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‘फेमिनिज़्म’ शब्द सुनते ही लोग डर क्यों जाते हैं?

एक पुरुष प्रधान समाज में नारीवाद के क्या मायने हैं? फेमिनिज़्म शब्द कहीं अंकित होते ही हम आतंकित क्यों हो जाते हैं? महिला उत्पीड़न के मसले को क्यों हमारा समाज संजीदगी से स्वीकार नहीं करता है। रामायण काल से अब तक सदैव नारी को ही अग्नि परीक्षा देने को क्यों मजबूर किया जाता है?

हम ज़हनी तौर पर यह मानते हैं कि सभी बराबर हैं परंतु सत्य अजीब होता है और कभी-कभी विपरीत एवं विकराल भी। हम इसे अपने ही समाज के संदर्भ में स्पष्ट देख सकते हैं। एक तरफ तो हमारा समाज महिलाओं को देवी बनाकर पूजता है, देवी बनाने की प्रक्रिया में हम समाज की सारी नैतिकता के बोझ की गठरी उस नारी के कंधे पर लाद देते हैं। नैतिकता की पतली रस्सी पर चलकर वो देवी शाश्वत हो जाती है, अर्थात मर्यादा की वो परिपाटी जिसे हम अपनी दकियानूसी विचारों की मिट्टी से एक मूरत बनाते हैं, उसे ही पूजना चाहते हैं।

वो दायरा जिसमें पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को सदैव समेटता आया है उस दायरे को तोड़ना महिलाओं के चरित्र पर सवाल उठाने के लिए पर्याप्त रहा है। पितृसत्तात्मक समाज की संरचना में ही वे सारे नियम, नारी व्यथा की ज़मीन पर सजाए हुए महल लगते हैं, जिनके मूल में महिला उत्पीड़न ही निहित होता है।

जब भी कोई महिला इस समाज के बनाए ढर्रे से समझौता ना करके उसके नियमों को तोड़ती हुई एक पृथक रास्ते की ओर अग्रसर होती है, उसपर संदेह की भौंहे तन जाती हैं। लोग उसके चरित्र का आकलन सहजता से करना अपना स्वधर्म समझते हैं। इसमें दोष पुरुषों का भी नहीं है, हमने सदियों की रीत को अपने दिलों दिमाग में इस कदर बैठा लिया है कि जो अनादिकाल से घटित हो रहा है वो ही उचित प्रतीत होता है। हमने कभी उस परंपरा पर प्रश्नचिन्ह लगाने की ज़हमत नहीं उठाई।

हर दूसरे या तीसरे घर में यह कहानी दोहराई जाती है और वहां महिलाओं ने भी अपने ऊपर हो रहे अन्याय और अत्याचार को सहजता से स्वीकार कर लिया है। इस सहजता के मूल में मिलता है बच्चों की हो रही परवरिश में भेदभाव।

आज भी एक ही घर में एक लड़के और लड़की की परवरिश में मौजूद फर्क को हम महसूस कर सकते हैं। एक तरफ उसको बचपन से ही मालूम होता है कि जहां उसका लालन-पालन हुआ उस घर पर उसका कोई अधिकार नहीं है, दूसरी ओर लड़के को यह गुमान होता है कि सबकुछ उसका ही है।

बचपन से ही लड़कियों के मन में जीवन के हर मोड़ पर अन्याय, भेदभाव, अत्याचार से समझौता करने की समझ के बीज बोए जाते हैं, जिसका नतीजा होता है चुप्पी, जो अपनी ज़ुबान किसी अत्याचार के विरुद्ध खोलने को अनैतिक मानती है। जिसके खोखले आदर्श की महान प्रस्तुति हमारे समाज ने ही उसके समक्ष रखी है।

मैंने अपने दोस्तों को कई बार कहते सुना है कि मेरी मां ने इतना बड़ा त्याग किया है परिवार के लिए। यहां सवाल यह खड़ा होता है कि सारा त्याग का ठेका हम महिलाओं पर ही क्यों डालते हैं? क्या वो त्याग के पथ पर ही चलकर महान कहला सकती हैं?

अगर त्याग को ही मानक मान लें तो मेरे उन दोस्तों के पिता तो फिर निम्न मनुष्य कहलाने की योग्यता रखते हैं क्योंकि उनके अनुसार उन्होंने तो वो त्याग नहीं किया, पर यह बात उन्हें स्वीकार नहीं होती। जब त्याग ही मानक है तो सिर्फ महिलाओं के लिए ही यह क्यों आरक्षित है और यह कैसा दोहरा चारित्र है हमारे समाज का कि जो मानक महिलाओं पर लागू होते हैं वो पुरुषों पर नहीं। पुरुष उस त्याग से विरक्त रहकर भी महान हो सकता है, परंतु नारी कोयले के अंगारों पर निरंतर अग्नि परीक्षा देती हुई ही महान बन सकती है।

भक्तिकाल में मीरा बाई का संदर्भ उठाकर देख लें, एक मूरत से अथाह प्रेम को भी वही समाज स्वीकार नहीं कर सका जो ईश्वर का उपदेश रोज़ हमें देता फिरता है। प्रेम में वो क्रांतिकारी शक्ति होती है, जो समाज से बगावत कर अपने आदर्शों का अनुसरण करने को समर्थ बनाती है। क्या उस दौर में मीरा ने सामाजिक मर्यादा का मयार नहीं लांघा था? क्या उस समय मीरा के कृष्ण प्रेम पर समाज की उंगलियां नहीं उठी थी? क्या उसे बहिष्कृत और तिरस्कृत नहीं किया गया था? ये कौन लोग हैं, जो हर काल में मौजूद हैं, जो अपनी नेत्रों में तराजू लेकर सदैव चलते हैं, जिससे वे किसी के चरित्र का भार नाप सकें।

ये वही रूढ़ि और सामंती लोग हैं जिन्होंने पितृसत्ता का निर्माण अपनी सुविधा को ध्यान में रखकर किया है, जिन्हें सदैव परिवर्तन एवं प्रगतिशीलता से परहेज रहा है, जिनकी नैतिक बेड़ियों की ज़द में आज भी महिलाएं कैद हैं।

तब आप समझ सकते हैं फेमिनिज़्म शब्द आते ही लोग इतने भयभीत क्यों नज़र आते हैं। फेमिनिज़्म महिलाओं की पुरुषों के ऊपर आधिपत्य का युद्ध नहीं है, ये संघर्ष है सभी प्रगतिशील तबकों का, पितृसत्तात्मक समाज के चलते मौजूद गैरबराबरी को मिटाकर एक ऐसे समाज के निर्माण का जिसमें लैंगिक समानता का अधिकार सभी नागरिक को मयस्सर हो।

प्रश्न यहां यह बनता है इस विचार से किसे तकलीफ हो सकती है। तकलीफ उन रूढ़ियों को होगी, जिन्होंने आज तक बराबरी का अधिकार महिलाओं को नहीं दिया, जिन्होंने नारी को अब तक एक निश्चित खांचे में घर की चारदीवारी में त्याग की मूर्ति बनाकर स्थापित किया है। अगर नारीवाद की बयार उनके शोषण और आधिपत्य के अधिकार को बहा ले गई तो तकलीफ तो होगी ही। इससे पहले यह लहर उनका सदियों से जमा जमाया शासन बहा ले जाए इसपर बांध बनाने की आवश्यकता तो उन्हें हरदम महसूस होती ही है।

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