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हिंदी सिनेमा के गीतकार जिन्हें हम याद करना ज़रूरी नहीं समझते

हिन्दी फिल्मों मे गीतकारों की सेवाएं लेने का चलन ‘आलम आरा’ से अस्तित्व मे आया जो आज एक ‘परम्परा’ में तब्दील हो चुका है। आर्देशिर ईरानी ने अपने साहसिक उद्यम से भारतीय सिनेमा मे संगीतकारों और गीतकारों के लिए नए अवसर खोल दिए। उस दौर से बरकरार गीत-संगीत की यह परम्परा हर सुपरहिट गीत और अल्बम से मज़बूत होती चली गई। फिल्म की पटकथा मे परिस्थितियों के प्रति पात्रों की ‘कविताई अभिव्यक्ति’ को गीतों के माध्यम से विस्तार मिला। एक तरह देखें तो हर मिजाज़ के लिए सिनेमा में प्रयोग किए जाने वाले बेहतरीन गीत, गीतकारों की ही रचानात्मकता का नतीजा हैं।

उर्दू पृष्ठभूमि से आए जानकारों का फिल्मों में गीत लेखन की ओर खासा रुझान रहा, एक समय यह चलन सा था जब उर्दू से संबंध रखने वाले ही इस क्षेत्र मे कामयाब होते थे। इस भाषा ने सिनेमा को अनेक गीतकार दिए, पर सभी उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण गीतकार उर्दू पृष्ठभूमि से ही आए हों, ऐसा नहीं है।

प्रगतिशील विचारधारा रखने वाले हिन्दी के जानकार गीतकार भी बेहद सफ़ल रहे— कवि प्रदीप, भरत व्यास, नीरज, योगेश, और पंडित नरेन्द्र शर्मा आदि इसकी मिसाल हैं।

हिन्दी फिल्म संगीत ने गीतकारों की एक बेहतरीन परम्परा देकर संगीत-प्रेमियों को यादगार तोहफा दिया, आलम-आरा से चला गीतों का कारवां कुछ उतार-चढ़ाव के साथ चलता रहा और आज के दिन तक जारी है। संगीत मे गुज़रे ज़माने के फनकारों ने कुछ ऐसा कमाल किया कि वह अमर हो गए। संगीत के सफ़र मे अनेक शख्शियतें आई, पर हर किसी को याद नहीं किया जाता।  कुछ फ़नकार ऐसे भी हैं जिन्हे सिरे से भुला दिया गया, इन लोगो ने काम तो अच्छा किया पर श्रोता इन्हे नाम से नहीं पहचानते।

इन फनकारों में ऐसे बहुत से गीतकारों का नाम लिया जा सकता है जिनके गाने आज भी सुने जाते हैं पर इन्हे भुला सा दिया गया और ये विमर्श का विषय नहीं बन सके। गीतकार कमर जलालाबादी, भरत व्यास, हसन कमाल, एस एच बिहारी, शहरयार, असद भोपाली, पंडित नरेन्द्र शर्मा, गौहर कानपुरी, पुरुषोत्तम पंकज, शेवान रिज़वी, अभिलाष, बशर नवाज़ और खुमार बाराबंकवी जैसी कई शख्शियतें विमर्श का विषय नहीं हैं। इन गीतकारों ने फिल्म संगीत को एक से बढ़कर एक गीतों की सौगात दी है, संगीत का स्वर्णिम दौर इनके ज़िक्र के बगैर अधूरा सा लगता है।

गीतकार कमर जलालाबादी ने अपने सिने कैरियर मे बहुत सुंदर गीतो की रचना की। उन्होंने फिल्म महुआ का ‘दोनों ने किया था प्यार मगर’, हावड़ा ब्रिज का ‘आईए मेहरबान’ और फिल्म हिमालय की गोद में का ‘मैं तो एक ख्वाब हूं’ जैसे हिट गीत लिखे। हिन्दी पृष्ठभूमि से फिल्मों में आए भरत व्यास के गीतों में हिन्दी कविता का प्रयोग देखा गया। ‘यह कौन चित्रकार है ( फिल्म- बूंद जो मोती बन गई)’, ‘ज्योत से ज्योत जगाते चलो (फिल्म- संत ज्ञानेश्वर)’, ‘आ लौट के आजा मेरे मीत (फिल्म- रानी रूपमती)’  जैसे लोकप्रिय गीतो के रचनाकार भरत व्यास पर कम ही लिखा गया है।

शायर-गीतकार हसन कमाल को फिल्म ‘निकाह’ के गीतों के लिए याद किया जाता है पर फिल्म ‘ऐतबार’ और ‘आज की आवाज़’ के लिए लिखे उनके गीत भी कमतर नही हैं। हसन कमाल को फिल्म ‘आज की आवाज़’ के लिए फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला था। इसी तरह गुज़रे ज़माने के एस एच बिहारी (शमसुल हुदा बिहारी) का नाम भी विमर्श से दूर है। संगीतकार ओ.पी. नैयर, एस.एच.बिहारी और आशा भोसले की टीम ने एक से बढ़कर एक यादगार गीत दिए। इनके लिखे गीतों में फिल्म किस्मत का गीत ‘कजरा मोहब्बत वाला’ और फिल्म सावन की घटा का गीत ‘ज़रा हौले-हौले चलो मेरे बालमा’ बेहद लोकप्रिय हैं।

