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सिंगल मॉम! गीता यथार्थ की एक सहज तस्वीर से क्यों बिलबिला उठा है ये समाज?

सिंगल मॉम! गीता यथार्थ की एक सहज तस्वीर से क्यों बिलबिला उठा है ये समाज?

गीता यथार्थ ने इस तस्वीर को शेयर किया और कहा, “वॉशरूम का लास्ट टाइम गेट कब क्लोज किया था, याद नहीं!” उनका इतना करते ही सोशल मीडिया पर बबाल हो गया। 

सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हो रही है और इस तस्वीर में गीता यथार्थ ने उन समस्याओं के बारे में बात की है, जिसका सामना एक अकेली माँ को करना पड़ता है। किस प्रकार एक महिला, एक सिंगल माँ को छोटे बच्चे की देखभाल में इतना कष्ट उठाना पड़ता है कि वो टॉयलेट का दरवाज़ा भी पूरा नहीं लगा सकती, उसे आधा खुला छोड़ना पड़ता है।

आखिर तस्वीर पर बबाल क्यों?

यह तस्वीर जितनी वायरल हो रही है, उतना ही नैतिकता के ठेकेदारों को इस तस्वीर में  संस्कृति का अपमान, सार्वजनिक अंग प्रदर्शन, अटेंशन सीकिंग और पता नहीं क्या-क्या नज़र आ रहा है। इतना तो तय है, जो कुछ भी कहा जा रहा है वह हमारे तथाकथित समाज की नैतिकता की अश्लीलता है।

एक ऐसी तस्वीर जिसमें एक मां की पीड़ा और बेबसी उसकी आंखों में दिखती है। वह टॉयलेट की सीट पर बैठकर भी बच्चे कि खैरियत को लेकर परेशान भी है और बैचेन भी।

समस्या सिर्फ एक फोटो (जिसमें बाथरूम का आधा दरवाज़ा बंद है और माँ (स्त्री) कमोड पर बैठी है) से है । अरे हाँ! उस (स्त्री) के बारे में तो कोई बोल-बता ही नहीं रहा, जो लगभग वैसे ही वस्त्र और मुद्रा में बिना दरवाज़े  के किसी नदी के बीच पत्थर पर बैठी  ‘तू खींच मेरी फोटो’ यह स्टाइल है?

क्या सिंगल माँ होना अपराध है?

आप गंभीरता से सोचिए हमको अपनी इच्छा, चुनाव, जीवन शैली और विचारधारा के अनुसार, अपना-अपना जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार है ना? आपने वो गीत सुना होगा, मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करुं  मेरी मर्ज़ी।  जिसकी देह, वही मालिक! जैसे चाहे रहे, जिए या मरे उसकी मर्ज़ी! हैं, यह हमारे संवैधानिक दायरों में सही और खरी बात भी है।
मगर, यह बात भारतीय संस्कृति के रक्षक और कट्टर नैतिकतावादियों को कभी पचने वाली नहीं है और समस्या का समाधान इतना सा कहना-मानना नहीं है, बल्कि यह समस्या अधिक संगीन है,लेकिन उसे मात्र एक तस्वीर में ही समेटा जा रहा है और वो यह कि आपने अगर एकल माँ होना चुना है, तब यह सब झेलना ही होगा।

पितृसत्ता की जकड़न क्यों?

समाज द्वारा आपके लिए जो एक सामाजिक लक्ष्मण रेखा खींची गई है, औरत होने के नाते उस लक्ष्मण रेखा के पार कुछ करने की आपने कोशिश भी की तो आपको उस के लिए जुर्माना भरना होगा ना?
एक समस्या यह भी है कि पितृसत्ता के जकड़न में कैद पुरुषवादी मन भी क्या करे? समाज ने उसे कभी भी महिलाओं की भांति संवेदनशील बनने ही नहीं दिया। उसने तो हमेशा माँ को देवी के महान रूप में देखा, जो विवश तो कभी हो ही नहीं सकती है

जिस बाज़ारी संस्कृति में इंसान इन संस्कारी मूल्यों के साथ रोज़मर्रा का जीवन जीना सीख रहा है, वहां वो  मानने लग जाता है कि उसकी मां एक सुपर विमन है। जो दो मिनट में मैगी-पास्ता बना देती है और ढेर सारे मेहमानों के अचानक आ जाने पर झट से चटपटे-कुरकुरे स्नैक्स और डिजर्ट का भी आसानी से प्रबंधन कर सकती है, साथ ही 21 वी सदी में इंटरनेट की क्रांति के कारण वह अब डिजिटली स्मार्ट भी हो गई है। इसलिए अब एक माँ अपने बच्चों की मां नहीं, मां से पार्टनर बन गई है।

