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“पिछड़ी जाति से होने के कारण व्हाट्सएप ग्रुप पर मुझे टारगेट किया गया”

फोटो साभार- Twitter

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मेरा नाम कनकलता यादव है, फिलहाल जेएनयू में शोध छात्रा हूं। सन् 2011 के जुलाई में जब महिला महाविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर सरस्वती मैडम ने पूछा, “कनकलता, तुमको ओबीसी कैटेगरी से कैंपस में एडमिशन मिल रहा है, लेना है? टिक कर दूं?” तब मैंने हां कहा और तुरंत तय किया कि पहले जाकर मैं उसके बारे में पढ़ूंगी जिसकी वजह से आज मेरा यहां एडमिशन हुआ है।

याद आता है वह वाक्या

सरस्वती मैडम का यह शब्द और वह वाक्या मेरे सामने हर उस समय आता है, जब कोई मेरी ओबीसी पहचान को टारगेट करता है, डीफेम करता है, मज़ाक बनाता है या इज़ी लेता है। खैर, उसके बाद डीयू आकर मैंने वहां से पढ़ाई की फिर जेएनयू के सफर की शुरुआत हुई।

धीरे-धीरे उच्च शिक्षण संस्थानों में अपने और अन्य बहुजन समाज के लोगों के साथ हो रहे जातिगत भेदभाव को लगातार झेलते हुए मुझे समझ में आया कि मसला सिर्फ इस सर्टिफिकेट भर का नहीं है, बल्कि मसला है बहुजन एकता, बराबरी के विचार, प्रतिनिधित्व और आत्मसम्मान का।

बीएचयू में मेरे एडमिशन के वक्त 2011 में छात्र परिषद के चुनाव हुए, जिसमें हम निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते। वहां भी तरह-तरह के भेदभाव मौजूद रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने देखा कि बहुजन तबके से आने वाले स्टूडेंट्स को इतना कम नंबर देना कि वे नेट/रिसर्च वगैरह में अप्लाई करने के भी योग्य ना रहें, इसका अलग ही पॉलिटिक्स है।

हिन्दी भाषी स्टूडेंट्स के साथ व्यवहार

हिन्दी भाषी स्टूडेंट्स के साथ भी सेकंड सिटीज़न जैसा व्यवहार होता है। (यह सब होता है हाई-फाई शिक्षा के नाम पर) इसके बाद जब मैं जेएनयू आई तब वाइवा में दो ही नंबर मिले। मेरे साथ-साथ ज़्यादातर बहुजन तबके से आने वालों को 0-5 नंबर मिले। यह सब एक संस्थागत भेदभाव का हिस्सा था, जो मैंने भी महसूस किया और बाकी बहुजन स्टूडेंट्स ने भी कम-ज़्यादा महसूस किया।

फोटो साभार- Twitter

जेएनयू में मेरा तीन संगठनों से संबंध रहा। यूनाइटेड ओबीसी फोरम, बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट एसोसिएशन और बहुजन साहित्य संघ। इन संगठनों में रहने के दौरान हम लोगों ने मिलकर कई छोटे-बड़े आंदोलन किए, जिसमें वाइवा का नंबर कम करने का मुद्दा, ओबीसी वर्गीकरण का मुद्दा, पसमांदा का मुद्दा, ओबीसी महिलाओं का मुद्दा, बहुजन महिलाओं का मुद्दा और रोस्टर आंदोलन जैसे मसले शामिल रहें।

हम लोगों ने लड़ा और कई मायनों में हमने जीत हासिल की। ये सारे आंदोलन आने वाली पीढ़ियों और वर्तमान पीढ़ी के सामाजिक न्याय के मसले पर थे, जिससे बहुजन समाज को न्याय दिलाने की कोशिश की जा रही थी। हम सभी ने तय किया कि हम एक हैं, एक होकर लड़ेंगे जिससे बहुजन आंदोलन को बल मिलेगा।

मुझे पर्सनल टारगेट किया जाता है

पिछले एक महीने से ये सारी बातें सोचने के बाद मैंने 3 सितंबर 2019 को ‘बापसा’ छोड़ दिया। मैंने देखा कि धीरे-धीरे सारे बहुजन एकता के दावे खोखले पड़ने लगे।

हालात ऐसे हो गए कि चुनाव का रिज़ल्ट आने के बाद बहुजन साहित्य संघ के ग्रुप में एक व्यक्ति ने सार्वजनिक तौर पर मुझे पर्सनल टारगेट करके मैसेज लिखा। इसके बाद मैंने बोला कि जो भी लिखा गया है, उसके लिए माफी मांगनी पड़ेगी या यह क्लियर करना होगा कि वे शब्द कैसे बराबरी के हैं?

