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“गवर्मेंट एग्ज़ाम्स की रेस मेरी क्रिएटिविटी छीन रही है”

मेरा नाम विशु राठौर है, मैं उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले से हूं। बचपन में मैं टीवी पर बहुत सारे किरदार देखा करता था, जैसे कि शक्तिमान, शक्लक बूम-बूम (इसमें एक जादुई पेंसिल थी), बैटमैन, सुपरमैन, हैरी पॉटर आदि।

जिस भी किरदार को मैं देखता, वैसे ही बनने की कोशिश करने लगता था, आखिरकार था तो बचपन ही। बचपन से मेरी कला की तरफ दिलचस्पी थी, स्केच बनाना, पेंटिंग करना, चीज़ों को सजाना बेहद पसंद था।

उन चीज़ों को करने से मुझे अपनी ज़िन्दगी का अनुभव होता था, कुछ नया सोचने और करने का जुनून होता था। फिर धीर-धीरे चीज़े बदलने लगीं। मैं नहीं यह दुनिया और समाज बदलने लगा। ये बदलाव मुझसे मेरा जुनून छीनने लगे।

फोटो प्रतीकात्मक है।

स्कूल में सब कहते हैं कि नंबर अच्छे लाओ, फर्स्ट आओ, मेहनत करो, बहुत मेहनत करो। किसी ने कभी यह नहीं कहा कि प्यार से खुश होकर पढ़ाई करो, सिर्फ मेहनत पर ज़ोर दिया गया।

इसी कारण मुझे दुनिया का सबसे आसान काम ‘ज्ञान प्राप्त करना’ सबसे कठिन लगने लगा। सब जगह रेस लगने लगी, हर बच्चा इस रेस में बना रहना चाहता था और हर कोई जीतना भी चाहता था लेकिन रेस के चक्कर में किसी ने खुद को जाना ही नहीं, अपनी प्रतिभा को पहचाना ही नहीं।

स्कूल के बाद कॉलेज के एडमिशन के लिए रेस, फिर गवर्मेंट एग्ज़ाम के लिए रेस। एक बच्चे के 25 साल सिर्फ रेस में निकल जाते हैं और कुछ बड़ा करने की उसकी सभी संभावनाएं खत्म हो जाती हैं।

आज 5 हज़ार वेकेंसी के लिए 50 लाख युवा फॉर्म भरते हैं। इसका कारण सिर्फ यह है कि माता-पिता, घर-परिवार, समाज, स्कूल, हमारी पूरी सोसाइटी सभी हमें एक रेस में धक्का देने में लगी हुई हैं। कोई भी हमें अपनी प्रतिभा पहचानने में सहायता नहीं करता है। अगर कोई अपनी प्रतिभा पहचान जाए, तो उसे आगे बढ़ाना तो दूर उसे नीचे दबा दिया जाता है।

मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। जब मैंने दसवीं पास की और उसके बाद जब मुझे ग्यारहवीं में सब्जेक्ट का चुनाव करना था, उस वक्त कोई भी लड़का आर्ट्स नहीं लेता था। आर्ट्स लेना जैसे लोगों की नज़रों में एक गुनाह था। लड़कियां भी आर्ट्स बहुत कम लेती थीं। इसी डर और शर्म से मुझे अपना वह सब्जेक्ट रिजेक्ट करना पड़ा, जिसे मैं जीता था।

लेकिन फाइनली मैंने आर्ट्स का ही चुनाव किया। मैं हमेशा से कुछ बड़ा करना चाहता था। घर वाले और समाज हमेशा मुझे नीचा दिखाते रहे हैं लेकिन मैं ज़िद्दी था, कभी किसी की नहीं सुनी, बस एक जुनून था बड़ा करने का।

हालांकि यह दुनिया वही सुनती है, जो वह सुनना चाहती है। मैंने बहुत बार कोशिश भी की लेकिन किसी ने सपोर्ट नहीं किया। सब बस चाहते हैं कि मैं रेस में कूद जांऊ और किसी तरह मेरी सरकारी नौकरी लग जाए।

नहीं मैं नहीं कर सकता ये सब। मैं अपनी सारी संभावनाएं ऐसे नहीं गंवा सकता था। मैं अपनी प्रतिभा को ऐसे ही व्यर्थ जाने नहीं दे सकता था। लेकिन समाज में ऐसे बहुत युवा हैं, जो अपनी प्रतिभा बिना पहचाने बस इस रेस में लगे हुए हैं। यह आंकड़ा कुछ समय बाद 5 हज़ार वेकेंसी के लिए 5 करोड़ हो जाएगा अगर ऐसे ही चलता रहा तो।

जो अपनी प्रतिभा पहचान गया उसे इस रेस के तले कुचल दिया जायेगा और हां मैं अपनी कोशिश जारी रखूंगा। ये जुनून ही है जो मुझे मेरे होने का एहसास दिलाता है।

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