पिछले करीब दो दशकों से अमूमन हर साल देश में कहीं-न-कहीं कोई आपदा आती रही है। वर्तमान में हम सब कोरोना आपदा से जूझ रहे हैं। इन तमाम तरह की आपदाओं में ज़्यादातर सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं का विशेष ज़ोर लोगों को भोजन, पानी, दवा, आवास आदि सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर होता है।इन सबके बीच जिस एक चीज़ की सबसे ज़्यादा अनदेखी की जाती रही है, वह है महिला स्वास्थ्य का मुद्दा। जिनमें से एक है माहवारी और इसके लिए उचित सुविधा सामग्री की उपलब्धता।
हाल ही में राजस्थान के उदयपुर के सुदूर इलाकों में रहने वाली कुछ लड़कियों ने इस संबंध में राज्य के मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर इस दिशा में मदद मांगी। जब उनका यह पत्र वायरल होने लगा, उसके बाद कुछ राज्य सरकारों ने इस दिशा में सोचना शुरू किया। इस साल वर्ल्ड मेंस्ट्रुअल हाइजीन डे के हैशटैग भी है #PeriodsInPandemics. इसके अलावा माहवारी से जुड़ी कुछ प्रमुख पहलुओं पर चर्चा बेहद ज़रूरी है।
खलती है सरकार की चुप्पी
फिलहाल कोविड-19 आपदा के दौरान देश के लगभग हर राज्य, ज़िला, ब्लॉक या गाँव में सरकार अथवा गैर-सरकारी संस्थाओं और स्थानीय लोगों द्वारा ज़रूरतमंदों के लिए राहत कैंप चलाए जा रहे हैं।
इन राहत कैंपों में कोई सूखा अनाज बांट रहा है तो कोई साबुन, सैनिटाइजर और मास्क। कहीं पका भोजन बांटा जा रहा है, तो कहीं बिस्किट, ब्रेड आदि। इनमें से बहुत कम संस्थाओं या संगठनों द्वारा अन्य राहत सामग्रियों के साथ महिलाओं को सैनिटरी पैड्स भी उपलब्ध करवाया जा रहा है। सरकारी तंत्र का रवैया भी इस दिशा में बेहद उदासीन है।
हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की जारी रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान भारत में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। वहीं, राष्ट्रीय महिला आयोग को मिलने वाली शिकायतें भी लॉकडाउन के दौरान बढ़कर दुगनी हो गई हैं।
बावजूद इसके इस संबंध में सरकार की चुप्पी यह बताने के लिए काफी है कि महिलाओं को ‘देवी’ की पदवी देने वाले इस देश में महिला अधिकार या महिला स्वास्थ्य की स्थिति कितनी बदतर है।
माहवारी स्वास्थ्य की शब्दावली से अब भी अनजान हैं कई महिलाएं
पिछले कुछ वर्षों से महिलाओं की माहवारी से जुड़ी समस्याओं को लेकर ना केवल महिलाओं ने, बल्कि कई पुरुषों ने भी मुखरता से आवाज़ उठाई है। इसकी वजह से पहले की तुलना में स्थिति में थोड़ा बदलाव तो हुआ है लेकिन अब भी यह बदलाव ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों या फिर शहरों से नजदीकी ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित है।
इनमें से कई क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां आज भी महिलाएं ‘सैनिटरी पैड’, ‘माहवारी स्वास्थ्य’ या ‘माहवारी सुरक्षा’ जैसे शब्दों से पूर्णत: अनभिज्ञ हैं।
माहवारी के क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं को भी नहीं है सरकारी ‘सुविधा’ की जानकारी
