Site icon Youth Ki Awaaz

जानिए मूलवासी भाषाएं क्यों लुप्त हो रही हैं और उन्हें कैसे बचाया जाए

किसी भी समुदाय की वास्तविक स्थिति और विचारधारा को उनके भाषा के द्वारा समझा जा सकता है। आज के ग्लोबलाइज़ेशन के युग में जब सब कुछ एक जैसा हो रहा है, तब हम आदिवासियों और मूलवासियों की धनी संस्कृति को संरक्षित करने की चुनौती से जूझ रहे हैं।

यूनाइटेड नेशन्स ने 2019 को मूलवासी भाषाओं का अंतरराष्ट्रीय साल घोषित किया था।

UNESCO भाषाओं को “सुरक्षित” और “लुप्त” के दो पैमानों के बीच रखती है। जो भाषाएं खतरें में हैं, यानी उनके बोलने वालों कि आबादी घट रही है, उन्हें 4 श्रेणियों में रखा गया है। ये हैं,

यूनेस्को ने 2500 लुप्त और लुप्त होने के खतरे में भाषाओं की सूची बनाई है। इस सूची में सबसे ज़्यादा भाषाएं भारत की हैं। भारत के 197 भाषाएं इस खतरे की सूची में हैं, जिसमें 89 भाषाएं उत्तर पूर्वी क्षेत्र की हैं, जहां मूलवासियों की बहुत ज़्यादा संख्या है।

 

 

मूलवासी भाषाओं का महत्व

फ्रेंच लेखक अल्फोंस दौड़ेट की लघु कथा, द लास्ट लैसन (आखिरी अध्याय) में प्रूशियन युद्ध (1870–71)) के दौरान प्रूशियन सेना जब फ्रांस में कब्ज़ा कर स्कूलों में फ्रेंच के जगह जर्मन भाषा और संस्कृति को लागू करने का नियम बनाती है, तब लेखक अपनी भाषा के बारे में कहते हैं,

हमें इसे अपने बीच में सुरक्षित रखना है और इसे कभी नहीं भूलना है। जब तक गुलाम बनाए गए लोग अपनी भाषा को पकड़कर रखे हुए हैं, उनके पास उनके जेल की चाबी है।

भाषा मुख्यता संवाद करने के लिए माध्यम है। एक दूसरे के साथ बात करने के अलावा, भाषा हमारी संस्कृति को भी दर्शाती है। भाषा के शब्द उस संस्कृति के चीजों और विचारों के बारे में बताते हैं। उदाहरण के लिए, नागालैंड के पोशाक में स्कर्ट्स और जैकेट्स के अलग-अलग डिजाइन्स होते हैं।  हर पोशाक को अलग समुदाय और काम के लोग पहनते हैं, और इन्हें अलग अलग नाम दिया जाता है। लेकिन आज इन बारीकियों को भुलाया जा रहा है।

इन जैकेट्स और स्कर्ट्स के विभिन्न नामों से हम सभ्यता के आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति और प्रणाली के बारे भी बहुत कुछ जान सकते हैं। अगर कोई भाषा लिखित या मौखिक, या दोनों रूप में लुप्त होती है, तो इतिहास, राजनीतिक विज्ञान, सोशियोलॉजी और एंथ्रोपोलॉजी के नजरिए से भी ये ज्ञान और जानकारी में बहुत नुक़सान होगा।

हम ना सिर्फ आदिवासियों का, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के इतिहास से विलोपित भाषाओं की संस्कृति और उनके लोगों की कहानियों को नहीं जानेंगे या (जाने-अंजाने में ) खत्म कर देंगे।

आओ जनजातियों के पारंपरिक परिधान और भाषा का सम्बन्ध है।

संस्कृति का अर्थ भाषा में होता है और अगर भाषा खो जाए तो उसके साथ संस्कृति और उसका अर्थ भी हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है। अप्रैल चार्लो एक अमेरिकन मूलवासी हैं, जो नकौसुम भाषा संस्थान में मूलवासी भाषाओं को संजोने के लिए काम करती हैं।

