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गोधरा रेलवे हादसे से महज 6 महीने पहले फ़िल्म गदर में भी ऐसे वीभत्स दंगों को दिखाया गया था

गदर एक प्रेम कथा फिल्म पोस्टर

एक माँ के कदम अपनी नौजवान बेटियों की ओर बढ़ रहे थे लेकिन मां के कदम और हाथ में ज़हर की पुड़िया दोनों ही संकोच कर रहे थे कि किस तरह अपनी नौजवान बेटियों को इसे सुपुर्द किया जाए। खैर,अब ज़िम्मेदारी बाप के सिर पर आती है। जो भरे दिल से और दो कदमों के फासले को बड़ी मुश्किल से पार करके ज़हर की पुड़िया अपनी दोनों नौजवान बेटियों को सौंप देता है। वह यह कहकर पुड़िया सौंपता है कि अगर कोई दंगाई उन पर हमला करे तो अपनी इज्ज़त बचाने के लिए ज़हर की पुड़िया निगल लें और अपनी जान देकर भी अपनी इज्ज़त जरूर बचाएं।

जब यह पूरा परिवार एक रेल के सफर में रेल के चलने का इंतज़ार कर रहा होता है तब ही दंगाई अल्लाह हु अकबर का नारा लगाकर उस रेल पर हमला कर देते हैं और परिवार में मां, बाप की हत्या दंगाइयों द्वारा कर दी जाती है और ज़हर की पुड़िया खाने में नाकामयाब इस परिवार की बेटियां दंगाइयों द्वारा बलात्कार का शिकार होती हैं।

दरअसल यह 1947 में भारत और पाकिस्तान के बनने के साथ-साथ धर्म और मज़हब के आधार पर हुए पलायन की ज़मीन पर बनी फिल्म गदर एक प्रेम कथा का एक शुरुआती दृश्य है, जहाँ पीड़ित परिवार सिख है और इसी ट्रेन में और पीड़ित परिवार भी हैं जो हिंदू हैं और दंगाई मुसलमान मसलन पाकिस्तानी हैं।

लकीर के दूसरे हिस्से में फिल्म का अगला दृश्य फरमाया जाता है, जहां इसी तर्ज़ पर रेल गाड़ी में लूटमार, कत्लेआम और बलात्कार पीड़ितों की सिसकियां सुनाई देती हैं। यहां पीड़ित सिख और हिन्दू हैं और दंगाई मुसलमान हैं। फिल्म दोनों दृश्यों के माध्यम से यह दर्शाने में कामयाब रही है कि पलायन के दौरान कत्लेआम की शुरुआत पाकिस्तान मसलन मुसलमानों द्वारा की गई थी लेकिन इस कत्लेआम की बुनियाद कहां और किसने रखी थी यह बात अलग-अलग ज़ुबानों से अलग-अलग हकीकत बनकर उभरती रही है।

वहीं इन्हीं दोनों कत्लेआम के दौरान एक जगह अशरफ अली के किरदार में मौजूद अभिनेता अमरीश पुरी यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि मुस्लिम लीग भारत के पंजाब के हिस्से को पाकिस्तान में मिलाने में कामयाब नहीं हो पाया। यहां कहानीकार बहुत चतुराई से यह बताने में कामयाब होता है कि पाकिस्तान बनने का कारण सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम लीग है लेकिन हिंदू संगठनों का इसमें क्या योगदान रहा है इसे बताने की कहीं कोई कोशिश नहीं की गई है।

फिल्म एक प्रेम कथा पर आधारित है। इसी के तहत तारा सिंह के किरदार में अभिनेता सनी देओल जो कि इस पलायन का पीड़ित है और सकीना के किरदार में अमीषा पटेल जो खुद भी इस कत्लेआम की पीड़ित है| दोनों की मुलाकात के बाद एक और दृश्य आता है जिसने मेरा व्यक्तिगत रूप से ध्यान केंद्रित किया।

जब सकीना तारा सिंह के घर में एक अतिथि के रूप में पनाह लेती है उसी समय कुछ दंगाई तारा सिंह के घर में हमला कर देते हैं, जहां लिबास में निहंग सिख दिखाये गये हैं जहां पूर्णतः पगड़ी, सिख कपड़ों का लिबास और हाथ में सिख मान्यताओं के आधार पर तलवार दिखाई गई है। हमलावर सिख सनी देओल के हाथों पिटते दिखाई देते हैं और उनको एक इस तरह के अपराधी के तौर पर दिखाया गया है, जहां वे मजलूम, कमज़ोर औरत सकीना को एक भीड़ के रूप में उठाने के लिए आए होते हैं। नज़रों को धुंधला करके सिख समुदाय को इस तरह बदचलन आचरण में दिखाना यकीनन फ़िल्म निर्माता की एक सोची समझी साज़िश को ही पुष्ट करता है।

