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“मेरे आंगन की उस लंगड़ी चिड़िया की आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है”

बहुत ही मनमोहक दृश्य उत्पन्न हो जाता था, जब वो हमारे आंगन में आती थी। फुदकती थी, कभी खुले आंगन में तो कभी बरामदे पर। मैं बात कर रहा हूं उस लंगड़ी चिड़िया की, जो हर रोज़ की मनोहर सुबह को मेरी मीठी-मीठी नींद से जागने के बाद अपनी ची-ची की कलरव ध्वनि से मुझे आनंदित किया करती थी।

किसी को नहीं पता कि वह कहां से आई थी। आह! क्या दृश्य हुआ करता था। एक तरफ सूरज की किरणें और दूसरी तरफ अपनी सुनहरी पंखों को लिए अपनी आंखों में कई भाव समेटे हुए नज़र आती। उसकी आंखें, मानों आंखें नहीं समुन्दर हो, ना जाने कितने भाव, कितने दर्द समेटे हुए।

जब मैं उसे देखता तो मेरी आंखें हर्षोल्लास की भाव-भंगिमा से परिपूर्ण हो जाती। जैसे वह बारिश की बूंदे हो, जिसे पाकर किसान तृप्त हो जाता है। जिसे पाकर किसानों की आंखें चमक उठती हैं, उनके दिलों में तरह-तरह की खुशियों हिलोरें मारने लगती हैं। ऐसा लगता था कि मानों सारे दुख-दर्द कहीं खो गए हो। जिस बारिश की बूंदों को पाकर खेत की मुरझाई हुई फसलें लहलहा उठती हैं, जिसे पाकर जीवन को एक नया सबेरा मिलता है, उसे देखकर मुझे कुछ ऐसा ही महसूस होता था।

एक अजीब सा आकर्षण था उसकी आंखों में। एक अपनत्व सा अनुभव होता था। जैसे-दो बिछड़े हुए भाई अरसों बाद एक दूसरे से मिल रहे हो। ऐसा लगता था कि बस यूं ही उसे एकटक देखता रहूं। मैं अपनी सुध-बुध खो उठता, तभी मां की तेज़ आवाज़ मेरे कानों से टकराती, “जल्दी से फ्रेश होकर नाश्ता कर लो”। फिर मैं आधे-अधूरे मन से वहां से उठकर चला जाता, फ्रेश होने।

फोटो प्रतीकात्मक है। सोर्स- Pexels

उसे देखते ही मेरे कदम बेतहाशा रसोईघर की तरफ चले जाते और बचे हुए रोटी के टुकड़े उसके सामने लाकर रख देता। उन रूखे-सूखे रोटी के टुकड़ों को देखते ही उसका मन पुलकित हो उठता। फुदक-फुदक कर कभी उस रोटी के टुकड़े को खाती तो कभी ची-ची करती। उसे इतना खुश देखकर मेरे होठों पर अनायास एक हल्की सी मुस्कुराहट आ जाती। मैं भी उसके साथ छोटे बच्चों की तरह खेलने लगता, उससे बातें करता रहता।

धीरे-धीरे यह सिलसिला लगातार चलता ही जा रहा था। बहुत सारे पंक्षी हमारे आंगन में आकर कलरव करने लगे। अब तो ऐसा हो गया था कि उन पंक्षियों की कलरव ध्वनि से ही मेरी सुबह होती। उन पंक्षियों की झुंड में भी मेरी नज़रें उस लंगड़ी चिड़िया पर ही टिकी रहती। अब वह मेरी ज़िन्दगी का एक छोटा सा हिसा बन चुकी थी। उसके बिना ज़िन्दगी में एक खालीपन सा लगने लगा था। उसके बिना वह बड़ा सा मकान सूना सूना सा हो जाता था।

कभी-कभी जब मैं उसे नहीं देखता तो दिल बेचैन हो उठता, मन में तरह-तरह की शंकाएं पैदा होने लगती, आंखों के आगे भय सा छा जाता। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता। किसी अशुभ बातों का ख्याल आते ही रूह कांप सी उठती। पता नहीं क्यों पर एक लगाव सा हो गया था उससे। उसकी ची-ची की ध्वनि में एक अपार सुख का अनुभव प्राप्त होता था। उसे देखकर मन भाव-विभोर हो उठता।

जाड़े की ठिठुरती सुबह थी, जब वह पहली बार मेरे घर के आंगन में आई थी। कभी अपने छोटे से पंख फड़फड़ाती तो कभी ची-ची की मधुर ध्वनि अपने कंठों से निकालती। किसी आकस्मिक दुर्घटना में उसकी दायीं पैर कट गई थी। शायद इसी वजह से अपनी बिरादरी से बाहर हो गयी थी या फिर अपनी बिरादरी से भटक गयी थी।

ऐसे कई तरह से प्रश्न मेरे मन में आ रहे थे। उसकी आंखों में मुझे अकेलेपन का दर्द नज़र आ रहा था। उसे देखकर दिल मार्मिक हो उठता लेकिन इतने कष्टों को झेलते हुए भी उसमें जीने की लालसा थी। वह अपनी ज़िन्दगी से जद्दोजहद कर रही थी। जब मैं उसे देखता तो बरबस मुझे हरिवंश राय बच्चन की वह कविता याद आ जाती, जिसकी पंक्तियां हैं-

मैंने चिड़िया से पूछा, ‘मैं तुम पर एक कविता लिखना चाहता हूं।’

चिड़िया ने मुझसे पूछा, ‘तुम्हारे शब्दों में मेरे परों की रंगीनी है?’

मैंने कहा, ‘नहीं’

‘जान है?’

‘नहीं।’

‘तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?’

मैंने कहा, ‘पर मुझे तुमसे प्यार है।’

सच में मुझे प्यार हो गया था उससे। उसे सामने ना पाकर मन में अनेक शंकाएं घर करने लगती। पता नहीं क्यों पर शायद उसे खोने का डर। जब उसे देखता तो मन फुदकने लगता, गुदगुदी सी होने लगती थी दिल में। मैं चहकने लगता, मानों दुनिया की सारी खुशियां मेरे अंदर समा गई हैं।

लेकिन अचानक एक दिन वह हमेशा के लिए गायब हो गयी। मेरी निगाहें उसे बेतहाशा चारों तरफ ढूंढने लगी। एक, दो, तीन, चार, पूरा पखवाड़ा बीत गया। मैं उसके आने की प्रतीक्षा में अपना सुध-बुध खोता जा रहा था। मैं अभी और उसके साथ खेलना चाहता था, फुदकना चाहता था, चहकना चाहता था। उसके इंतज़ार में निगाहें थम सी गयी थी, आंखें पथराई सी हो गयी थीं। मैं इंतज़ार करता रह गया पर वह कभी वापस नहीं आई।

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