इस संदेश के बाद मेरी पहचान बहुजन से लाकर ओबीसी पर तय कर दी गई। इसके बाद एक शख्स ने मेरी संगठन की एक दलित महिला को सार्वजनिक तौर पर बोला कि वह संगठन चलाने लायक नहीं है, जिस पर बाद में उन्होंने माफी भी मांगी। एक आदिवासी महिला को भी यह बोला कि वह माचीस लगाने का काम कर रही है।

ओबीसी के नाम पर मैं की गई टारगेट

अब मामला धीरे-धीरे महिला बनाम पुरुष का भी हो रहा था। जेंडर के मसले पर वह अपने स्टेटमेंट को जस्टफाई नहीं कर पाए तो सीधा जाति पर आ गए और ओबीसी होने के नाते मैं उनके लिए सबसे आसान टारगेट बन गई। जिस समूह में मेरा सार्वजनिक तौर पर अपमान हुआ, उसमें उल्टे मुझसे ही माफी मांगने के लिए कहा गया, क्योंकि मेरा अपमान करने वाले और उनके साथी दोनों अनुसूचित जाति से हैं इसलिए मुझे माफी मांगनी चाहिए।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- pixabay

जवाब में मैंने भी उन्हें बताया कि उन्हें जेंडर जस्टिस की अपनी समझ को ठीक करने की ज़रूरत है और अगर वह दलित है, तो मैं भी पिछड़ी जाति की महिला हूं। खैर, आपको जानकर हैरानी होगी कि किसी भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में इस कम्युनिटी से प्रोफेसर नहीं हैं। यहां तक कि ओबीसी के भी शोषण हो रहे हैं और दलित महिला को यह बोलते वक्त कि वह पद संभालने योग्य नहीं है, तब आपका जाति प्रेम कहां चला जाता है? 

इसके साथ ही मैंने अपना स्टेटमेंट वापिस लिया लेकिन जब मैंने देखा कि मामला अब मूल मुद्दे से भटक चुका है और मेरा सार्वजनिक हैरसमेंट सिर्फ इसलिए कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि मैं ओबीसी महिला हूं। खैर, बहुत निराशा के साथ मैंने समूह छोड़ दिया। यह काफी दुखद है कि पिछड़ी जाति से आने के कारण लोगों ने व्हाट्सएप पर मुझे टारगेट किया। 

इसके बाद उस आदमी ने व्यक्तिगत मैसेज के ज़रिये मुझे एक लंबा संदेश लिखकर भेजा, जिसमें कुछ शब्द ऐसे थे कि मैं सिर्फ और सिर्फ अहीर जाति की स्त्री हूं और स्वघोषित क्षत्रिय महिला हूं। मैंने सिर्फ शुक्रिया लिखकर उनका जवाब दिया।

मेरी आइडेंटिटी तय करने का अधिकार पुरुषों ने ले लिया

मेरी पहचान बहुजन से ओबीसी के बाद अहीर जाति की स्व-घोसित क्षत्रिय महिला की तय कर दी गई। 8 सितंबर से लेकर 15 सितंबर तक पूरे 8 दिन महिलाओं के इतने अपमान के बाद भी समूह में पूर्व अध्यक्ष ने उस स्टेटमेंट पर अपना कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया और हमारे दूसरे साथी लगातार बहुजन महिलाओं की योग्यता पर सवाल उठाते रहें।

इन सब बातों के बाद भी मैंने सबकुछ सुना, समझा और चुप रहना तय किया लेकिन मेरी आइडेंटिटी तय करने का अधिकार इन पुरुषों ने लिया था और पर्सनल संदेश तथा सार्वजनिक व्हाट्सएप समूहों में मेरी पहचान तय करते रहें। मैंने सोचा कि मेरी पहचान मेरा काम तय करेगा और अगर मैं लिखूंगी तो बहुजन समाज की ही चीजे़ं बिगड़ेंगी। इन वजहों से मैंने लिखना बंद कर दिया।

