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चुनाव आते ही नेताओं को अपने संस्कृति और धर्म से इतना प्यार क्यों हो जाता है?

भेदभाव एक सामाजिक बुराई होने से पहले एक तुच्छ मानसिकता का परिणाम है। इस मानसिकता को बदलना पड़ता है लेकिन सवाल यह है कि एक धर्म निरपेक्ष देश में, जहां ज़्यादातर मौकों पर सत्ता के गठन का तानाबाना सीधे-सीधे धर्म और जाति रुपी समुंदर में गोता लगाकर किया जाता है, तो क्या वहां इस मानसिकता को बदलना आसन हो सकता है?

चुनाव के वक्त नेता क्यों बन जाते हैं अपने धर्म के रक्षक?

चुनाव आते ही नेताओं को अपने संस्कृति और धर्म से इतना प्यार हो जाता है कि बस ऐसी लगा है जैसे चुनाव के नतीजे आने तक वही अपने धर्म के रक्षक है।

दलित वोट बैंक, मुस्लिम वोट बैंक, हिन्दू वोट बैंक और ना जाने कितने ही वर्गों के वोट बैंक को साधने के पूरे-पूरे प्रयास किए जाते हैं, चाहे वो दल बदलकर किया जाना हो या उन्हीं की पार्टी द्वारा सुनियोजित तरीके से सताए गए दलित को बाद में इन्साफ रुपी पेडा खिलाकर वोट को अपनी तरफ खींचना हो।

प्रतीकात्मक तस्वीर

जब तक हमारे समाज में राजनीतिक गिरगिट ऐसा माहौल बनाकर अपना उल्ल्लू सीधा करते रहेंगे, तब तक स्कूल कॉलेज से क्या किसी भी स्तर पर भेदभाव को खत्म नहीं किया जा सकता है।

समाज से भेदभाव आखिर खत्म क्यों नहीं हो पा रहा है?

भेदभाव मुख्य रूप से समानता के ना होने से होता है, फिर भले वह जाति, धर्म, वर्ण हो या सोशल स्टेटस। देश में मौलिक समानता का अधिकार तो दिया गया है लेकिन समानता पाने के लिए जिस आरक्षण का सहारा लिया गया, उसी को पाने के लिए पहले आपको खुद को दलित साबित करना पड़ता है।

अब सवाल यह है कि कॉलेज में दाखिला पाते समय पहले खुद को दूसरों से अलग साबित करना और बाद में दूसरों में घुलना मिलना शायद ही एक साधारण अनुभव हो। फिर उस जगह पर यह कतई साधारण अनुभव नहीं माना जा सकता है, जब आपको समाज में आगे बढ़ने के लिए मिले आरक्षण रुपी मदद से समान्य वर्ग कुंठित हो।

प्रतीकात्मक तस्वीर

दूसरी ओर लिंग आधारित भेदभाव को समझने की कोशिश करें, तो वह जाति आधारित भेदभाव से थोड़ा अलग नज़र आता है, क्योंकि जाति आधारित भेदभाव का एहसास पीड़ितों को समाज के बीच जाकर होता है लेकिन लिंग आधारित भेदभाव का अनुभव अपने घर के अंदर भी किया जा सकता है।

इसमें किसी बाहरी या समाज के व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती लेकिन इस बात में भी दो राय नहीं है कि लिंग आधारित भेदभाव भी समाज से प्रेरित होता है और समाज के बीच में रहने पर इसका प्रखर रूप भी आसानी से देखा जा सकता है।

वहीं धर्म आधारित भेदभाव का अनुभव वहां ज़्यादा नज़र आता है जहां कोई भी एक वर्ग बहुसंख्यक हो और दूसरा अल्पसंख्यक, बराबरी में रहने वाले लोगों के बीच संभ्यता संस्कृति की मिलावट की मिठास आसानी से देखी जा सकती है।

जाति आधारित भेदभाव को पहली नज़र से देखें, तो यह विज्ञान के उस प्रयोग से काफी मिलता जुलता है जब एक चुम्बक को दो शीशों में बंद चुम्बक के बीच में रख देते हैं, तो उत्तरी और दक्षिणी पोल अपने-अपने को मुख्य चुम्बक के हिसाब से शिफ्ट करने लगते हैं।

इसी प्रकार चुनावी प्रतिनिधियों  द्वारा लोगो का ध्रुवीकरण  कर नार्थ और साउथ पोल की तरह एक दुसरे के विरूद्ध लाया जाता है लेकिन चुनाव के बाद में “राजनैतिक चार्ज” के खत्म होने के बाद सब समान्य हो जाता है।

एक अलग तरह का भेदभाव हो रहा है शुरू

सोशल स्टेटस के भेदभाव की धारणा काफी पुरानी है लेकिन वाट्सएप ग्रुप ने इसमें नया ही निखार ला दिया है, ग्रेड 1 अधिकारी ग्रुप, ग्रेड II अधिकारी ग्रुप, गोकुलधाम सोसाइटी ग्रुप, ना जाने किस प्रकार लोगों के मेल-जोल को एक तरह से सीमित किया जा रहा है, जो भेदभाव कॉलेज के समय में कपडे़-लत्तो में हुआ करता था। इंग्लिश बोलने ना बोलने या सोसाइटी के नाम पर हुआ करता था उसको और ज़्यादा विकट बना दिया है।

अब आप कौन से स्कूल में पढ़ते हो, फ्रेच भाषा सीखते हो, क्रिकेट खेलते हो सबको अलग-अलग ग्रुप बनाकर सीमित किया जा रहा है और मिलनसार मनुष्य को उपेक्षित रहने की ओर धकेला जा रहा है। अगर इसे बारीकी से देखें, तो पाएंगे कि वाट्सएप ग्रुप में एंट्री उसी स्थिति में मिल सकती है जब आप समान हो लेकिन भेदभाव होता ही समानता के अभाव में है।

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