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गाँव की कच्ची सड़कों से शहर की पक्की सड़कों की ओर भागती ज़िन्दगियां

परीक्षा में समेस्टर सिस्टम लागू होने से बहुत पहले ही ग्रेड सिस्टम ने समाज को अपने आगोश में ले लिया था। नौकरी भले ही फोर्थ क्लास तक की रही हो लेकिन समाज में लोगों का विभाजन थर्ड-क्लास तक रहा है, जिसके लिए मैं पूर्वजों का आभारी हूं और सरकार से हमेशा की तरह शिकायत है कि नौकरी चार डिग्री तक ही क्यों सीमित रही? 

अमूमन गाँव की कच्ची सड़क से भागते हुए शहर की पक्की सड़क तक आते-आते ज़िंदगी थर्ड क्लास से फर्स्ट क्लास हो जाती है। यही सोचकर कई लड़के मूंछ आते ही गाँव से शहर की ओर लपक पड़ते हैं। वे इस उम्मीद के साथ जाते हैं कि वह गाँव जाकर थर्ड ग्रेड की डिग्री पड़ोस के चाचा और कलेजा मज़बूत रहने पर मुखिया के दरवाज़े पर फेंक देंगे। जैसे “मांझी द माउंटेन मैन” सिनेमा में मांझी “सब बराबर” वाला नारा लगाते हुए करता है।

क्या इतना आसान है शहर का फर्स्ट क्लास होना? गाँव के बिना छप्पर वाले स्कूल में भी फर्स्ट आने वाला लड़का किसी को खुद से आगे आने नहीं देता है, तो क्या शहर के वे लोग जो सभ्य होने का तमगा लिए खुद को फर्स्ट क्लास कहते हैं, वे किसी गाँव वाले को फर्स्ट क्लास होने देंगे?

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Getty

अगर नवाबों वाले हुक्का का शौक रखते हैं, तो मोटरगाड़ी के धुएं से मुखाग्नि का भी इंतज़ाम रहता है। अब गाँव के जैसे कोई ताना भी नहीं देता है कि शहर कभी देखे हो या नहीं। धक्का खाकर मेट्रो में भी चढ़ने का अनुभव हो जाता है। गाँव में जिस पुलिस से डरते थे, उसको भी 20-30 रुपए देकर औकात नापने का अनुभव हो ही जाता है।

वैसे भी बेज़ुबान गाँव वालों के लिए 20-30 कोई रिश्वत नहीं, बल्कि शहर की भाषा है, जो डीयू और जेएनयू में फ्रेंच और जर्मन लैंग्वेज की पढ़ाई करने वालों से कहीं ज़्यादा प्रभावी होती है।

खैर, हम अपनी डिग्री पर आते हैं। पहले की तरह अब पड़ोसी से भी कोई टेंशन नहीं है। गाँव वाले तो दिनभर बोलते रहते थे। शहर वाले तब भी नहीं बोलते हैं, जब कुत्ता आपकी थाली में मुंह डालकर चल दे। गाँव में तो 10 लोग खाने के लिए पूछते थे। शहर में पड़ोसी भी रोज़ नया मिलता है। 

गाँव में तो रामतेतर चाचा दिनभर भुकाने आ जाते थे। एक ही चेहरा देखकर मन ऊब जाता था। दारू पीकर आए नहीं कि फूलपुर वाली मौसी 500 गाली देती थी। यहां शहर में पुड़िया भी लेने पर कोई नहीं बोलता। बस 20-50 दे दो सिपाही को।

एकदम सबकुछ फर्स्ट क्लास लगता है। थर्ड ग्रेड से बाहर वाली फिलिंग महसूस किए हैं कभी? खेत-खलिहान से दूर, मुखिया जी के तानों से दूर थर्ड ग्रेड से फर्स्ट ग्रेड होना एक सुखद एहसास है। डर सिर्फ इस बात का है कि कहीं यह फर्स्ट ग्रेड वाला शहर गाँव से निकालकर क्लास विहीन ना कर दे।

दूसरों के खेत की मज़दूरी छोड़कर शहर में मैला ढोना थर्ड ग्रेड से बाहर आने का एहसास तो नहीं है। मौसी और चाचा की बकैती से दूर मोटरगाड़ी का शोर फर्स्ट ग्रेड होना तो नहीं है। खैर, थर्ड ग्रेड से फर्स्ट ग्रेड होने की मुबारक तो बनती है।

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