इसी लिस्ट में एक और नाम है पंडित नरेन्द्र शर्मा का, गीतों से हिन्दी कविता को प्रतिष्ठित करने वाले नरेन्द्र जी का गीत ‘यशोमती मैय्या से बोले नंदलाला’ (फिल्म- सत्यम,शिवम,सुंदरम) भक्ति गीतों मे आज भी लोकप्रिय है, लेकिन गीत के रचनाकार के व्यक्तित्व को भुला ही दिया गया।

शहरयार के गीतकार पक्ष को बहुत कम ही लोग जानते हैं, मुज़फ्फर अली की ‘उमरावजान’ के लिए गीत लिखने के बाद शहरयार ने गीत लिखना बंद कर दिया था। कहा जाता है कि उन्होने फिल्म ‘अर्जुमंद’ के लिए भी गीत लिखे, लेकिन अफसोस कि फिल्म रिलीज़ न हो सकी। शहरयार की ही तरह शेवान रिज़वी और बशर नवाज़ ने भी सीमित गाने लिखे, पर इनका फन काबिले तारीफ था। गीतकार बशर नवाज़ का ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी (फिल्म- बाज़ार)’ और शेवान रिज़वी का ‘दिल की आवाज़ भी सुन (फिल्म- हमसाया)’ जैसे गाने आज भी याद आते हैं।

जां निसार अख्तर, कवि प्रदीप, रमेश शास्त्री, पुरुषोत्तम पंकज, सरस्वती कुमार दीपक, केदार शर्मा, वर्मा मलिक, अभिलाष, गौहर कानपुरी, रवि और खुमार बाराबंकवी जैसे गीतकारों से अधिकांश संगीत प्रेमी अंजान हैं। इन कलम के जादूगरों ने हांलाकि कुछ ही गीत लिखे पर जो लिखे वो बेहतरीन थे।

ऐ दिल-ए-नादान, हवा मे उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का- रमेश शास्त्री। चांद जैसे मुखड़े पर बिंदिया सितारा (पुरुषोत्तम पंकज)। तुम्हे गीतों मे ढालूंगा, सावन को आने दो (गौहर कानपुरी)। जय बोलो बेईमान की (वर्मा मलिक)। किस्मत के खेल निराले (रवि)। मत भूल मुसाफ़िर तुझे जाना होगा ( केदार शर्मा)। माटी कहे कुम्हार से (सरस्वती कु. दीपक)। इतनी शक्ति हमे देना दाता (अभिलाष)। चल अकेला (कवि प्रदीप)। साज़ हो तुम (खुमार बाराबंकवी)। ऐसे बहुत से फनकार हुए जो संगीत की महफिलों से दूर गुमनामी का जीवन जीते रहे या जी रहे हैं।

फिल्म प्रचारक भी इस बात को समझ गए थे कि गीत दर्शकों को आकर्षित करते हैं लिहाज़ा फिल्म प्रमोशन मे गीतों को खासा महत्व मिलने लगा, खासतौर पर रेडियो-टीवी मे फिल्म के गीतों के साथ उनकी मार्केटिंग की गई।

समय के साथ फिल्म वालों ने टीवी प्रमोशन मे गीत की प्रस्तुति को गुणवत्ता से अधिक महत्व दे दिया, गानों मे फूहड़ता छाने लगी और फिर सब कुछ ठीक न हुआ।

ऐसे हालात मे फिल्मवालों को कल्याण की राह, गुणवत्ता की शरण में आकर ही मिली। गीतकारों ने अपनी कलम के जादू से गीत-संगीत का बेड़ा पारकर फिल्म-संगीत मे लोगों की रुचि फिर से जगाई। गुलज़ार, जावेद अख्तर ने टीवी युग को चुनौती देकर बेहतरीन गीतों की रचना की जो अपनी दूसरी पारियां शुरू कर आज भी मोर्चे पर कायम हैं।

तकनीकी सुविधाओं की बात करें तो सन 80 के आस-पास बहुत से लोगों के पास टेप या कैसेट रिकार्डर जैसे आधुनिक उपकरण नहीं थे, ज़्यादातर लोग रेडियो पर ही गीत-संगीत का आनंद लेते थे। इससे पहले स्थिति इस जैसी भी नहीं थी, सन 50-60 मे रेडियो होना भी एक बड़ी बात थी। यदि हम इस समय का जायज़ा ले तो पाएंगे कि हिन्दी संगीत का ‘स्वर्णिम’ युग रेडियो पर लोकप्रिय हुआ। जिस संगीत को लोगों ने रेडियो पर सुनकर याद कर  लिया हो वह कितना प्रभावी रहा होगा यह स्पष्ट है। फिल्म निर्माता को समय की नब्ज़ पहचानकर संगीत के प्रति ‘कामचलाऊ’ नज़रिए को हटाकर बेहतर संगीत को लाना होगा।

गीतकार के व्यक्तित्व को ‘रचना’ की आज़ादी देकर गीतों मे फिर से जान डाली जा सकती है, जब उसके नज़रिए को ‘स्पेस’ मिलेगा तो गाने दिल तक ज़रूर पहुंचेंगे। यादगार गीतो का स्वर्णिम दौर फिर से रचा जा सकेगा। गुलज़ार ,जावेद अख्तर, प्रसून जोशी, अमिताभ भट्टाचार्य, स्वानंद किरकिरे जैसे गीतकार इसका बेहतर उदाहरण हैं जिन्होंने आज के दौर में कुछ दिलकश गीतों की रचना की।

 

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