फिल्म आगे चलती है जहां तारा सिंह और सकीना के बीच प्रेम पनपता है और बाद में दोनों शादी के बंधन में बंध जाते हैं। जहां आगे इनका एक बेटा होता है। हिन्दू रीति रिवाजों के प्रतीक चिन्हों के माध्यम से जैसे मांग में सिंदूर,सकीना हिन्दू धर्म के प्रति अपनी स्वीकृति देती हुई नज़र आती हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि तारा सिंह को फिल्म में एक सिख के रूप में दिखाया गया है।

वहीं सिख धर्म मान्यताओं के अनुसार अनुसार मांग का सिंदूर, सिख धर्म में स्वीकार नहीं है लेकिन सकीना के मांग का सिंदूर, सिख परिवार द्वारा हिंदू धर्म की मान्यताओं को जायज़ ठहराता हुआ दिखाई देता है।

मसलन पूरी फिल्म में सिख और मुसलमान, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की तर्ज़ पर आमने-सामने होता है लेकिन हिंदू धर्म की मान्यताओं का फिल्म में बोल बाला है। मसलन फिल्म के एक दृश्य में कत्लेआम के दौरान अमृतसर की गलियों में हर-हर महादेव के नारों की आवाज़ें सुनाई देती हैं। जहां पीड़ित मुसलमान हैं और दंगाई सिख हैं।

इसी बीच सकीना को अपने परिवार के पाकिस्तान में ज़िन्दा होने की खबर मिलती है | जिसके तहत सकीना पाकिस्तान चली जाती है और इसके बाद सनी देओल मसलन तारा सिंह पाकिस्तान का वीजा ना मिलने के बावजूद जबरन पाकिस्तान की सीमा में दाखिल हो जाता है | जहां फिल्म को जज्बाती मोड़ देने के लिये तारा सिंह अपने 6 से 8 साल के बेटे को भी अपने साथ ले जाता है।

इस समय तारा सिंह के सिर पर पगड़ी तो होती है लेकिन चेहरे पर सिख धर्म की पहचान के अनुसार दाढ़ी-मूँछ सब गायब हैं। लेकिन जब तारा सिंह हाथ में तलवार लेकर कत्लेआम में शिरकत कर रहा होता है,जहां पीड़ित सुमदाय मुसलमान है और दंगाई हिन्दू वहां पूर्णतः वह एक सिख लिबास में नज़र आता है। फ़िल्म पूर्णत: सिख और मुसलमान समुदायों के बीच आपस में दूरियां बढ़ाने की एक साज़िश की भूमिका में ज़रूर नज़र आती है।

खैर, बिना दाढ़ी-मूँछों के बस सिर्फ पगड़ी को लिबास में शामिल करके सनी देओल मतलब तारा सिंह पाकिस्तान में जाकर सकीना की तलाश में जुट जाते हैं। फिल्म कई मोड़ से होकर एक जगह पर आकर रुक जाती है,जहां भीड़ से लबालब एक स्टेडियम की भूमिका में दर्शक बैठे हुए दिखाई देते हैं। जहां यह पाकिस्तान की ज़मीन दिखाई दी गई है,वहीं दर्शक भी मुसलमान के रूप में दिखाई देते हैं और तारा सिंह का इम्तिहान इस रूपरेखा में होता है,जहाँ उसके पास-फेल के परिणाम पर तारा सिंह को सकीना सौंपी जाएगी।

यहाँ यह तय नहीं होता है मसलन पहला सवाल होता है क्या तारा सिंह को इस्लाम क़ुबूल है या नहीं? यहाँ थोड़ा वक्त लेकर तारा सिंह सरेआम इस्लाम को क़बूल कर लेता है। सिख इतिहास कुर्बानियों से भरा हुआ है। जहाँ हर शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना के जुल्म को एक सिख ने अपने जिस्म पर झेला है लेकिन कभी भी इस्लाम या किसी और गैर सिख धर्म को स्वीकार नहीं किया। यहाँ तक कि दूध पीते बच्चों को उन की माँओं की गोदी से छीन कर, हवा में उछाल कर तलवार की नोंक से शहीद किया गया लेकिन अपना धर्म नही बदला लेकिन तारा सिंह,इस्लाम क़ुबूल करता है इसके बाद वहाँ का मौलवी तारासिंह को पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाने को कहता है।

