का इंटरव्यू किया था जिसमें उनको यह कहते हुए दिखाया गया था कि प्रशासन ने उन्हें बारामुला में उनके घर से लगभग 160 किलोमीटर दूर दफन उस चरमपंथी की लाश को निकालने की अनुमति दी है।

गौहर गिलानी पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज़ किया गया है

गौहर गिलानी। फोटो साभार- फेसबुक

तीसरा मामला कश्मीर के ही एक लेखक और पत्रकार गौहर गिलानी से जुड़ा है। उन पर भी यूएपीए के तहत मामला दर्ज़ कर दिया गया है। पुलिस की ओर से जारी किए गए बयान में आरोप लगाया गया है कि गौहर गिलानी कश्मीर में चरमपंथी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली बातें करते हैं।

सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट के ज़रिये वह गैरकानूनी गतिविधियों में भी शामिल हैं, जो कि देश की एकता के लिए खतरा है।  साइबर पुलिस का कहना है कि गौहर गिलानी के खिलाफ कई शिकायतें मिली थीं जिसके बाद उनके खिलाफ केस दर्ज़ किया गया है।

गौहर गिलानी ने फेसबुक पर अपने हालिया पोस्ट में लिखा था,

उम्मीद है कि ‘शुद्धीकरण’ की प्रक्रिया या प्रवचन व्यक्तिगत, तुच्छ और धार्मिक नहीं बनेंगे। हर किसी को सभ्य तरीके से सभी तरह के विचारों का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि विविधता से भरी दुनिया में विचारों की एकरूपता नहीं हो सकती है। एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचार रखने का अधिकार। प्रतिशोधी मत बनो, दयालु बनो सज्जन बनो।

पुलिस के पास नहीं है इन पत्रकारों के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, तीनों पत्रकारों के बारे में पुलिस के बयानों में आपत्तिजनक बताए गए लेखों का कोई ब्यौरा नहीं है। 

कश्मीर में जब से विशेष राज्य के दर्ज़े को समाप्त किया गया है, तब लेकर अब तक पत्रकारिता किसी-ना-किसी रूप में प्रभावित रही है।

श्रीनगर स्थित पत्रकार रियाज़ मलिक बीबीसी से कहते हैं, “आधिकारिक तौर पर तो कोई पाबंदी नहीं है मगर जब कुछ लिखने पर सज़ा मिल सकती है, तो यह पाबंदी की तरह ही है।”

सरकार बनना चाहती है एकमात्र सूचना का स्त्रोत

प्रो. अपूर्वानंद, दिल्ली विश्वविद्यालय।

न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार विज्ञापनदाताओं पर दबाव बनाती है और लगभग 130 करोड़ लोगों तक पहुंचने वाली सूचनाओं को अपने हिसाब से चलाने के लिए कई चैनलों पर पाबंदी भी लगा चुकी है।

इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. अपूर्वानंद कहते हैं, “सूचना का सिर्फ एकमात्र स्त्रोत राज्य खुद बनना चाहता है। वह अपनी सूचना पर कोई सवाल नहीं खड़े होने देना चाहता है। यही कारण है कि सूचना के अन्य माध्यमों पर वह तमाम तरीकों से लगातार दबाव बनाने की कोशिश करता रहता है।”

प्रेस और जनतंत्र के संबंधों पर बात करते हुए वो आगे बताते हैं कि आज से लगभग सौ साल पहले माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था, “आज के सबसे बड़े विश्वविद्यालय और पाठशाला अखबार हैं क्योंकि इससे लोग आसानी से जानकारियां हासिल कर सकते हैं।”

वर्तमान दौर में टेलीविज़न ने उनकी इस बात के मायने और भी बढ़ा दिए हैं क्योंकि टेलीविज़न के माध्यम से जो साक्षर नहीं हैं, वे भी आसानी से सूचना हासिल कर सकते हैं।

यही कारण है कि माखनलाल चतुर्वेदी ऐसा मानते थे कि विश्वविद्यालयों से ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी इन माध्यमों की है। इस तरह प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब नागरिकों के जानने की स्वतंत्रता से है। इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि नागरिकों तक सूचनाएं पहुंचाने वाले माध्यम आज़ाद और ज़िम्मेदार होकर काम करें। 

देश में प्रेस को पाबंद करने का होता रहा है प्रयास

मीडियावन चैनल के एंकर विनेश कुन्हीरमन। फोटो साभार- फेसबुक

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और किसी भी लोकतांत्रिक देश में प्रेस का स्वतंत्र होना बहुत ज़रूरी हो जाता है लेकिन भारत में पिछले कुछ समय में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जब प्रेस की आज़ादी को रोकने के प्रयास हुए हैं।