ग्रुप में होने लगे कई तरह के मैसेज

20 सितंबर की रात को मैं अपना फोन चला रही थी तभी एक ग्रुप में एक नंबर से अनुसूचित जाति को लेकर एक जातिवादी संदेश आया।  एडमिन होने के नाते मैंने अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए उस नंबर को ग्रुप से रिमूव कर दिया और मैं खुद भी उस ग्रुप से निकल गई, क्योंकि उसमें मेरे कई बार सिर्फ अर्जेंट मैसेज भेजने के निवेदन को नज़रअंदाज़ करते हुए अलग-अलग तरीके के मैसेज डाले जा रहे थे।

जिस उद्देश्य से वह समूह बना था, उसमें वह फेल हो रहा था। यह समूह हमारी साथी महिला के साथ मुनिरका में हुई अपराध के कारण अर्जेंट बेसिस पर बनाया गया था, ताकि कैंपस के बाहर स्टूडेंट्स को कोई समस्या होने पर तुरंत उस समूह में मदद के लिए सूचना डाली जाए। यह ग्रुप बनाने का निर्णय एक कमरे में बैठे हुए 10 से 15 लोगों का था।

ग्रुप से निकलने के बाद मेरे एक दोस्त ने मुझे उस ग्रुप के कुछ संदेश दिखाए, जिसमें बिना मेरा मत जाने मेरा पब्लिक ट्रायल शुरू हो चुका था और जाति सूचक शब्द लिखने वाले व्यक्ति से ज़्यादा, ग्रुप से निकलने वाले पर चर्चा शुरू की जा चुकी थी।

कोर्ट में देख लेने की धमकी दी गई

इसके बाद मुझे कोर्ट की धमकी देते हुए उन्होंने बोला कि आप अब कुछ मत बोलिए और आप अपने हिस्से की सफाई कोर्ट में दीजिएगा। इसके आगे मैं लिख ही रही थी कि उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया। मैंने भी सोचा कि ठीक है, मैं कोर्ट में ही अपनी बात रखूंगी और बहुजन से ओबीसी, ओबीसी से अहीर स्वघोषित क्षत्रिय महिला होते हुए मैं अब कोर्ट में तलब होने वाली लड़की बन गई, जिसका बिना पक्ष जाने गैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से पब्लिक डिफेमेशन शुरू कर दिया गया।

फोटो साभार- pixabay

वह मुझे सामने भी दिखे मगर मुझसे कुछ पूछा नहीं। जिस ग्रुप में मैं नहीं हूं, उसमें एक बार फिर वे मेरी पहचान तय करने लगे। उस रात मैंने तय किया कि कोर्ट में ही अपनी बात रखूंगी। उस रात से लेकर अभी तक मेरा मन इतना बेचैन है कि आत्महत्या करने का मन कर रहा है। लग रहा है कि कहीं ऐसी जगह चली जाऊं, जहां मेरी पहचान ना तय की जाए और बिना मेरी मर्ज़ी के मेरा दृष्टिकोण ना तय हो।

मुझे बनाया जा रहा है निशाना

मैं जो अपराध करने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकती हूं, उसके लिए सार्वजनिक तौर पर मेरे बारे में सभी लोग जज बनकर बोल रहे हैं। क्या मैं किसी खास जाति के खिलाफ हेट उगल रहे व्यक्ति को उस ग्रुप में रहने देती? उस ग्रुप से उसे निकालने फिर उससे बात करने की मेरी पहल आपराधिक है क्या?

मेरी बात करने की पहल पर मुझे ब्लॉक कर दिया जाता है। कोई क्यों यह तय करेगा कि मैं कब और कहां क्या बोलूंगी? 20 तारीख की रात से लेकर अभी तक का समय मेरे लिए काफी कठिन है। मुझे हर वक्त लगता है कि मेरा सिर फट जाएगा और मैं आत्महत्या कर लूंगी।

इसके ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ मेरा पक्ष जाने बिना, मुझे पर्सनल टारगेट करने वाले वह व्यक्ति व अन्य लोग होंगे। मेरा स्टैंड शुरू से क्लियर है कि शिकायत की जाए। मैं अंतिम समय तक रहूंगी। मेरा जो पक्ष है, मैं कोर्ट में रखूंगी।

मुझे यह सफर मानसिक प्रताड़ना दे चुका है

बहुजन एकता से लेकर कोर्ट की धमकी और लगातार मेरी अनुपस्थिति में मेरा पब्लिक ट्रायल होने का यह सफर मुझे पूरी तरह मानसिक प्रताड़ना दे चुका है और हर समय मैं यही सोच रही हूं कि क्या डिसएग्रीमेंट का मतलब क्रिमिनल होना होता है?