सोशल मीडिया के द्वारा उठाए जा रहे अनैतिक प्रश्न

सच्चाई यह है कि देवी, सुपर विमन, स्मार्ट और डिजिटल बन गई मां का लाड़ला पुरुष, अपनी माँ को देखकर इतना ज़हीन भी नहीं बन पाया है कि वह किसी भी महिला की बयां की गई तकलीफ पर मानवीय व्यवहार कर सके।

कुछ तो यहां तक कहने से नहीं चूक रहे हैं कि अगर सिंगल मदर के बस में अकेले बच्चे की परवरिश नहीं है, तब वह बच्चा पैदा ही क्यों कर रही है? क्या हमारी दादी-नानी और माँओं ने कभी बच्चे नहीं पाले ? गोया, हर पुरुष जैसे बच्चा पैदा करने से पहले अपनी जीवनसाथी से सहमति ही लेता हो और नैतिकता का पाठ बांचने वाले कहीं नहीं अपनी माँ से ही इसके बारे में एक बार पूछ लेते तो उनकी माँ की आंखो का एक पोर भीग गया होता।

बहरहाल, यह कोई नई बात नहीं है। मौजूदा समय में हमारे समाज का यह चेहरा कई बार सामने आता रहता है। संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार तो सार्वजनिक जगहों पर एक माँ जब बच्चे को स्तनपान करा रही होती है तो वह उस पर भी संस्कारों की दुहाई और असभ्यता की तोहमतें लगाते हैं।

फूहड़ हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता या तस्वीर

अपने देश में ना जाने ऐसी कितनी ही माँ होंगी, जो सार्वजनिक जगहों जैसे- बसों, ट्रेन और मेट्रों में अपने बच्चे को दूध इसलिए नहीं पिला पाती होंगी, क्योंकि सामाजिक नैतिकता उनको उनके चरित्र का प्रमाणपत्र देने लग जाएगी।

खासकर, तब जब कोई महिला उन दायरों को तोड़कर, अपने लिए कुछ नया रचना चाहती है और तब वह कुछ बोलती है, लिखती है या कुछ भी नया करती है तो कई लोग बिलबिला जाते हैं

गीता यथार्थ की वायरल तस्वीर पर हो रहे कमेंट्स को बड़े गम्भीरता से पढ़ा जाना चाहिए। यह सारे कॉमेंट्स  भारतीय समाज की उस मानसिकता का सच्चा चेहरा है। खासकर, उस भारतीय समाज का जो महिलाओं को देवी के समान पूजने का दावा करता है। मगर, असल में वो उसके पीछे अपनी घटिया-फूहड़ मानसिकता को कभी छिपाता है तो कभी उसका भद्दा प्रदर्शन भी करता है। इसी प्रदर्शन से वह महिलाओं को वास्तव में नियंत्रित करना चाहता है और कुछ हद तक सफल भी रहता है।

मौज़ूदा समय में विपरीत लिंग के प्रति सहानभूति रखने की अक्षमता इस हद तक व्याप्त हो गई है कि तकलीफ पहुंचाने वाला यह मानकर चलता है कि दर्द या तकलीफ वास्तव में पीड़िता का अपना भाग्य है। पीड़िता, स्वयं के अस्मिता के सवाल से इतना घबरा जाएगी कि वह इस तकलीफ को जब्त करके, सब स्वीकार कर लेगी और ये सब उसके आत्मसम्मान को तार-तार भी कर दे फिर भी उसे कोई तकलीफ नहीं होगी।

वास्तव में यह हमारे समाज का वो तय फार्मूला है, जिसका सहारा लेकर हर महिला पर अपना नियंत्रण थोपना चाहता है। बहुत हद तक थोपता भी है। इसका एक कारण यह है कि इसके लिए समाज का एक बड़ा तबका इस मर्दगानी को पुरुस्कृत करता है, जो यह मानता है कि महिलाओं को नियंत्रित करने के लिए यह आवश्यक है।

जब तक हम-आप, हमसे-आपसे बनता परिवार, समाज, राज्य, देश और राष्ट्र अपने अंदर के पुरुष प्रधानता का अंत ना कर दें, जिसने लैंगिकता को हिंसा और आक्रमणकता के समान बनाया है, तब तक हमारे जीवन में इस तरह की घटनाएं स्वयं को दोहराती रहेंगी और हमारे सामाजिक जीवन में इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और हमारे अंदर का  मानवीय संवेदना-प्रेम धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा।

अब आप भी यह ना कहें कि यह कोई नई बात नहीं है। इस अनुभव से केवल सिंगल मदर नहीं हर माँ गुज़रती है। यह हर माँ की कहानी है! लेकिन, अब सोचना आपको है ऐसा क्यों?

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