जुलाई 2018 में केंद्र सरकार द्वारा भारत में सैनिटरी नैपकिन के उत्पादन एवं बिक्री को टैक्स फ्री कर दिया गया। अगस्त, 2019 में सरकार की ओर से यह घोषणा की गयी कि देश के कुल 5500 ‘जन औषधि केंद्रों’ पर ‘सुविधा’ नामक ब्रांड के तहत एक पैक में चार पीस बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिंस की बिक्री की जाएगी यानी कि प्रति पीस 2.50 रुपये के हिसाब से सैनिटरी नैपकिन दिए जाएंगे।
हमने MHM के क्षेत्र में कार्यरत विभिन्न संस्थाओं से जब इस योजना की ज़मीनी हकीकत जाननी चाही, तो नीड्स संस्था के संस्थापक सह सचिव मुरारी मोहन चौधरी का कहना है,
हमारी संस्था पिछले करीब 22 वर्षों से MHM (Menstrual Hygiene Management) के मुद्दे पर काम कर रही है। इसके तहत हम माहवारी जागरूकता अभियान चलाने के साथ ही महिलाओं को रियूजेबल सैनिटरी पैड्स भी उपलब्ध कराते हैं। हमारे साथ इस अभियान में PHED (Public Health Engineering Department), आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा कार्यकर्ता सहित स्थानीय लोग भी शामिल हैं।
वो आगे बताते हैं कि इतने वर्षों में हमने ऐसी किसी सरकारी योजना के बारे में ना तो सुना और ना ही अपने कार्यक्षेत्रों में उसे संचालित होते देखा है। केंद्र सरकार के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के तहत भी गाँवों और शहरों में काफी सारी वॉल पेंटिंग्स की गई लेकिन माहवारी को लेकर कहीं कुछ नहीं किया गया। जबकि एमएचएम प्रोग्राम को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का एक प्रमुख हिस्सा माना गया है।
ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइवेसी, डिस्पोजल और मार्केट भी है बड़ी समस्या
पिछले दो महीने से जारी लॉकडाउन के दौरान हमने झारखंड के पांच ज़िलों में इस दिशा में एक सर्वे किया, जिसके परिणाम कुछ इस प्रकार प्राप्त हुए हैं:
- गाँव में लोगों के घर छोटे होते हैं और परिवार बड़ा, जिनमें पुरुष भी शामिल हैं। ऐसे में किशोरियों और महिलाओं के लिए फिलहाल प्राइवेसी एक बड़ी समस्या है कि वे माहवारी के दौरान पैड चेंज कैसे करेंगी? उसे किस तरह धोएंगीं और सुखायेंगी या कहां रखेंगी?
- ज़िले के कुछ स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों में किशोरियों और महिलाओं को सरकार द्वारा सैनिटरी पैड्स बांटे जा रहे थे लेकिन फिलहाल स्कूल बंद हैं और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी कोरोना सर्वे तथा दीदी किचन के संचालन में लगा दिया गया है। ऐसे में जिन किशोरियों और महिलाओं को पैड्स यूज करने की आदत हो गयी थी, उन्हें अब समस्या हो रही है।
- ऐसी ज्यादातर किशोरी और महिलाएं दिहाड़ी मज़दूर परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। उनके परिवार की आय फिलहाल अवरुद्ध हो गयी है। मार्केट तक उनकी पहुंच भी नहीं है, ऐसे में उन्हें पैड्स उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं।
इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए हमारी संस्था ने घर में ही रियूजेबल पैड्स कैसे बनाएं? इससे संबंधित एक छोटा-सा वीडियो बनाया है।
