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क्या आदिवासी समाज में मेंस्ट्रुअल टैबूज़ हैं?

tribal community

इस प्रकृति के निर्माण के वक्त बहुत सारे जीव-जन्तुओं का भी निर्माण हुआ। हम मानव भी इसी का एक हिस्सा माने जाते हैं। संसार में बनी तमाम वस्तुओं से लेकर मानव शरीर और हमारे जीवन में कई तरह के बदलाव होते हैं।

वे बदलाव कुछ कुदरती होते हैं तो कुछ रचित मगर यह परिवर्तन हर किसी के लिए लाभदायक या नुकसानदायक हो, यह कहना आसान भी है और मुश्किल भी, क्योंकि कुदरती बदलाव लोगों के जीवन में कई खुशी एवं गम के माहौल बनाता है।

प्रकृति मानव शरीर को भी प्रभावित करती है

मानव शरीर में होने वाले बदलाव पुरुष और स्त्री दोनों में अलग-अलग होते हैं और ये बदलाव पुरुष और स्त्री के लिए कई तरह की चुनौतियों को भी जन्म देते हैं।

महिलाओं एवं किशोरियों में होने वाली माहवारी को हर स्थान पर विभिन्न तरह से देखा जाता है। कहीं-कहीं यह बहुत साधारण सा रहता है, तो कई जगहों पर महिलाओं एवं किशोरियों पर कई तरह के बंधन होते हैं।

माहवारी के दौरान महिलाओं को अपने ही घर में बंधक बना दिया जाता है

आज बदलते दौर में धीरे-धीरे लोग समझने लगे हैं कि यह कुदरती है मगर कई स्थानों पर अब भी महिलाओं को अपने घर में ही कई कार्यों को करने से रोक दिया जाता है।

जब एक माँ को रोक दिया जाता है तो आने वाले समय में उस घर की बेटी और बहू भी समझ जाती है कि उसे माहवारी के समय घर के कुछ कार्य जैसे- खाना बनाना या पूजा घर वाले स्थान पर नहीं जाना है।

एक आदिवासी समुदाय में महिलाओं की ज़िन्दगी

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

भारत विभिन्नताओं वाला देश है जहां विभिन्न संस्कृति को जीने वाले लोग रहते हैं। साथ ही कई समाज भी, उन्हीं समाज में से मैं अगर राजस्थान के उदयपुर ज़िले की कोटडा तहसील में स्थित आदिवासी समाज के भील समुदाय की बात करूं तो यहां की कहानी कुछ और ही है।

माहवारी के समय यहां की किशोरियों एवं महिलाओं पर किसी भी प्रकार की कोई बंदिश नहीं होती है मगर हां कुछ आदिवासी इलाकों में अलग तरह के दृष्य देखने को मिलते हैं।

आदिवासी समाज में माहवारी के दौरान महिलाओं के साथ ना के बराबर भेदभाव होता है। माहवारी के दौरान आदिवासी समाज में महिलाओं की ज़िन्दगी को हर दिन की तरह सामान्य ही समझा जाता है।

किशोरी लड़कियों में आज भी माहवारी को लेकर जानकारी का अभाव है

इससे हटकर देखें तो आज भी किशोरी लड़कियों को माहवारी के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। उसे पहली माहवारी आती है तो नहीं पता होता है कि क्या करना है या क्या नहीं करना।

विद्यालय में भी महावारी के बारे में लड़कियों को जानकारी देने के नियम बने हैं मगर वे भी दूसरे नियमों की तरह केवल कागज़ों तक ही सीमित हैं।

गाँव की महिलाएं माहवारी के दिनों में आज भी कपड़ा ही उपयोग करती हैं

गाँव की महिलाएं सैनिटरी पैड्स के बारे में नहीं जानती हैं। वे केवल कपड़ा ही उपयोग करती हैं। उसे दोबारा धोकर फिर वापस उपयोग में लाती हैं। एक माँ अपनी बेटी को नहीं बताती कि उसे क्या हुआ है? वह अपनी सहेली से बात करेगी तो उसे खुद-ब-खुद धीरे-धीरे समझ आता है।

मगर एक बात स्पष्ट है कि आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं व किशोरियों के साथ माहवारी को लेकर किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होता है।

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