12 जनवरी को हम सभी ‘यूथ डे’ के रूप में मनाएंगे। स्वामी विवेकानंद को याद करते हुए देश के विकास में अपना योगदान देंगे। इस दिवस के अवसर पर हम भारत के युवाओं के सबसे ज़रूरी सवालों का विश्लेषण करना चाहते हैं।
अब तो आपको अंदाज़ा हो गया होगा कि हम किस विषय पर बात कर रहे हैं। रोज़गार और उसे हासिल करने में आरक्षण बहुत अहम भूमिका निभाती है। या यूं कहें कि आरक्षण, रोज़गार पाने का सबसे बड़ा साधन बन गया है। वहीं, दूसरे नज़रिए से या भारत के संविधान की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ज़रूरी है, जो देश में समानता और बंधुत्व को बढ़ावा देती है।
क्यों है आरक्षण की आवश्यकता?
लगातार आरक्षण विरोधी लोगों का यह प्रश्न होता है कि आरक्षण जाति आधारित है, जो गलत है। उनके लिए मैं यही कहना चाहूंगा कि जिस देश में जाति के आधार पर भेदभाव आम बात है, जहां आज भी दलितों को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता है। जिस देश में आज भी दलितों को जाति के आधार पर प्रताड़ित किया जाता है, वहां यह प्रमाणित होता है कि समाज आज भी जाति के आधार पर भेदभाव करता है।
आरक्षण की आवश्यकता क्यों है? इसके जवाब में हमें तार्किक होने की ज़रूरत है। जैसे- एससी, एसटी, ओबीसी और हाल ही में ईडब्ल्यूएस को जिस तरह से आरक्षण के दायरे में लाया गया, इसके बारे में लोगों को यह जानकारी होनी चाहिए कि सरकार ने विभिन्न आयोग के माध्यम से उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का विश्लेषण करने के बाद ही इसे अमल में लाया।
केन्द्र सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व ना के बराबर
आपको बता दें कि मंडल कमीशन लागू होने के 25 वर्ष बाद भी हमारे देश में पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व केंद्र सरकार की नौकरियों में 15% से ज़्यादा नहीं है। क्या इस पर हमें विचार करने की ज़रूरत नहीं है?
इस प्रकार से अन्य पिछड़े वर्ग के लोग प्रताड़ित हैं। ऐसे में आरक्षण विरोधी लोगों के लिए यह एक सवाल है कि एसटी, एससी और ओबीसी वर्गों को आरक्षण दिए जाने के बाद भी सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी क्यों नहीं बढ़ी है?
आपको बता दें कि एससी, एसटी और ओबीसी की शैक्षणिक स्थिति बहुत खराब है, जो दर्शाता है कि शुरुआत से ही उनकी शिक्षा में भेदभाव हुआ है। इसके अलावा स्कूल से बाहर रहने वाले स्टूडेंट्स की संख्या में एससी-एसटी विद्यार्थियों की संख्या बहुतायत में है।
मोदी ने आरक्षण को एक नया नज़रिया दिया
आरक्षण को भारतीय संविधान के अनुच्छेद ’16’ के तहत दिया गया है, जो आज़ादी से पहले से भारत में लागू है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण की सुविधा पहले सी ही थी लेकिन 1990 में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया, तब से राष्ट्रीय स्तर पर अन्य पिछड़े वर्ग को जाति आधारित आरक्षण का लाभ दिया गया।
जाति आधारित आरक्षण के विरोधी 90 के दशक तक शांत थे लेकिन जैसे ही ओबीसी आरक्षण लागू हुआ, उन्होंने इसके खिलाफ बिगुल फूंक दिया। आज की तारीख में संविधान में एससी, एसटी और ओबीसी को संरक्षित करने के लिए सारे प्रावधान किए गए हैं।
नरेंद्र मोदी की सरकार ने आरक्षण के डिबेट को नया नज़रिया दिया है। उन्होंने आरक्षण को आर्थिक आधार भी देने का काम किया है। अनुच्छेद ’16’ में उन्होंने परिवर्तन करते हुए भारत की ऊंची जाति और अन्य धर्मों से जुड़े हुए आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को आरक्षण देने का काम किया है। यह आरक्षण विरोधी लोगों के मुंह पर तमाचा है।
सामाजिक और शैक्षणिक असमानता दूर करने के लिए ज़रूरी है आरक्षण
भारत में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के साथ-साथ हाल ही में संविधान संशोधन द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों को मिलने वाले आरक्षण इस संदर्भ में प्रश्न हैं कि क्या आने वाले वर्षों में यह जारी रहेगा? इसका जवाब है कि आरक्षण समाज में फैली हुई सामाजिक और शैक्षिणिक असमानता को दूर करने के लिए लाई गई थी।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आरक्षण के मूल उद्देश्य को राजनीतिक दलों ने भटकाते हुए इसे राजनीतिक केंद्र बिंदु बना दिया है। मसलन, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जातिगत राजनीति, आरक्षण के इर्द-गिर्द घूमती रहती है जिससे समाज में एक नए प्रकार की असमानता और टकराव का आगाज़ होता है।
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट के ज़रिये इसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। ड्राफ्ट रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में मिलने वाले आरक्षण का लाभ ओबीसी को मात्र 25% ही मिल पाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि संपन्न और प्रभुत्ववादी लोगों को इसका लाभ 75% मिलता है। ओबीसी समाज आज भी शैक्षणिक और सामाजिक लाभ से वंचित है।
यदि इसी प्रकार हम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का विश्लेषण करने के लिए किसी संवैधानिक आयोग का गठन करते हैं, तो परिणाम इसी तरह के आएंगे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 25% प्रभावशाली जातियों को आरक्षण का लाभ मिल पाया है। बाकी के दलित और अति पिछड़े आदिवासियों को इसका कोई लाभ नहीं मिला है, वे आज भी वंचित हैं।
आरक्षण के संदर्भ में जिस तरीके का राजनीतिक और सामाजिक वातावरण तैयार किया गया है, उससे मुझे नहीं लगता कि कोई सरकार यह हिम्मत कर पाएगी कि संविधान में संशोधन करके अथवा सरकारी आदेश जारी करके आरक्षण को खत्म करें।
यहां यह स्पष्ट करना ज़रूरी होगा कि संविधान में आरक्षण को लागू करने का कोई भी स्थाई प्रावधन नहीं है। सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मिलने वाले आरक्षण की कोई समय सीमा नहीं है लेकिन एससी-एसटी को विधानसभा, लोकसभा तथा अन्य जगहों पर मिलने वाले राजनीतिक आरक्षण की समय सीमा निर्धारित है तथा इसको आवश्यकता के आधार पर राज्य द्वारा संविधान संशोधन करके हर 10 साल पर आगे बढ़ा सकता है।
इसलिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यदि राज्य को लगता है कि उनके देश में निवास करने वाले लोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से संपन्न हो गए हैं, तो उनको आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जा सकता है।