Site icon Youth Ki Awaaz

क्या एनकाउंटर और ‘त्वरित न्याय’ के दौर में न्यायपालिका की साख खतरे में है?

Vikas Dubey Encounter

Vikas Dubey Encounter

विकास दूबे का जिस तरह से एनकाउंटर किया गया है, वह राजनीति और अपराध के बीच के संबधों को और पुख़्ता करता है। जो लोग प्रक्रिया के बजाय परिणामों में ज़्यादा विश्वास रखते हैं, वे इस एनकाउंटर से एक बार फिर से संतुष्टि का भाव महसूस करेंगे।

क्या राज्यों का न्यायिक प्रक्रिया से भरोसा खत्म हो गया है?

इस तरह के एनकाउंटर आम लोगों में जोश और रोमांच भी भरता है और साथ ही “न्याय हुआ” की खुशफहमी भी पैदा करता है लेकिन ऐसी घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि स्टेटको खुद अपने न्यायिक प्रक्रियामें कितना यकीन रह गया है।

लोग यह जानते हुए भी कि यह एक एनकाउंटर फर्जी हो सकता है खुश हो रहे हैं, क्योंकि वे सुस्त और थकाऊ न्यायिक प्रक्रिया से इतने ऊब चुके हैं कि न्याय का यह तरीका ही उन्हें सही लगने लगा है।

इसके अलावा ऐसे अपराधियों की राजनीतिक सांठ-गांठ भी लोगों के भीतर एक अविश्वास पैदा करता हैवे मान कर चलते हैं कि जेल होने पर भी ऐसे लोग कभी-न-कभी छूट ही जाएंगे।

सुप्रीम कोर्ट, तस्वीर साभार: पिक्साबे

क्या विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका खण्डित होने कगार पर है? 

इसके अलावा सत्ताधारी पक्ष से सहानुभूति रखने वालों का एक वर्ग इसलिए भी खुश है कि वे इसे सरकार की बड़ी सफलताके रुप में पेश कर आगामी चुनावों से लेकर सोशल मीडिया की बहसों में विरोधियों के ऊपर हावी हो सकेंगे लेकिन इन सबके इतर, मेरा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में शासन प्रणाली के अंतर्गत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की जो अवधारणा है, उसका इस तरह से बार-बार खंडित होना ठीक नहीं है।

अगर सरकार ही न्यायालय में भरोसा नहीं रखेगी, तो आम जनता न्याय के लिए किस पर पर निर्भर होगी? उनके पास तो “त्वरित न्याय” के लिए इस तरह की सुविधाएं भी नहीं है। क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय विधि-व्यवस्था में केवल वही लोग भरोसा रखने के लिए बाध्य हैं जिनके पास न्याय पाने के “अतिरिक्त साधन” नहीं हैं?

साधनसंपन्न वर्ग द्वारा अपने अर्थतंत्र के सम्मोहन से न्यायिक प्रक्रियाओं को मोह लेने की बात हम यदा-कदा सुनते ही रहते हैं और उन्हें कोसते भी हैं। लेकिन सर्व शक्तिमान तंत्र द्वारा किए जाने वाले ऐसे सस्ते प्रहसन से न्याय-व्यवस्था की धज्जियां उड़ रही हैं और हम जश्न मना रहे हैं, तो इस पर एक बार हमें ठहर कर सोचने की ज़रूरत है।

प्रताकात्मक तस्वीर, तस्वीर साभार: पिक्साबे

राजनीतिक फायदे के लिए किए जाते हैं ऐसे एनकाउंटर?

विकास दुबे की मौत का दुख शायद ही किसी को हो लेकिन लोकतंत्र में अर्जित हर उस व्यवस्था और तंत्र के दरकने का शोक होना लाज़मी है, जिसके लिए लाखों लोगों ने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध अपनी जान गंवाई है। यह अनायास नहीं है कि गिरफ्तारी के बाद से ही कुछ लोग इस एनकाउंटर का अनुमान लगाने लगे थे।

जो लोग राजनीति के अंदर मौजूद आपराधिक सड़ान्ध को जानते हैं उनके लिए इस तरह का अनुमान लगाना कोई मुश्किल भी नहीं था लेकिन न्याय के भेष में अंदरखाने में किए गएपॉलिटिकल सेटलमेंटपर जिस तरह से जनता अभिभूत है, वह देखने योग्य है।

बहरहाल, सरकार के पास यही मौके होते हैं, जब वह विधिसम्मत प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए ऐसे अपराधियों को जल्द-से-जल्द सज़ा दिलाकर जनता के सामने एक उदाहरण पेश कर सके लेकिन हेडलाइन में बने रहना और सनसनी पैदा करना सत्ता की पुरानी आदत रही है।

ऐसे में वैधानिक लेकिन लंबी चलने वाली प्रक्रियाएं लोकतंत्र को तो मजबूती दे सकती है लेकिन इससे सरकार को फायदा हो इसकी गारंटी नहीं होती है।

सरकार के हीरोइज़्मसे अभिभूत क्यों हो जाती है जनता?

इसके लिए सरकार को अथाह धैर्य और नेक नीयत की ज़रूरत होती है उन लोकतांत्रिक मूल्यों में अगाध निष्ठा की भी आवश्यकता होती है जिसे छलकर वे सत्ता के गलियारों तक पहुंचते हैं।

अतः स्वाभाविक है कि उन पर लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं को बचाने से ज़्यादा खुद को “हीरो” साबित करने का दबाव रहता है लेकिन जनता सरकार के हीरोइज़्मसे अभिभूत होकर यह भूल जाती है कि सरकारें आनी-जानी हैं, मगर ये व्यवस्थाएं, ये संस्थाएं आज़ादी के दौर से चली आ रही हैं और जब तक लोकतंत्र है तब तक हमें इसी के भरोसे रहना है।

ऐसी क्षणिक सफलताएं और खुशियां कालांतर में हम पर भारी भी पड़ सकती हैं, क्योंकि इस तरह की घटनाओं को व्यापक जन-समर्थन प्रदान कर हम खुद ही सरकार को ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से मुक्त कर रहे हैं।

Exit mobile version