ऐसी ही एक घटना मीडियावन चैनल के एंकर विनेश कुन्हीरमन के 6 मार्च को ऑन एयर जाने से पहले घटी। आचानक उनके शो के शुरू होने से पहले ही उनके चैनल की अपलिंकिंग बंद हो जाती है।

बाद में पता चलता है कि यह कोई तकनीकी दिक्कत नहीं थी, बल्कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक आदेश से चैनल को बंद कर दिया गया था।

सरकार ने 48 घंटे के लिए चैनल को ब्लॉक करने का फैसला किया था, क्योंकि चैनल ने फरवरी की सबसे बड़ी खबर, ‘नई दिल्ली में मुसलमानों पर भीड़ का हमला जो व्यापक अशांति में भड़क गया’, को कवर किया था।

जारी आदेश में कहा गया, “रिपोर्ट को इस तरह से कवर किया गया है जिससे दिल्ली पुलिस और आरएसएस की आलोचना होती दिखाई पड़ती है।”

इस पर मीडियावन के एडिटर आर. सुभाष का कहना था, “यह आश्चर्यजनक है कि केंद्र सरकार इस तरह के फैसले लेती है। यह प्रेस की आज़ादी पर एक हमला है।”

लॉकडाउन शुरू होने से पहले भी संपादकों को किया गया था आगाह

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- Getty Images

लॉकडाउन शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शीर्ष समाचार संपादकों के साथ एक मीटिंग की और उनसे सरकार के प्रयासों के बारे में ‘प्रेरक और सकारात्मक कहानियां’ प्रकाशित करने का आग्रह किया।  

इस बीच लॉकडाउन में लगभग पांच लाख से भी ज़्यादा प्रवासी मज़दूर देश के अलग-अलग हिस्सों में फंसे रहे। घर वापसी के दौरान राजमार्गों पर उनमें से कुछ की मौत हो गई।

लेकिन सरकार इस कोशिश में रही कि कैसे इन खबरों को रोका जा सके। इसी क्रम में मुख्यधारा की मीडिया ने भी अपनी आंखे मूंद ली।

इस दौरान सरकार के वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को इस बात के लिए भी राज़ी कर लिया कि वो सभी मीडिया संस्थानों को कोरोना वायरस के संबंध में ‘आधिकारिक सूचनाएं’ ही प्रकाशित करने के आदेश दें।

हालांकि आउटलेट्स को अभी भी स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग करने की अनुमति थी। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के मीडिया प्रो. सकुन्तला बानाजी न्यूयॉर्क टाइम्स से कहते हैं, “बीते छह सालों में मीडिया की स्थिति बिगड़ती गई है। ज़्यादातर मीडिया रिपोर्ट्स में सच्चाई और ज़िम्मेदारी का भाव नदारद है।”

मुख्यधारा का मीडिया खुद है प्रेस के गिरते स्तर का ज़िम्मेदार

विनीत कुमार, लेखक और मीडिया आलोचक।

‘मंडी में मीडिया’ के लेखक और मीडिया आलोचक विनीत कुमार मुख्यधारा की मीडिया के रवैये पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, “मौजूदा दौर में मीडिया सरकार या किसी भी रूप में दबाव या हस्तक्षेप से पहले ही अपने घुटने टेक देता है।” 

उनका कहना है कि प्रेस की आज़ादी और इसके गिरते स्तर के लिए मुख्यधारा का मीडिया खुद भी ज़िम्मेदार है। इसको इस संदर्भ में समझिए कि जो सुविधाएं, आज़ादी या आर्थिक स्तर उसे पर मिली हुई हैं, क्या उसमें वो प्रेस का काम उतनी ही ज़िम्मेदारी से कर रहा है जितनी ज़िम्मेदारी से उसे करना चाहिए?

मीडिया एक कारोबार हो चुका है जिसमें उसे अब नफा-नुकसान देखकर चलना है लेकिन नफा-नुकसान देखने की आज़ादी यानी कारोबार की आर्थिक आज़ादी मिल जाने के बाद भी मीडिया क्या नागरिक समाज की बेहतरी के लिए काम कर रहा है?

जब उसे अखबार छापने के लिए सस्ती दरों पर कागज़ मिल रहे हैं, चैनल चलाने के लिए सस्ती दरों पर ज़मीनें दी जा रही हैं, ऐसे में क्या वो मज़दूरों, किसानों, वंचितों की बात कर रहा है? यह एक बड़ा सवाल है?