मसलन पहले इस्लाम और फिर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे से यह तय था कि इस्लाम का मतलब पाकिस्तान है, जहाँ चिन्हों के माध्यम से बहुत कुछ दिखाया जाता है। यह फ़िल्म भारतीय मुसलमान जिनका इस्लाम में यक़ीन है उनके लिये भारत के प्रति देश भक्ति की परीक्षा की एक लक़ीर खींचने की साज़िश बन कर जरूर उभरती है लेकिन यहाँ भी तारा सिंह जिसने पाकिस्तान बनने के समय अपने पूरे परिवार को कत्लेआम में खो दिया है वह बिना किसी एतराज़ के पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा देता है।

अब मौलवी को छोड़कर अशरफ़ अली के किरदार में अभिनेता अमरीश पुरी तारासिंह को भारत मुर्दाबाद के नारे लगाने को कहता है लेकिन यहाँ तारा सिंह गुस्से में आ ही जाता है। वहीं तारा सिंह का बेटा भी जज़्बाती होकर गुस्से में आ जाता है, मसलन तारा सिंह को इस्लाम क़बूल है। उसे पाकिस्तान जिंदाबाद कहने में भी उसे कोई परहेज नहीं है लेकिन भारत मुर्दाबाद कहने में उसको एतराज भी है, जहाँ वह अपने परिवार को भी दांव पर लगाने में पीछे नही हटता | फ़िल्म आगे अपनी कहानी के अनुसार चलती रहती है।

फ़िल्म ग़दर एक प्रेम कथा ने साल 2001 में सिनेमाघरों में दस्तक दी थी, जहाँ अभिनेता सनी देओल फ़िल्म में तारा सिंह नामक एक सिख की भूमिका में थे जिसके कारण फ़िल्म पंजाब में बहुत कामयाब हुई। वैसे फ़िल्म ने पूरे भारत में कमाई के कई रिकॉर्ड बना दिये थे। आलम यह था कि कई जगह सिख समुदाय के लोग इस फ़िल्म के शो बहुत उल्लास से देखने जाते थे।

मैं भी एक दर्शक के रूप में इस फ़िल्म को देख रहा था। जहाँ दर्शकों में इतनी समझ नहीं थी कि फ़िल्म क्या दिखा रही है और इसका परिणाम क्या होगा लेकिन एक सिख बुज़ुर्ग जिन्होंने शायद 1947 का पलायन देखा था उन्होंने मुझे समझाया कि ये फ़िल्म राष्ट्रवाद को बढ़ावा देती है। जहाँ राष्ट्रवाद को इतना बड़ा बना दिया गया था कि इसके सामने धर्म, व्यक्तिगत पहचान कुछ भी मायने नहीं रखती। खासकर यह फ़िल्म अल्पसंख्यक समुदाय के राष्टप्रेम के लिये एक नई परीक्षा की लक़ीर खींचती हुई दिखाई देती है।

वहीं फ़िल्म के माध्यम से सिख और मुसलमान समुदायों में आपसी दूरियां बढाने का भी एक प्रयास होता हुआ दिखाई देता है लेकिन फ़िल्म के शुरुआत के 20 मिनट में इतनी हिंसा दिखाई गई है कि जहाँ दर्शक इस से क्रोधित भी होता है और इसे स्वीकार करने के साथ साथ जज्बाती रूप से भी जुड़ जाता है।

जहाँ यह फ़िल्म 15 जून 2001 को सिनेमा घरों में दस्तक देती है वहीं इस वक़्त से महज़ 7 महीनों के बाद इसी तर्ज पर गुजरात के गोधरा में रेल हादसा होता है। इसके पश्चात विश्व हिंदू परिषद के लोग इस घटना में मारे गये लोगों को एक जुलूस के माध्यम से अहमदाबाद शहर में घुमाते हैं। उस समय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी टीवी पर आमजनमानस से शांति बनाए रखने की अपील तो करते हैं पर इनके शब्द बहुत उग्र होते हैं।

जहाँ मोदी आरोपियों के लिये बहुत कठोर शब्दों का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं और इसके पश्चात गुजरात में दंगे हो जाते हैं, जहाँ मुसलमान समुदाय को जान माल का भारी नुकसान उठाना पड़ता है। अब यह व्यक्तिगत विश्लेषण होना ही चाहिए कि ग़दर फ़िल्म में दिखाई गई हिंसा और गोधरा में रेल हादसा के पश्चात दंगों में हुई हिंसा का आपस में क्या ताल मेल है लेकिन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गदर फ़िल्म में दिखाई गई हिंसा, हिंसक मानसिकता की प्रवृत्ति को स्वीकृति देती है। जहां गोधरा और इसके पश्चात दंगो में हुई हिंसा पर कहीं कोई सवाल नही उठाया गया,मसलन हिंसा को यंहा भी स्वीकृति मिल रही है, जो वास्तव में बहुत खतरनाक है।

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