‘नीड्स’ दे रहा किशोरियों और महिलाओं को रियूजेबल पैड्स बनाने का प्रशिक्षण
हम पहले से भी कई किशोरियों और महिलाओं को रियूजेबल पैड्स बनाने की ट्रेनिंग दे रहे थे। वर्तमान में पश्चिमी सिंहभूम, देवघर और खूंटी में हमारे ऐसे तीन प्रोडक्शन सेंटर्स का संचालन हो रहा है। यहां वे किशोरियां और महिलाएं ‘माइ पैड’ नाम से रियूजेबल प्रोडक्ट तैयार करती हैं।
हमारा यह प्रोडक्ट पूरी तरह कपड़ों से बना हुआ है और प्लास्टिक फ्री है, इसे धोकर और धूप में अच्छी तरह सुखा कर डेढ-दो साल तक यूज किया जा सकता है। इन पैड्स के साथ डिस्पोजे़बल इश्यूज़ भी नहीं हैं। जिस तरह से साफ करके इसे रियूज किया जा सकता है, उसी तरह से साफ करके इसे किसी कूड़ेदान, मिट्टी के नीचे आदि जगहों पर डंप भी किया जा सकता है।
यह माइ पैड कहीं से भी पर्यावरण के लिए नुकसानदायक नहीं है। सर्वे के दौरान जब हमें किशोरियों और महिलाओं को पैड्स ना मिल पाने की इस समस्या के बारे में पता चला, तो हमने फिलहाल देवघर के कुछ गाँवों में अपने इन प्रोडक्टस का वितरण किया है।
इसके अलावा, हमने अपने सभी गर्ल्स चैंपियंस (वैसी किशोरियां जिन्हें पूर्व में नीड्स संस्था द्वारा माहवारी जागरुकता ट्रेनिंग दी जा चुकी है) को भी वो वीडियो फॉरवर्ड किया है, ताकि वे अपने संपर्क में आने वाली सभी किशोरियों और महिलाओं को ‘माइ पैड’ बनाने और हाइजीनिक तरीके से उसे मेंटेन करने की ट्रेनिंग दे सकें।
वर्ष 1998 में बिहार तथा झारखंड के सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाली ग्रामीण आबादी से जुड़े विभिन्न मुद्दों के विषय पर काम करने के लिए एक ट्रस्ट के रूप में NEEDS (Network for Enterprise Enhancement and Development Support) का गठन किया गया। इसका मुख्यालय रांची में है।
बिहार में यह संस्था वेस्ट मैनेजमेंट के क्षेत्र में काम करती है, जबकि झारखंड के चाईबासा, खूंटी, पांकुड़, देवघर और दुमका में इसके द्वारा माहवारी जागरूकता कार्यक्रम का संचालन किया जाता है।
फंड रेजिंग के ज़रिए हुई चार हज़ार से अधिक महिलाओं की मदद
माहवारी जागरूकता से संबंधित झारखंड के पूर्वी सिंहभूम क्षेत्र में कार्यरत गैर-सरकारी संस्था ‘निश्चय’ के संस्थापक तरुण कुमार की मानें तो,
वह पिछले तीन वर्षों से इस क्षेत्र में कार्यरत हैं। बीते साल उन्होंने ऐसे किसी सरकारी योजना के बारे में सुना तो था लेकिन अब तक कहीं इसकी उपलब्धता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उनके कार्यक्षेत्र के कुछ किशोरियों को एकाध महीने तक उनके स्कूलों में 10 रुपये पैक वाला पैड बांटा तो गया था लेकिन उसकी क्वालिटी बेहद खराब थी। जिस कारण उन्होंने उसे इस्तेमाल नहीं किया।
लॉकडाउन के दौरान सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में विशेष तौर से माहवारी की समस्या को ध्यान में रखते हुए तरुण निश्चय संस्था के तहत मार्च में पब्लिक फंड रेजिंग के ज़रिए चार हज़ार से अधिक किशोरियों और महिलाओं को सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध करवा चुके हैं। इस काम में उनके 25 से अधिक फ्रंट लाइन वॉलंटियर्स भी सहयोग कर रहे हैं।