वे बताती हैं कि उनके मूलवासी भाषा में “मेरा” का कोई अनुवाद शब्द नहीं है। ये इसलिए क्योंकि उन मूलवासियों में “मालिकाना हक” की धारणा नहीं है। उनकी विचारधारा है कि सब कुछ जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध है, उसपर किसी का मालिकाना हक नहीं जताया जा सकता। पानी, हवा, नदियां इत्यादि सबके लिए हैं।

अमेरिका के मूलवासी में व्यक्तिगत मालिकाना हक की धारणा नहीं है

समय के साथ, चार्लो ने इस सभ्यता के भाषा और विचारधारा पर भी बदलाव देखा। बाहरी समाज के संपर्क से इस समुदाय में भी बदलाव आए। उनमें भी अब “मालिकाना हक” की धारणा आ रही है।

सब चीज़, जैसे जंगल, ज़मीन, पर्वत पर अब लोग हक जता रहे हैं। वर्षों पहले सबको सामान्य रूप से मुफ्त में उपलब्ध था, आज उनपर किन्हीं का कब्ज़ा है। यानी अगर हम अपनी भाषा को नहीं समझते, तो हम बहुत कुछ अच्छा खो बैठेंगे।

छत्तीसगड़ के आदिवासियों में भी मूलवासी भाषाओं और सम्बन्धित कलाओं का विलोपन हो रहा है। राज्य भाषा छत्तीसगढ़ी का ज्यादा प्रचलन है। जूलियाना एक्का बताती हैं कि आजकल के बच्चे केवल हिंदी और अंग्रेज़ी बोलते हैं।

वे छत्तीसगढ़ी तो बोलते हैं लेकिन अपनी मातृभाषा नहीं जानते। इसका असर कलाओं और संस्कृति में भी पड़ रहा है। उरांव महिलाएं विशेष तरह से साड़ी पहनती हैं। उरांव भाषा में इसे “ठाढी गातला तोलोंग किचरी कूरना” कहते हैं, जिसका मतलब  “सीधा पल्ला पहनकर कमर के पास से आंचल निकालना” होता है। भाषा और उसके अर्थ के साथ, आदिवासियों के विशेष संस्कृति भी खो रही है।

लुप्त होती भाषाओं की कहानी

भाषाओं के लुप्त होने के कई कारण हो सकते है। बहुत समुदायों में भाषा केवल मौखिक रूप में उपलब्ध है। लिखित रूप में नहीं होने से, इन सभ्यताओं के खो जाने का बहुत ख़तरा है।

प्रबल तत्वों का हावी होना

दिऊंरी सिनो तिब्बतियन और तिब्बतियन बर्मी क्षेत्र में आसाम और अरुणाचल प्रदेश के दिऊंरी जनजाति बोलते हैं। दिऊंरी ने ही उत्तरी आसाम में असमी भाषा को लाने में मदद की। सदियों पहले दिऊंरी भाषा ने प्राकृत भाषा से मिलकर असमी भाषा को जन्म दिया था।

जैसे, ये शब्द असमी और दिऊंरी दोनों में सम्मनार्थ हैं, अप्पा (लड़के), सुरुका (साफ) और तकुन (छड़ी)। असमी की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि दिऊंरी के बहुत गोत्रों में दिऊंरी भाषा लुप्त हो गई। दिऊंरी जनजाति के केवल देबोंज्ञा गोत्र अभी भी इस भाषा को बोलते हैं।

लोग अपने भाषा को स्वयं नहीं खोते। कई बार ऐसी परिस्थितियां बनाई जाती हैं कि लोग और उनकी भाषाएं लुप्त होने लगती हैं। उदाहरण है, आसाम का नागरिकता संशोधन बिल और दो बच्चे नीति। नागरिकता संशोधन बिल यहां के मूलवासियों के लिए खतरा हो गया है।