क्या मैं एक ओबीसी महिला होकर कोई सवाल नहीं उठा सकती हूं? क्या ग्रुप बनाते वक्त हम लोग सबका वोटर आईडी और आधार कार्ड जैसी चीजे़ं लेकर किसी को शामिल करते हैं? क्या ग्रुप का क्रिएटर और एडमिन होना कोई गुनाह है? या क्या यह दोनों चीज़ें कोई लीगल पोस्ट हैं? क्या ग्रुप क्रिएटर या एडमिन बनने से पहले कोई कॉन्ट्रैक्ट साइन किया जाता है कि कोई उस ग्रुप को नहीं छोड़ सकता है? क्या ग्रुप में हेट फैलाने वाले को ग्रुप से ना निकाला जाए?

मैं सारे सवालों के जवाब कोर्ट में दूंगी

खैर, उनके जो सवाल मुझसे हैं, उनका जवाब तो मैं कोर्ट में दूंगी लेकिन जो सवाल मेरे हैं वह पूरे बहुजन समाज के लिए हैं कि कैसे पिछड़ी जाति से आने वाली एक महिला के पब्लिक ट्रायल का अधिकार आपको मिल जाता है? कैसे आप एक ओबीसी महिला को अपनी सुविधानुसार बहुजन से लेकर ओबीसी फिर अहीर और स्वघोषित क्षत्रिय महिला की पहचान तय कर देते हैं?

कौन आपको यह अधिकार देता है कि आप एक महिला को लगातार पर्सनल मैसेज भेजकर परेशान करें और यह तय करें कि वह कब, कहां और क्या बोलेगी?

मैंने कई महीनों से चुप रहने का निर्णय लिया था, क्योंकि प्रतिनिधित्व और बराबरी को लेकर मेरी असहमतियां अंदर ही अंदर मुझे परेशान कर रही थीं और उन्हें पब्लिकली लिखने से बहुजन आंदोलन का नुकसान होता लेकिन आज मैं इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि शायद मैं इन हालातों में जी भी ना पाऊं या इतने अपमान के बाद अब क्या बचा है मेरे पास? ना ही मैं ठीक से पीएचडी का काम कर पा रही हूं और ना ही कुछ पढ़ने की हालत में हूं।

मेरे सार्वजनिक अपमान का अधिकार किसी को नहीं है

बहुजन एकता की बातें जब शुरू की गई थीं, तब यह किसी ने नहीं बताया कि पिछड़ा होकर सवाल नहीं पूछ सकते हो या अपमान होने पर माफी की डिमांड नहीं कर सकते हो। भले ही तुमने सारा बहुजन मूवमेंट साथ में किया हो लेकिन तुम्हारा पब्लिक ट्रायल कभी भी हो सकता है।

मुझे बस इतना पता है कि बाबा साहेब ने जो अधिकार आपको दिए हैं, वही अधिकार मुझे भी प्राप्त हैं और यकीनन उन्होंने मेरे सार्वजनिक अपमान का अधिकार आपको नहीं दिया है।

मेरा पक्ष जाने बिना लगातार मेरा सार्वजनिक अपमान करने पर मुझसे माफी मांगी जाएगी, इसकी भी मुझे कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि शायद एक ओबीसी महिला का कोई अस्तित्व ही समाज की नज़र में नहीं है। बहुजन से लेकर सार्वजनिक अपमान तक के सफर के लिए आप सभी का शुक्रिया।

मैं किसी को कोई जवाब पर्सनल संदेश या ग्रुप में नहीं दूंगी और ना ही इन समूहों में रहूंगी। हैरसमेंट का और जो तरीका आता हो, वह भी अपना लीजिए लेकिन मेरा सवाल हमेशा इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द रहेगा, क्योंकि हमारे लिए कोई भी कम्युनिटी और उसका प्रतिनिधित्व का मुद्दा मज़ाक नहीं है।

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