‘निश्चय संस्था’ के संस्थापक तरुण कुमार के अनुसार,
पहले लॉकडाउन के समय से ही हमने संस्था के फेसबुक पेज और व्हाट्स एप्प ग्रुप के ज़रिए लोगों से फंड कलेक्ट करना शुरू कर दिया था, ताकि ग्रामीण किशोरियों की ज़रूरत को पूरा कर सकें। जब भी हमारे पास किसी लड़की या महिला का कॉल आता है तो मैं उनसे कहता हूं कि वह अपने आस-पड़ोस की अन्य लड़कियों के बारे में भी पता करें कि उन्हें भी पैड की ज़रूरत है क्या? इसके पीछे हमारा उद्देश्य होता है, अधिक-से-अधिक किशोरियों को सैनिटरी पैड्स उपलब्ध करवाना।
शिक्षित और संभ्रात परिवारों में भी हैं बंदिशें
पश्चिम बंगाल के 24 परगना, झारग्राम, कैनिंग जैसे सुदूर क्षेत्रों में माहवारी जागरूकता कार्यक्रम के अपने अनुभवों को शेयर करते हुए श्रीलेखा चक्रवर्ती कहती हैं,
शहरी क्षेत्रों में इस मुद्दे पर थोड़ी-बहुत जागरूकता है लेकिन गाँवों में इसकी कमी देखने को मिलती है। इस दिशा में सरकारी सुविधाओं की उपलब्धता भी नगण्य है। ज़्यादातर किशोरियां और महिलाएं अपने निजी खर्चे से पैड्स खरीद कर यूज करती हैं, मगर उन्हें पता तक नहीं है कि माहवारी प्रक्रिया का कारण क्या है?
हालांकि श्रीलेखा का मूल कार्यक्षेत्र झारखंड है जहां वह नीड्स संस्था के सहयोग से माहवारी जागरूकता के क्षेत्र में पिछले सात वर्षों से पीरियड पर चर्चा नामक कार्यक्रम का संचालन कर रही हैं। साथ ही गृहनगर कोलकाता में होने के कारण श्रीलेखा वहां की कई स्थानीय संस्थाओं से भी जुड़ी हैं जो माहवारी जागरूकता के क्षेत्र में कार्यरत हैं।
श्रीलेखा की मानें तो बंगाल में आज भी माहवारी को लेकर काफी टैबू है। ग्रामीण परिवारों को तो छोड़िए, पढ़े-लिखे संभ्रात परिवारों में भी इस दौरान महिलाओं को कई तरह की दकियानूसी पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं।
झारखंड के आदिवासी समाज में ऐसी पाबंदियां देखने को नहीं मिलती लेकिन वहां शिक्षा और जागरूकता का घोर अभाव है। यहां तक कि जननी योजना, मातृत्व पोषण योजना आदि का संचालन करने वाली ज़्यादातर आशा बहनों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी माहवारी के बारे में समुचित जानकारी नहीं है।
सामान्य दिनों में भी दिखती है सरकारी उदासीनता
टीम की एक अन्य सदस्या प्रतिमा कुमारी पासवान जिस समाज से आती हैं, उसमें सैनिटरी पैड्स हर किसी के लिए अफोर्डेबल नहीं है। ज़्यादातर परिवार दिहाड़ी मज़दूर या दैनिक कामगार की श्रेणी में शामिल हैं। इन परिवारों में किशोरियां और महिलाएं माहवारी के दौरान कपड़े का उपयोग ही करती हैं।
ऐसे में हमारी संस्था ‘गौरव ग्रामीण महिला विकास समिति’ का मुख्य फोकस इस बात पर होता है कि वे लोग उन कपड़ों का उपयोग भी सही और समुचित तरीके से करें। जैसे कि प्रत्येक उपयोग के बाद उन्हें साफ पानी और साबुन से धोएं, धूप में सुखाएं और उसे साफ-सुथरे जगह पर रखें, ताकि उन्हें किसी तरह का इंफेक्शन ना हो।