यह बिल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के शोषित गैर-हिन्दुओं को नागरिकता देगी। कर्बी आंगलोंग, आसाम के आदिवासी ज़िले में इस बिल की कड़ी निन्दा हुई। ऑल आसाम स्टूडेंट्स यूनियन के जेनरल सेक्रेटरी, शोर्जुं हंसे ने बताया कि यहां के कर्बी आंगलोंग की चिंता है कि मूलवासियों के भाषा, संस्कृति और पुराने परम्परों को इस जनसंख्या असंतुलन से खतरा होगा। कर्बी आंगलोंग को 2009 में यूनेस्को ने खतरे के चपेट में भाषाओं में गिना गया था।

साथ ही असम कैबिनेट ने 21 अक्टूबर, 2019 को दो बच्चे नीति का ऐलान किया। इसके अनुसार 2021 के बाद, जिनके दो से ज़्यादा बच्चे हैं, उन्हें सरकारी नौकरी के लिए योग्य नहीं माना जाएगा। साथ ही दो से ज़्यादा बच्चे होने पर पंचायत चुनाव की भी योग्यता रद्द कर दी जाएगी। जहां कम जनसंख्या को बढ़ाना चाहिए, वहां सरकार लोगों की जनसंख्या को और कम रही है

अंडमान और निकोबार द्वीप के सेंटिनेलिस द्वीप में रहते हैं सेंटिनेलिस आदिवासी। उनका जीवन द्वीप में ही बसा है और वे द्वीप के बाहर जाना या किसी बाहरी व्यक्ति का द्वीप में स्वागत नहीं करते है।

यह बात उन्हें “हिंसाकरी” और “पिछड़ा” होने का नाम देता है। लेकिन सेंटिनेलिस आदिवासियों के पास बाहरी व्यक्ति से परेशान होने की जायज़ वजह हैं। उनके भाषा को विलोपित होने के खतरे में रखा गया है। उनका मानना है कि द्वीप के बाहर के लोगों से संपर्क करने से उनके मूलवासी संस्कृति और भाषा को ख़तरा होगा।

ज़रूरी नहीं कि आदिवासी भाषाओं को लुप्त तभी माना जाए जब उस भाषा को बोलने वाले कोई नहीं हो। नहीं, इसके बड़ी संख्या में बोलने वाले होकर भी, ये भाषा खो सकती हैं। जैसे झारखंड के सिमडेगा जिले से 30 किलोमीटर दूर, टैंसेरा ग्राम में लुप्त हो गयी है कुडूक भाषा।

यहां 16वीं सदी में उड़ीसा के गजपति का शासन था। टैंसेरा ग्राम में हिन्दु और आदिवासी भी मिलकर रहते थे। यहां ज़्यादातक ओराओं और मुंडा आदिवासी रहते हैं। लेकिन यहां के भीरू राजा ने आदिवासी भाषाओं में बात करने वालों को प्रताड़ित करने लगे।

राजा को डर था कि आदिवासी उन्हें राजगद्दी से हटाने के लिए षड्यंत्र रच रहे है। आदिवासियों पर उनकी मातृभाषा कुडुक बोलने पर जुर्माना लगाया गया। इसका पालन नहीं करने पर कड़ी सजा मिलती थी। सवभविक्ता, शोषण के कारण यहाँ  के आदिवासियों के बीच से कुदूक भाषा खो गई।

भाषाओं को कैसे पुनर्जीवित और संरक्षित कर सकते हैं

एक कहावत है, “इलाज से सावधानी बेहतर।” पहला कदम- हमें भाषाओं को समुदाय में संरक्षित रखना है। जो भाषाएं लुप्त हो गई या लुप्त हो रही हैं, उन्हें कुछ इस तरह से जीवित किया जा सकता है-

शब्दकोश

अतोंग भाषा का रेफरेंस व्याकरण किताब सिनो वन ब्रेउगेल द्वारा प्रकाशित किया गया है जो अंग्रेज़ी में उपलब्ध है। इस भाषा की अंग्रेज़ी में शब्दकोश भी बनाई गई है।