जैसे ही प्रेस की आर्थिक और सुविधाओं के स्तर पर आज़ादी का सवाल आता है, उसके साथ ये सारे सवाल अपने आप ही जुड़ जाते हैं। वो आगे बताते हैं कि प्रेस के संबंध में जब भी उसकी आज़ादी पर बात होती है तो समझना होगा कि कारोबारी मीडिया की आज़ादी कितनी हो सकती है? 

जब तक सब्सक्रिप्शन बेस्ड मीडिया नहीं होगा तब तक कहीं-ना-कहीं प्रेस की आज़ादी का उल्लंघन होता रहेगा। उनका कहना है कि लॉकडाउन जैसी स्थिति और वैश्विक महामारी के दौर में भी कारोबारी मीडिया हिंदू-मुसलमान और सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले अपने डेली रूटीन के मुद्दों पर बहस कर रहा है।

ऐसे में अब सवाल यह नहीं है कि प्रेस की आज़ादी कितने खतरे में है, बल्कि इससे भी बड़ा सवाल यह है कि आर्थिक और सुविधाओं के स्तर पर प्रेस को जो आज़ादी मिली हुई है, उससे अब लोकतंत्र कितने खतरे में है?

वो आगे कहते हैं, “यही कारण है कि मैं बार-बार प्रेस की आज़ादी के सवाल के साथ वर्तमान में आर्थिक और सुविधाओं के स्तर पर मुख्यधारा की मीडिया को जो आज़ादी मिली हुई है उसके ठीक-ठीक इस्तेमाल ना होने का और लोकंतंत्र में मीडिया का खलनायक के रूप में उभरने का ज़िक्र कर रहा हूं।”

स्थानीय और ग्रामीण पत्रकारों को झेलनी पड़ती हैं दिक्कतें

पवन जायसवाल। फोटो साभार- फेसबुक

सरकार द्वारा स्थानीय और ग्रामीण पत्रकारों पर भी नकेल कसने की पूरी कोशिश की जाती रही है। हाल ही में बीते साल पवन जायसवाल नाम के एक स्थानीय पत्रकार ने मिर्ज़ापुर, उ.प्र. के एक स्कूल में बच्चों की नमक और रोटी खाने की खबर कर दी थी।  

इस खबर के बाद पवन पर एफआईआर दर्ज़ कर दी गई। यहां तक कि उनके खबर के सोर्स को भी गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में एक जांच के बाद उन पर से एफआईआर हटा ली गई लेकिन स्कूल के लोग काफी दिनों तक उनका पीछा करते रहें।

इस संबंध में मेनस्ट्रीम मीडिया को छोड़कर बिहार के दूर-दराज़ के इलाकों में बीते कुछ सालों से काम कर रहे बिहार मेल के संपादक विष्णु नारायन का कहना है,

ग्राउंड पर काम करने के दौरान हमें कई बार हाथों-हाथ लिया जाता है, क्योंकि वहां मेनस्ट्रीम मीडिया पहुंच ही नहीं रहा है। लोग आपके वहां पहुंचने भर से खुश रहते हैं कि उनकी बात कहीं तो पहुंचेगी। हालांकि ग्राउंड पर यदि आप बायसनेस के साथ काम करना चाहते हैं तो दिक्कत होती है।

उन्होंने आगे कहा, “हां कई बार खबर के संबंध में जब आप ऑफिशियल्स और अधिकारियों से बात करने की कोशिश करेंगे या किसी बड़े नेता से बात करेंगे, तो आपको कई दफा मेनस्ट्रीम का ना होने के फ्रेम में रखकर ज़रूर देखा जाता है।”

सेंसरशिप वाले देशों से भी नीचे है प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत

भारत में प्रेस की आज़ादी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर की रिपोर्ट, वैश्विक प्रेस सूचकांक 2020 में भारत कई ऐसे देशों से भी नीचे है जहां प्रेस पर सेंसरशिप तक लागू होती है।

कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नालिस्ट के अनुसार, विश्व के दस ऐसे देश जहां सेंसरशिप का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता है, उनमें से इथोपिया और म्यांमार शामिल हैं। वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2020 में ये दोनों ही देश भारत से ऊपर हैं।


संदर्भ- BBC, cpj.org, nytimes, narendramodi.in, caravan, BBC (मसरत ज़हरा वाले हिस्से के लिए), The Wire, barandbench.com, cpj.org (सेंसरशिप वाले देशों की सूचि के लिए)

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