इसके लिए हमारी संस्था की ओर से हर महीने एक-एक लाइफब्यॉय साबुन दिया जाता है। संस्था के तहत फिलहाल हमारे पांच सदस्य सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं। ये लोग घर-घर जाकर (फिलहाल फोन पर) लोगों को माहवारी से जुड़े मुद्दों के बारे में जागरूक करते हैं।
प्रतिमा बताती हैं, “हमारा कार्यक्षेत्र बिहार के फुलवारी शरीफ और उसके आसपास के गाँव हैं। वहां हमारे साथ करीब 55 किशोरियां फ्रंटलाइन वर्कर्स के तौर पर जुड़ी हैं और लॉकडाउन के दौरान भी वे अपने इलाके की किसी महिला को अगर कोई स्वास्थ्य समस्या है तो उसके बारे में मुझे बताती हैं। फिर मैं यथासंभव अपनी ओर से उनकी मदद करने की कोशिश करती हूं।”
प्रतिमा का यह भी कहना है कि
महिला स्वास्थ्य का मुद्दा कभी भी सरकार की प्राथमिक सूची में शामिल नहीं हो पाया है। आपदा की बात तो छोड़िए, सामान्य दिनों में भी हर महिला को समुचित माहवारी सुविधा या जानकारी उपलब्ध नहीं है।
ज़्यादातर ग्रामीण आबादी को ‘सैनिटरी पैड’ के बारे में पता भी नहीं है
नव अस्तित्व फाउंडेश के बैनर तले बिहार के कुल 38 ज़िलों में माहवारी जागरूकता संबंधी कार्यक्रम को लेकर सक्रिय रूप से कार्य कर रहीं पल्लवी सिन्हा कहती हैं,
फिलहाल की स्थिति में हम बहुत कुछ तो नहीं कर पा रहे हैं लेकिन लॉकडाउन के दूसरे दिन से मैं और मेरी सहयोगी अमृता सिंह पटना के कंकड़बाग स्लम क्षेत्र में रहने वाले लोगों को राशन किट बांट रहे हैं। उस किट में एक सैनिटरी पैड का पैक भी शामिल होता है। अब तक हम करीब पांच हज़ार लोगों को यह किट बांट चुके हैं।
बिहार में माहवारी जागरूकता से संबंधित ‘स्वच्छ बेटियां, स्वच्छ समाज’ अभियान से जुड़े अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए पल्लवी कहती हैं कि बिहार के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में आज भी अधिकतर महिलाएं और किशोरियां माहवारी के दौरान कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। वे सैनिटरी पैड्स अफोर्ड भी नहीं कर सकतीं और वे इसके लिए इच्छुक भी नहीं हैं। कई गाँवों में तो हमें ऐसी महिलाएं भी मिलीं जो ‘माहवारी स्वच्छता’, ‘सैनिटरी पैड्स’ जैसे शब्दों से परिचित ही नहीं हैं।
अधिकांश महिलाएं फटे-पुराने कपड़ो का करती हैं उपयोग
शहरों में रहते हुए हम शायद इस बात की कल्पना ना कर सकें लेकिन ज़मीनी सच्चाई यही है। ये सभी महिलाएं माहवारी के दौरान अक्सर घर के फटे-पुराने कपड़ों का उपयोग करती हैं। उपयोग के बाद ना तो उन्हें गर्म पानी और साबुन से धोती हैं और ना ही खुली धूप में सुखाती है। इससे उन्हें कई तरह के इंफेक्शन का खतरा होता है।
इसी वजह से काउंसलिंग सेशन के दौरान हमारा फोकस विशेष तौर से हाइजीन संबंधी पहलुओं पर होता है। बात सरकारी प्रयासों की करें तो सरकार की ओर से फिलहाल कई स्कूलों में आठवीं से लेकर बारहवीं क्लास तक की बच्चियों को हर महीने सैनिटरी पैड्स बांटे जा रहे हैं। कुछ सरकारी प्रजनन केंद्रों पर भी मैटर्निटी पैड्स एवलेबल हैं लेकिन हर किशोरी या महिला तक इसकी उपलब्धता सुनिश्चित हो सके, इसके लिए सरकारी स्तर पर और भी गंभीरता से प्रयास करने की ज़रूरत है।