मूलवासी भाषाओं के स्क्रिप्ट बनाने से ये हमेशा हमारे बीच रहेंगे

आदिवासी भाषाओं को संजोकर रखने के लिए अरुणाचल प्रदेश के बंगवांग लोसू ने वांचू भाषा की लिपि के लिए कंप्यूटर भाषा बनाई। वांचू भाषा अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, आसाम, भूटान और म्यांमार में बोली जाती है।

वांचू लिपि बनाने की कठिनाइयों के बारे में कहते हैं कि इस साल की लिपि बनाने में 12 साल लग गए क्योंकि इसकी आवाज़ के अनुकूल कोई वर्णमाला नहीं थी। लेकिन 2019 में उनकी मेहनत रंग लाई और अब ये विश्व भर में online भी उपयोग की जा सकती है।

अपनी कामयाबी पर लोसू गर्व से कहते हैं, “अपने संस्कृति और भाषा के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। नहीं तो हमारी भाषा लुप्त हो जाएगी। कोई भाषा किसी से ज़्यादा या कम बेहतर नहीं होती। सारी भाषाएं अपने तरीके से अलग और मज़ेदार हैं।” उन्होंने इसे US आधारित unicode consortium पर ऑनलाइन इस्तेमाल के लिए दर्ज किया है।

लोक कथाएं

अनुमान लगाया गया था कि 2001 में नागालैंड के अंगामी भाषा बोलने वालों की संख्या 1,24,000१, है लेकिन ये प्रभावित से खतरे की श्रेणी में आ सकती है। इसे बचाए रखने के लिए लोक कथाओं के द्वारा पुनर्जीवित किया जा रहा है। इनमें सेखोज द्वारा 1970 में संकलित अंगामी नागा लोक कथाएं हैं। लोक कथाएं  सिर्फ भाषा नहीं, पर जुड़े हुए समुदाय के संस्कृति के बारे भी बताती है।

गाना

गीत-संगीत भाषा को बचाए रखने का एक अहम माध्यम है। लोग गीतों को अपने दिनचर्या के कामों के दौरान गुनगुनाते हैं। इसे बच्चे और वयस्कर दोनों बहुत जल्दी सीख सकते हैं। नागा समुदाय के लोगों ने ज्यादातर धार्मिक गानों को अंगामी में अनुवाद किया है।

किताबों, प्रकाशन और उच्च शिक्षा

मुझे याद है कि स्कूल में अंग्रेज़ी में बात करने का इतना सख्त नियम था कि हम कभी-कभी हिंदी भी भूल जाते थे। बच्चों का मानसिक विकास स्कूल में ही होता है, क्योंकि वे दिन का ज्यादातर समय स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में आदिवासी और मूलवासी भाषा, जो कि अल्पसंख्यक है, उन्हें तो लुप्त होने का और भी खतरा है।

इसी प्रक्रिया को उलटा करने के लिए भाषाओं को शिक्षा के द्वारा ही बचाना होगा। इन्हें स्कूलों और उच्च शिक्षा, दोनों स्तर पर पढ़ना होगा, ताकि लोग अपने भाषा से जुड़े रहे। साथ ही, इनपर शोध और रिसर्च भी करना होगा। ऐसे प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार के फंडिंग और समर्थन की जरूरत होगी।

नई पीढ़ियों को मूलवासी भाषाओं

Coordination Committee of Tribal Organizations of Assam ने आदिवासियों में उच्च शिक्षा और रिसर्च को बढ़ाने के लिए नॉर्थ ईस्ट नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी स्थापित करने की मांग की। साथ ही, कक्षा 8वी तक पढ़ाने के माध्यम के लिए आदिवासी भाषाओं जैसे कर्बी, मिसिंग, राभा, तीवा, और दिऊंरी उपयोग करने की भी सलाह दी।

आदिवासी बच्चों में स्कूल ड्रॉपआउट दर गरीबी के कारण बहुत ज़्यादा होता है और तो और अगर ऐसी भाषा में पढ़ाया जाए जिसे वे घर में नहीं बोलते, उनके लिए पढ़ाई और कठिन हो जाती है।

शिक्षा और मूलवासी भाषा संरक्षण के दो मकसदों को पूरा करती है मूलवासी भाषाओं में जलने वाली स्कूल। इसपर ही अमल करते हुए आदिवासी एकेडमी ऑफ भाषा रिसर्च अंड पब्लिकेशन सेंटर गुजरात की दो बोलियों, बरेली और तड़वी में प्राइमरी लेवेल के पुस्तक प्रकाशित किए हैं। इसे मोग्रा, बंजुर, कांकुवसं और जेमालगड़ में सफलतापूर्वक लागू किया गया है।

इसके अलावा संग्रहालय और एटलस के जरिए भी मूलवासी कला, भाषा और संस्कृति के बारे में जाना, और बड़ी संख्या को जागरूक किया जा सकता है। मणिपुर सरकार ने उत्तर पूर्वी क्षेत्र का सबसे पहला आदिवासी आज़ादी सेनानियों का मुसियम बनाने का प्रस्ताव दिया है। ये सेनापति जिले के मखेल गाँव में बनाया जाएगा। देश में मध्यप्रदेश और गुजरात सहित 7 ऐसे आदिवासी संग्रहालय हैं।

इसी प्रकार झारखंड में हाल ही में राज्य आदिवासी एटलस बनाने की घोषणा की। डॉक्टर राम दयाल मुंडा ट्राइबल वेलफेयर रिसर्च इंस्टीट्यूट ने करीब 150 पृष्ठों का एटलस बनाया है जो झारखंड के 32 आदिवासी समुदायों के बारे में बताएगा। ओड़िशा ने भी आदिवासियों के लिए एटलस बनाया है। इस प्रकार से इतिहास और सभ्यता को लिखित में दर्ज करके इसे अमर बनाया जा सकता है।

भाषाओं पर सेमिनार और कॉन्फ्रेंस

सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, वर्कशॉप और महत्सवों के जरिए भी भाषाओं को संरक्षित करने पर नए तकनीकों और चुनौतियों पर विचार विमर्श किया जा सकता है। भोपाल में आदिवासी भाषा और संस्कृति पर 3 दिवसीय कॉन्फ्रेंस आयोजित किया जिसमें कई जाने माने और उभरते आदिवासी शोधकर्ताओं ने विचार विमर्श किया।

हाल ही में दिल्ली में नॉर्थ ईस्ट फेस्टिवल आयोजित किया गया जिसमें मूलवासी भाषाओं पर खास ज़ोर दिया गया। उसी प्रकार, वर्कशॉप्स भी होते हैं जहां नए लोगो को मिलकर नई स्फूर्ति और उम्मीद आती है।

आदिवासी भाषाओं को सुरक्षित करने के लिए अरूकूं में वर्कशॉप आयोजित किया जा रहा है

भारत विविधता का देश माना जाता है। इसीलिए भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स) में कल्चरल और एजुकेशनल राइट्स दिए गए हैं। आर्टिकल 29 और 30 धार्मिक या भाषीय माइनॉरिटी को अपने धर्म या भाषा और संस्कृति को विकसित और संरक्षित करने के लिए सहायता करती है।

भाषा लफ्ज़ों को सिर्फ अल्फाज़ नहीं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को जोड़ती है। ज़ुबां पर मातृभाषा से प्यारा और कुछ नहीं होता।

______________________________________________________________________________

(लेखिका के बारे में: दीप्ती मेरी मिंज (Deepti Mary Minj) ने जेएनयू से डेवलपमेंट एंड लेबर स्टडीज़ में ग्रैजुएशन किया है। आदिवासी, महिला, डेवलपमेंट और राज्य नीतियों जैसे विषयों पर यह शोध और काम रही हैं। अपने खाली समय में यह Apocalypto और Gods Must be Crazy जैसी फिल्मों को देखना पसंद करती हैं। फिलहाल यह जयपाल सिंह मुंडा को पढ़ रही हैं।)

Exit mobile version